जब भी राहों पर चलती है वो,
दहशत दिल में रखती है वो,
विश्वास के मन्दिर टूट गए,
भरोसे उठ गए सारे,
अपने साए से भी अब तो डरती है वो,
खिल कर हंसती नहीं,
खुल कर मिलती नहीं किसी से वो,
चुपचाप, खामोश फ़क़त अब रहती है वो,
हर तकती निगाहों में
एक भूख सी नज़र आती है उसे,
सर से पाँव तक ख़ुद को ढाँपे रखती है वो,
वो जो उड़ना चाहती थी
नीले गगन मे कहीं,
सिमटी सहमी-सी अब वो रहती है क्यों ?
उसे जिसे नाज़ था अपने शहर पर,
गुमान था अपने वज़ूद पर कभी,
आज ख़ुद से भी शर्मसार वो लगती है क्यों ?
कैसे यकीं दिलाओगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खियाँ रोज पढ़ती है वो ।
--------- सजीव सारथी ----------------
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26 कविताप्रेमियों का कहना है :
सजीव जी,
खामोश आवाज़ को बुलंद स्वर दिये हैं आपनें वह भी अपने ही परिचित अंदाज़ में..।
कैसे यकीं दिलावोगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खिया रोज पढती है वो ।
बेहद सामयिक और नितांत आवश्यक रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सजीव जी,
कैसे यकीं दिलावोगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खिया रोज पढती है वो |
आज का सच........... बहुत कम शब्दों में आपने बहुत आसानी से, सुन्दर ढंग से कह दिया ...बहुत खूब.....
लिखते रहें............ आपको पढना अच्छा लगता है ।
बधाई
"कैसे यकीं दिलावोगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खिया रोज पढती है वो । "
यह पढ़कर मुझे पूर्व राष्ट्रपति कलाम साहब की मीडिया से की गई एक अपील याद आ गई जिसमे उन्होनें कहा था "खबरें ऐसी हो जो लाए मुस्कान"।
बहुत बढ़िया लिखा है आपने!
कैसे यकीं दिलावोगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खिया रोज पढती है वो ।
वाह बहुत सुंदर बात .. बहुत ही सही और सुंदर बातें लिखी है आपने इस रचना में...
विश्वास के मन्दिर टूट गए, भरोसे उठ गए सारे,
अपने साए से भी अब तो डरती है वो,
बहुत सुंदर...
हर तकती निगाहों मे एक भूख सी नज़र आती है उसे,
सर से पाँव तक ख़ुद को धाम्पे रखती है वो,
बहुत बहुत बधाई आपको इस सुंदर रचना के लिए सजीव जी
सजीव जी!
आखिरी दो लाईनें
कैसे यकीं दिलावोगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खिया रोज पढती है वो
कविता का उपसंहार लगती हैं
बहुत ही सुंदर रचना है
आप को मिली सभी तारीफों पर मैं भी अपनी सहमती जताता हूं
बिना कहे भी बहुत कुछ कह जाना.. यही वास्तव में कला है और आपने अपनी कला को यहाँ बखूबी प्रकट किया है । बहुत ही सामयिक रचना और कविता में उसे सुंदरता से ढ़ाला हुआ । बधाई ।
सजीव जी
बहुत ही अर्थ पूर्ण एवं प्रतीकात्मक कविता है। विशेष रूप से -
विश्वास के मन्दिर टूट गए,
भरोसे उठ गए सारे,
अपने साए से भी अब तो डरती है वो
एक सफ़ल प्रयास के लिए बधाई ।
सजीव जी ,आपकी "दहशत" केवल आपकी ही नही अपितु हमारे समाज के हर व्यक्ति के मन की दहशत है !निश्चय ही आप एक जागरूक कवि हैं !
खिल कर हसती नही ,खुल कर मिलती नही किसी से वो
चुपचाप खामोश फकत रहती है वो
आपकी रचना मार्मिक सत्य को दर्शाती है
जिसे नाज़ था अपने शहर पर ,
गुमान था अपने वजूद पर कभी
आज ख़ुद से भी शर्मसार वो
लगती है क्यों ?
विचारशील ,गम्भीर एवं सटीक प्रश्न !जीवन के यथार्थ को दर्शाती हुई एक संवेदनशील रचना के लिए बधाई.......!
अति संवेदन शील रचना और बेहतरीन प्रस्तुति !
सोचने को विवश करती है आपकी कविता
वाह...
"कैसे यकीं दिलावोगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खिया रोज पढती है वो । "
"कैसे यकीं दिलावोगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खिया रोज पढती है वो । "
शब्दों के इस खेल में हलके हलके खेलते हुए भी बाजी आपकी हुई। बहुत सुन्दर रचना।
सजीव जी!
भाव की दृष्टि से एक उत्तम रचना है. पर शिल्प में अभी सुधार अपेक्षित है.
आपकी क्षमताओं से परिचित होने के कारण, आपसे बहुत ज़्यादा उम्मीद रहती है.
भाव की गहनता और प्रभाव के लिये बधाई!
प्रिय सजीव
पहली पंक्ति पढी तो लगा कि यह शायद काफी लम्बी एक कविता होगी. लेकिन जब 19 पंक्तियों में कविता खतम होगी एवं इतने कम पंक्तियों में तुम ने इतना सब कुछ कहा तो बहुत आश्चर्य हुआ. कम शब्दों में एक पूरा लेख बांध देना आसान काम नहीं है.
दूसरी ओर इस रचना में तुम ने जो कहा है वह हम सब की कहानी है. न केवल मां, बहन, बेटी, व पत्नी के मन से ये बातें गुजरती हैं, बल्कि उन का यह डर हम पुरुषों के मन में भी गूंजता रहता है.
जिस परिवर्तन ने यह किया उसे पांच वाक्यों मे कह दिया:
"विश्वास के मन्दिर टूट गए"
एवं उसके फल को निम्न 11 शब्दों में बहुत मार्मिक तरीके से बांध दिया है:
"भरोसे उठ गए सारे,
अपने साए से भी अब तो डरती है वो"
ईश्वर से मेरी कामना है कि इस कलम को दिन प्रति दिन और सशक्त बनाये.
लेकिन अभी कवि/रचनाकार की जिम्मेदारी बची है. इस रचना में तुम ने समस्या/कारण का बहुत अच्छा चित्रण किया है. अगला कदम कुछ ऐसा लिखने के द्वारा उठेगा जब मनुष्य मन में परिवर्तन लाने के लिये पाठकों का आह्वान करोगे. -- शास्त्री जे सी फिलिप
हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
सजीव जीं,
ये कविता तो मैं आपसे सुन भी चुका हूँ...मगर आज टिप्पणियां भी पढ़ीं. बस इतना ही कहूंगा कि ऐसी कविताओं पर तालियाँ बजाने का मन नहीं करता.....कोफ़्त होती है क्या " सभ्य समाज" के ये दाग कभी मिटाए जा सकेंगे....
कविता का अंत बेहद प्रभावशाली है.....लेकिन इस बहस को बहुत आगे तक ले जाना है....
निखिल
भूल सुधार:
"जिस परिवर्तन ने यह किया उसे पांच वाक्यों मे कह दिया:"
"पांच शब्दों में" पढें
दोस्त तेरी लिखी, ये चंद पंक्तिया सचाई बयाँ करती है दिल को छूती हैं, हमें एक ऐसे महोल्ल की कल्पना करनी चहिये जिसमे औरत बिना किसी खौंफ के रह सके या मैं ये कहूंगा की हमे एक ऐसा समाज बनाना चाहिए
सजीव जी,
सुन्दर, भावप्रधान व संवेदनशील रचना है आपकी.
कैसे यकीं दिलावोगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खिया रोज पढती है वो ।
अति सुंदर ...बधाई
बहुत भावपूर्ण रचना है। बहुत ही अच्छी तरह से तुमने बलात्कार की त्रासदी को अभिव्यक्त किया है। बहुत बधाई..
धाम्पे की जगह ढांपे शब्द होगा, उसे सुधार लो ।
सजीव जी!!
दहशत के भाव को आपने बहुत ही खुब्शूरती से व्यक्त किया है...
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वो जो उड़ना चाहती थी
नीले गगन मे कहीं,
सिमटी सहमी-सी अब वो रहती है क्यों ?
उसे जिसे नाज़ था अपने शहर पर,
गुमान था अपने वज़ूद पर कभी,
आज ख़ुद से भी शर्मसार वो लगती है क्यों ?
कैसे यकीं दिलाओगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खियाँ रोज पढ़ती है वो ।
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शुभकामनायें!!!
इन दिनो समाचार नारी अपराध की घटनाओं से जिस तरह भरे पडे हैं उनमें आपकी यह कविता स्वर की तरह प्रतीत होती है।
उसे जिसे नाज़ था अपने शहर पर,
गुमान था अपने वज़ूद पर कभी,
आज ख़ुद से भी शर्मसार वो लगती है क्यों ?
कैसे यकीं दिलाओगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खियाँ रोज पढ़ती है वो ।
सजीव जी,
एक सशक्त कॄति के लिए साधुवाद।
कैसे यकीं दिलाओगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खियाँ रोज पढ़ती है वो ।
साधारण शब्दों मे असाधारण बात कह दी है आपने।
सजीव जी बहुत ही सुन्दर रचना बनी है, आज के समाज का कड़वा सच्। अन्त की दो पक्तियाँ तो कविता को बहुत ही सशक्त बना देती हैं। बहुत बहुत बधाई, आगे भी आप की रचनाओं का इन्तजार रहेगा
सजीव जी ....
किसी रचनाकार ने कहा है ....ए खुदा अब क्या मांगे हम तुझसे ....तुने तो हमे सारा जहाँ ही दे दिया ......वास्तव में
इश्वर ने हमे सब कुछ दिया , मगर...मगर,क्या सभी मनुष्य समान है ....यदि हाँ तो फिर औरत और मर्द में भेद भाव क्यों ? आख़िर क्यों औरतों को अपनी पहचान से ही डर है ...... अपनी कविता के मध्यम से आपने इस बात को जिस ढंग से अभिवय्क्त किया है ...वो सचमुच काबिले तारीफ है ....
वो जो उड़ना चाहती थी नीले गगन मे कहीं, सिमटी सहमी-सी अब वो रहती है क्यों ?
बहुत खूब
सजीव जी,
शिल्प के स्तर पर आपकी कविता अत्यधिक लचर है। सम्भव है आपका वही तर्क होगा कि लिखते समय आप इतने फ्लो में होते हैं कि शिल्प जैसी चीज़ आपके दीमाग में आती ही नहीं, केवल भाव की प्रमुखता पर ध्यान दिये हैं। लेकिन वो भी इस बार प्रधान नहीं है।
कविता जैसी बात बस निम्न शे'र में है-
कैसे यकीं दिलाओगे उसे की महफूज़ है वो,
खबरों की काली सुर्खियाँ रोज पढ़ती है वो ।
सजीव जी,
अच्छे भाव हैं। दिल में एक आक्रोश पैदा करते हैं। राजीव जी ने सही कहा है कि आपने खामोश आवाज को बुलंद स्वर दिए हैं।
मुझे शिल्प में कुछ कमियाँ लगी हैं। ध्यान दीजिएगा।
आपकी अगली रचना के इंतजार में-
विश्व दीपक 'तन्हा'
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