न ज़र्रा ही मिला और न आफ़ताब मिला,
जो मिला ज़िन्दगी को बेहिसाब मिला॥
बन के नासूर सताता रहा ये दर्द-ए-दिल,
तुम्हारी आस में जो भी मिला, नायाब मिला....
दूर से हँसता ही दिखा था गुलशन,
पास आए तो काँटों भरा गुलाब मिला...
ज़मीं पे कुछ न बचा दागदार होने को,
उठी नज़र तो मुँह फेरता माहताब मिला....
कैसा शिकवा तुम्हारे बताये रस्ते से,
अपना मुकद्दर ही हमको कुछ ख़राब मिला....
अपनी सरहद में ही उलझे से बुतपरस्त मिले,
हुई मुद्दत की चहरे पे इन्कलाब मिला...
रस्मो-तहज़ीब के तले भी "निखिल',
अपना घर हमको बेनकाब मिला....
निखिल आनंद गिरि
+919868062333
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17 कविताप्रेमियों का कहना है :
निखिल जी,
आपकी परिचित शैली की गज़ल है और बहुत उम्दा।
ज़मीं पे कुछ न बचा दागदार होने को,
उठी नज़र तो मुँह फेरता माहताब मिला.
अपनी सरहद में ही उलझे से बुतपरस्त मिले,
हुई मुद्दत की चहरे पे इन्कलाब मिला...
कलम आबाद रहे।
*** राजीव रंजन प्रसाद
कैसा शिकवा तुम्हारे बताये रस्ते से,
अपना मुकद्दर ही हमको कुछ ख़राब मिला....
बहुत सुंदर निखिल .. इसको पढ़ के एक पुराना गाना याद आया ..
जाने वो कैसे लोग थे जिनको प्यार से प्यार मिला ...:)
शुभकामना के साथ
सस्नेह
रंजना
निखिल जी़
वैसे तो आपकी हर बात कुछ ना कुछ कहती है
लेकिन जो आपने मेरे लिये लिखी
कैसा शिकवा तुम्हारे बताये रस्ते से,
अपना मुकद्दर ही हमको कुछ ख़राब मिला....
बहुत सुन्दर
या यूं कहूं
बहुत खूब
बेहतरीन कविता है, भाई,
सही कहूँ तो आपने शब्दों की मिलावट करने में आपने कहीं भी कोई कसर नही छोड़ी है, उम्दा रचना के लिये बधाई।
बन के नासूर सताता रहा ये दर्द-ए-दिल,
तुम्हारी आस में जो भी मिला, नायाब मिला....
बहुत ख़ूब निखिल यह शेर पूरी ग़ज़ल पर भारी है वैसे तो किसी की रचना को मैं चेद्ता नही हूँ, पर इस शेर के भाव और निखर कर सामने आता अगर ऐसा कहा होता
बन के नासूर सताता रहा ये दर्द दिल को
तुम्हारी आस में जो भी मिला, नायाब मिला....
ज़मीं पे कुछ न बचा दागदार होने को,
उठी नज़र तो मुँह फेरता माहताब मिला....
वाह वाह…बहुत खूब्……।
प्रिय निखिल
बहुत ही सुन्दर लिखा है । कुछ तो मिला है - यही काफी है ।
दूर से हँसता ही दिखा था गुलशन,
पास आए तो काँटों भरा गुलाब मिला...
ज़मीं पे कुछ न बचा दागदार होने को,
उठी नज़र तो मुँह फेरता माहताब मिला....
बहुत खूब । शाबाश । आशीर्वाद सहित
निखिल जी!!!
बहुत अच्छा लिखा है...शब्दों का बहुत ही सुन्दर प्रयोग किया है.....
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न ज़र्रा ही मिला और न आफ़ताब मिला,
जो मिला ज़िन्दगी को बेहिसाब मिला॥
बन के नासूर सताता रहा ये दर्द-ए-दिल,
कैसा शिकवा तुम्हारे बताये रस्ते से,
अपना मुकद्दर ही हमको कुछ ख़राब मिला....
हुई मुद्दत की चहरे पे इन्कलाब मिला...
अपना घर हमको बेनकाब मिला....
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शुभकामनायें!!!
ज़मीं पे कुछ न बचा दागदार होने को,
उठी नज़र तो मुँह फेरता माहताब मिला.
बहुत सुन्दर।
आपकी कलम सदा से ही हमारी रविवारीय छुट्टी को रंगीन बनाती रही है।
सभी को प्रतिक्रिया देने का शुक्रिया.....रंजू जीं, मेरी ग़ज़ल पढ़ के बडे अच्छे गाने की याद दिला दी आपने....
सजीव जीं, आपके सुझाव पर ध्यान दूंगा....
शोभा जीं, आपका आशीष हमेशा काम आता है....
और शुक्रिया सुनील "ज़ालिम" भाई, आपकी रविवारीय छुट्टी मेरी वजह से बन जाती है तो ये मेरे लिए गर्व की बात है....यूं ही हौसला बढाते रहे......
सस्नेह,
निखिल
निखिल जी,
गज़ल में आप कमाल कर रहे हैं आजकल।
कैसा शिकवा तुम्हारे बताये रस्ते से,
अपना मुकद्दर ही हमको कुछ ख़राब मिला....
वाह-वाह!! मज़ा आ गया।
निखिल जी,
दूर से हँसता ही दिखा था गुलशन,
पास आए तो काँटों भरा गुलाब मिला...
आपकी कविता मनोहारी होने के साथ -साथ प्रेरणादायक भी है......
जो हमे जीवन के सच को दिखाती है कि...हमेशा जो हम चाहते है वो हमे नही मिल पाता!
न ज़र्रा ही मिला और न आफ़ताब मिला,
जो मिला ज़िन्दगी को बेहिसाब मिला॥
बहुत ही अच्छी गज़ल है।
आप तो बेहतरीन ग़ज़ल लिखते हैं भाई। लगता है कभी आपकी डायरी ही माँगनी पड़ेगी।
मेरे लिए तो यह शे'र प्रेरणा बन गया-
अपनी सरहद में ही उलझे से बुतपरस्त मिले,
हुई मुद्दत की चहरे पे इन्कलाब मिला...
उम्दा रचना......
ज़मीं पे कुछ न बचा दागदार होने को,
उठी नज़र तो मुँह फेरता माहताब मिला.
अपनी सरहद में ही उलझे से बुतपरस्त मिले,
हुई मुद्दत की चहरे पे इन्कलाब मिला...
बहुत खूब ..
निखिल जी,
बधाई।
ज़मीं पे कुछ न बचा दागदार होने को,
उठी नज़र तो मुँह फेरता माहताब मिला....
अपनी सरहद में ही उलझे से बुतपरस्त मिले,
हुई मुद्दत की चहरे पे इन्कलाब मिला
उम्दा पंक्तियाँ है निखिल साहब। गजल-विधा में तो आप कहर ढाए जा रहे हैं।बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
Nikhil bhai,shandar aur dhardar gazhal.badhai ho
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