स्कूल से लौटते बच्चे,
कांधों पर लादे,
ईसा का सलीब-
भारी भरकम बस्ते,
छुट्टी के बाद मगर,
बोझ से नही लगते,
खाने का टिफिन,
पानी की बोटल,
खाली और हलके,
पटरी पर चलते,
चीखते और शोर करते,
एक के बाद एक,
बेफिक्र हँसते -गाते,
किसी नयी पिक्चर का गीत,
सुर से सुर मिलाते,
हाथ में बल्ला और बॉल थामे,
मैच की योजना बनाते,
या किसी टीचर की नक़ल बनते,
जाने क्या क्या किस्से सुनाते,
स्कूल से लौटते बच्चे,
पल भर में गुजर जाता है,
आँखों के आगे से,
पूरा का पूरा हुजूम,
जिंदगी में गुजरे किसी,
सुनहरे दौर की तरह,
उनके ठहाके मगर,
दूर तक सुनायी देते हैं....
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
सजीव जी बचपन की मधुरता और मिठास धोलती यह रचना बहुत ही सुंदर लगी ..
हम बड़े हो जाते हैं पर कही न कही बचपन की मीठी यादे रह जाती है !!
बधाई सुंदर रचना के लिए
रंजू
सजीव जी,
मुझे आप अपना फैन मानें।
स्कूल से लौटते बच्चे,
कांधों पर लादे,
ईसा का सलीब-
पल भर में गुजर जाता है,
आँखों के आगे से,
पूरा का पूरा हुजूम,
जिंदगी में गुजरे किसी,
सुनहरे दौर की तरह,
उनके ठहाके मगर,
दूर तक सुनायी देते हैं....
काश! एसी स्पर्श करती कवितायें मैं लिख पाता। सटीक, मर्मस्पर्शी और सोच के हर तंतु ठहरा सकने में सक्षम रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
200 % सहमत हूँ राजीव जी से.. बचपन की याद दिला दी आपने
सजीव जी!
बहुत सजीव चित्रण।
ऐसा लगा जैसे ढेर सारे रंग बिखर कर ठहाके लगाने लगे हों।
बहुत भाई मन को आपकी रचना।
सस्नेह
प्रवीण पंडित
सजीव जी
एक सुन्दर शब्द चित्र उपस्थित किया है आपने स्कूल से लौटते बच्चों का । सचमुच बचपन के वो दिन
अविस्मरणीय होते हैं । उन्हें लौटाने के लिए बधाई ।
सजीव जी,
सुन्दर सरल शब्दों में सहज भाव से कही गयी गम्भीर रचना. हमारे जमाने में तो तख्ती और स्लेट का भार अलग से होता था.
सजीव जी,
मुझे भी.....
आप अपना फैन मानें।
स्कूल से लौटते बच्चे,
कांधों पर लादे,
ईसा का सलीब-
भारी भरकम बस्ते
वाह.....क्या बात कही है....मैं तो सलीब में जी उलझ कर रह गयी ...
सरल शब्दों में....
गम्भीर, मर्मस्पर्शी ,सुन्दर रचना,
बधाई
स-स्नेह
गीता पंडित
प्रिय सजीव, काव्य एक कला है, एक वरदान है. वाक्यों के कुछ अनावश्यक अंशों एवं कुछ आवश्यक अंशों को काटपीट कर क्लिष्ट शबदों से भर कर कुछ पंक्तियां जमा दें तो कई लोगों के लिये काव्य बन जाता है -- काव्य जिसे औसत लोग नहीं समझ सकते. सवाल यह है कि यदि यह समझने के लिये नहीं है तो फिर इसकी रचना क्यों की गई. यदि रचना स्वांत: सुखाय की गई है तो क्यों दूसरों को उसके बारे में बताते हो.
यह पृष्टभूमि मैं ने इसलिये दी है कि आपकी कविताये काफी ललित भाषा/भाव के साथ लिखी जाती है. कई लोग इस तरह की कविता लिखने के बदले "आप लिखें, खुदा जाने" के अंदाज से लिखते है. उम्मीद है कि इस चक्कर में न पड कर आप इसी तरह का ललित काव्य लिखते रहेंगे.
यह तो हुई पृष्टभूमि. अब आते हैं कविता पर -- आपने बहुत ही सरल एवं सहज शब्दों में, बहुत आसानी से दिखने वाले प्रतीकों की मदद से, एवं दिल को छूने वाले प्रतीको (सूली), आदि की मदद से बचपन का जो खाका खीचा है उस ने मन को मोह लिया.
आप की रचनायें सामान्य जीवन को बहुत सुंदर एवं सरल शब्दों में प्रस्तुत करती है. ऐसा ही लिखते रहें -- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
सजीव जी
पल भर में गुजर जाता है,
आँखों के आगे से,
पूरा का पूरा हुजूम,
जिंदगी में गुजरे किसी,
सुनहरे दौर की तरह,
उनके ठहाके मगर,
दूर तक सुनायी देते हैं....
आपकी रचना मात्र स्कूली बच्चों एवं उनके
बस्तों तक सीमित ना होकर मानव जीवन
दर्शन की अनुभूति प्रदान करती है
सप्रेम
सजीव जी,
बेहद स्शक्त प्रस्तुति, बहुत पसंद आई।
स्कूल से लौटते बच्चे,
कांधों पर लादे,
ईसा का सलीब-
*****
जिंदगी में गुजरे किसी,
सुनहरे दौर की तरह,
उनके ठहाके मगर,
दूर तक सुनायी देते हैं....
ऐसी सहज एवं जीवंत रचना के लिए बधाई।
सजीव जी बहुत ही प्यारी सी रचना है। बचपन की याद दिला दी…
किसी नयी पिक्चर का गीत,
सुर से सुर मिलाते,
हाथ में बल्ला और बॉल थामे,
मैच की योजना बनाते,
या किसी टीचर की नक़ल बनते,
जाने क्या क्या किस्से सुनाते,
स्कूल से लौटते बच्चे,
bahut khoob Sanjeev ji, yun laga bachpan ke wo beete din laut aaye, bahut hi mithi bahit hi chulbuli bahut hi aakarshak, bachpan ki sabhi baatein. Bite dino mein le chalne ke liye bahut bahut shukriya. aapko bahut bahut Badhai.
कांधों पर लादे,
ईसा का सलीब-
छुट्टी के बाद मगर,
बोझ से नही लगते,
जिंदगी में गुजरे किसी,
सुनहरे दौर की तरह,
उनके ठहाके मगर,
दूर तक सुनायी देते हैं....
सजीव जी,
बचपन का खांका खीचकर आपने पूरी जिदगी उससे गढ डाली है। हर इंसान कहीं-न-कहीं अपने-आप को आपकी कविता से जुड़ा पाता है। कविता की बात करें तो आपसे हमेशा कुछ-न-कुछ सीखने को मिलता रहता है।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
अपने बेटे को यही सब करता अभी देख रहा हूँ और ये देख मन बालपन की मसूमियत और स्वछंदता के प्रति श्रृद्धा से भर उठता है।
ईसा का सलीब-
इस प्रतिक का प्रयोग अजीब सा लगा । कवि का दिमाग पुरे भारत के सांस्क्रुतीक प्रतिको को भुल कर इसा के पास क्यो पहुच गया, यह मेरे लिए रहस्यमय है ।
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