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Thursday, October 25, 2007

हिंद युग्म साप्ताहिक समीक्षा - 14 (26 अक्तूबर, 2007)


26 अक्टूबर 2007 (शुक्रवार)

हिंद-युग्म साप्ताहिक समीक्षा : 14

(15 अक्टूबर 2007 से 21 अक्टूबर 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)


मित्रो!


`मित्र संवाद` एक किताब है। कई बरस पहले पढ़ी थी। कल फिर पढ़ रहा था। चिटि्ठया¡ हैं डॉ. रामविलास शर्मा और केदारनाथ अग्रवाल की। आइए, बांदा से 5 दिसंबर 1943 को लिखी केदार जी की एक चिट्ठी का अंश साथ-साथ पढ़ें। लिखा है - "लोग गधे होते हैं - हरामजादे होते हैं, उन्हें तो तुम जितने घूँट जैसा पानी पिलाओगे, वह उतने घूँट वैसा पानी पिएंगे। उनकी खुद की रुचि ही क्या है? वह लेखक की कलम के साथ-साथ नाचते हैं। तापचार हो मेरी कलम में, मैं तो उन्हें डूबने न दूँगा। ऐसे तरीके से लिखूँगा जो नया होगा। मैं पुराना तरीका आने ही नहीं देता। साँस का ज़ोर पंक्तियों में आवे, मेरी यह साधना है। ग् ग् ग् सब लोग तो रपट पड़े की हर गंगा में रहते हैं, कौन टोता है कला की उभरी हुई नसों को!" तो यह तो हुआ स्तंभकार का आरंभिक अनर्गल प्रलाप। अब कुछ काम की बातें कर लें।

इस बार 13 कविताएँ विचारार्थ आई हैं। विचारें -

1. "कभी हो ऐसा" प्रथम दृष्टि में तो शुभेच्छाओं और संभावनाओं की कविता है लेकिन गहन अर्थ की दृष्टि से इसमें वर्तमान के प्रति असंतोष ध्वनित होता दीखता है। वर्तमान जो कि इतना विसंगतिपूर्ण है कि पेड़ से पत्ते तो झरते हैं लेकिन कोई कली नहीं चटखती( कि धूप की चादर झटकने पर भी माँ के आंचल में बांधे जाने के लिए खन्न से कोई सूरज नहीं गिरता( कि बादलों की डायरी में बारिष की तफसील नहीं मिलती( कि पहाड़ के हवा में उड़ने पर भी पिता का सीना हल्का नहीं होता( और कि प्रलय में सब कुछ जलने के बावजूद आँख में बचा रह सकने वाला तारा भी जल कर भस्म हो जाता है। विचलन और समांतरता के शैलीय उपादानों का सटीक प्रयोग इस कविता को प्रभावी बना सका है। (यदि यथार्थ और संभावना के इस द्वंद्व में अंतिम अंश में किसी प्रकार विपथन का भी समावेश हो जाता तो प्रति-चरमोत्कर्ष घटित हो सकता था।)

2. "अरमान, आँख ही को पत्थर थमा गए" में अरमानों द्वारा आँख ही को पत्थर थमाने और जुल्फ के अंधेरों द्वारा सागर को न ढक पाने जैसे प्रयोग रोचक हैं। `वो शाम मन में बैठी, अंगार हो गया तन( आहों के कदम धीमे, पायल न झनक जाए` - चित्र आकर्षक है। दूसरा खंड प्रिय को ईश्वरत्व प्रदान करता है लेकिन तीसरे खंड में अपने गम में हमदम का दम घुटने की बात चमत्कारप्रियता भर की ओर इशारा करती है। प्रथम खंड में `रबर की चादर` भी इसी कोटि का प्रयोग है। ये कथन ऊहात्मक तो हैं,लेकिन भावपूर्ण नहीं। कवि की व्यंग्यप्रियता प्रेमगीत की तन्मयता पर भारी नहीं पड़नी चाहिए।

3. "अहसास" ऐकांतिक प्रेमानुभूति का गीत है। प्रिय, प्रिय की स्मृति, प्रिय का अनुभव और प्रेमपात्र क्रमश: एकाकार होते गए हैं। चाँद, कमल, मोमबत्ती आदि यद्यपि पुराने प्रतीक हैं तथापि प्रणय की अभिव्यक्ति के लिए आज भी इनका प्रयोग ताजगी भरा प्रतीत होता है।

4. "सुख दुख" उद्बोधलनात्मक गीत है। पहले तीन अंश विवरणात्मक हैं। चौथे अंश में `अरुण` और `संध्या` के समावेश से कथन में कुछ कवित्व आ सका है।

5 "मुझको नहीं बुलाना तुम" में प्रणय की शहीदाना अभिव्यक्ति है। अधिकतर बातें बार-बार की कही हुई हैं, इसलिए जरूरी है कि कहने का अंदाज कुछ बदला जाए।

6. "मेरे सीने में क्या है" में कवि की सामाजिक पक्षधरता पर्याप्त मुखर है। साधनहीनता और विपन्नता की अमानुषिक स्थिति को यह गीत खूब उभारता है। सबके सो जाने और `मैं` के न सो पाने की यह कहानी संवेदनशील व्यक्ति के साथ सदा से चली आई है - सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै/दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवै। यद्यपि गीत का काफी बड़ा हिस्सा विवरणात्मक है परंतु विविध स्तरीय समांतरता के कारण वह पाठक को बाँधने में समर्थ है।

7. "प्रतिदान" में अप्राप्य प्रेम की पीर व्यक्त हुई है। धरा और सूरज तथा तपिश और हिमखंड के रूपक अच्छे बन पड़े हैं। अंतिम अंश में मिलनेच्छा प्रकट हुई है। अभिव्यक्ति में अभी काफी तराश की जरूरत है।

8. "पहली मजबूरी" में बाल मजदूरों की करुण-दशा का विवरण है। आरंभिक ढेर सारी पंक्तियाँ यद्यपि छंदोबद्ध निबंध जैसी प्रतीत होती है, परंतु अंतिम अंश कवित्वमय है। इस पर दिनकर की `विपथगा` की कुछ पंक्तियों का प्रभाव भी प्रतीत होता है। सूक्तिपरकता इस कविता की एक और विशेषता है। बालश्रमिकों के मानवाधिकार के प्रति कवि की चिंता पाठक का ध्यान खींचने में समर्थ है।

9. "मुसाफिर सा जीवन" अच्छी नज़्म है। मुसाफिर, सफर और मंजिल के सांगरूपक का अच्छा निर्वाह है। एंटी रोमांटिक मूड काफी मुखर है। पर इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि कथ्य भी पुराना है और शिल्प भी।

10. "अवकाश" असंगतियों का खुलासा करने वाली कविता है। मशीनी शहरी जीवन से उत्पन्न होने वाले अलगावबोध और खीझ की आत्मनिर्वासन में परिणति उभर कर सामने आ सकी है। नास्टेलजिक मूड पूरी रचना पर हावी है। थपकी `मारकर` कैसे किसी को चुप किया जा सकता है - `थपकी मारने` और `थपकी देने` में बड़ा अंतर है। वैसे थपकी मारना आतंक पैदा करने का प्रतीक हो तो अलग बात है! `शोर सुनता हू¡ मैं/इंसानों की, मशीनों की` - `का` होता तो सुनने में अच्छा लगता। अंत जीवनेच्छा की व्यंजना से परिपूर्ण है - उत्तम है।

11. "घर तो सजा लिया" में रदीफ-काफिया का खूब निभाव हुआ है। सहजता से सामाजिक असंगतियों-विसंगतियों को उभारा गया है। कहीं-कहीं फिलोसोफिकल मूड झांकता लगता है।

12. "पहली दफा में" की मुद्रा संबोधनात्मक है। क्षितिज, आकाश और कोहरे के समावेश से तर्कभाषा को कुछ सीमा तक काव्यभाषा बनाया जा सका है।

13. "छत और मैं" एक संवेदनशील व्यक्ति के आत्मसाक्षात्कार की कविता है। काव्य-प्रयोजन पर उठाया गया सवाल विचारणीय है। यथार्थ के कई टुकड़े ध्यान खींचते हैं।

अंतत:, हमारे समय के वरिष्ठतम कवि त्रिलोचन की एक कविता के साथ आपको नमन -

"विकास"

ईख की पत्ती, कास, सरपत
जो भी काम भर को मिला
उसी से झोंपड़ी बना कर रहे।

फिर भीत खड़ी की
और भीत के बचाव के लिए
मिट्टी तैयार की
और इसी मिट्टी से खपड़े रचकर धूप में सुखाए
फिर अवाँ लगाकर अच्छी तरह पकाकर
घर को मजबूत छाजन दी।

मिट्टी ले लेने से खत्ता जो बन गया
उसमें बरसाती जल भर गया
जिसे लोग बावड़ी, तलैया और पोखरी
के नाम से जानते थे -
बावड़ी में मछलियाँ, कछुए,
ढेर सारे जलजीव आ बसे।
मछलियाँ बिकने लगीं।


आज इतना ही। प्रेम बना रहे।

इति विदा पुनर्मिलनाय।

आपका अपना - ऋषभदेव शर्मा 26 अक्टूबर 2007.

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4 कविताप्रेमियों का कहना है :

Sajeev का कहना है कि -

प्रिये ऋषभ देव जी, इस बार आपकी समीक्षा पढ़ कर आनंद आ गया, आप से इसी अंदाज़ की अपेक्षा रहती है, येही मार्गदर्शन है जिसकी जरुरत है हम सब को, प्रस्तुति भी बहुत सुंदर है इस बार, " थपकी मार कर" , अलार्म के शोर से हुए खीज को प्रदर्शित करता है, यहाँ कहीं एक दबी हुई हिंसा का भाव है जो तथाकथित अलगाववाद का ही परिणाम है श्याद, इंसानों का, मशीनों का, का ही होना चाहिए, यह एक बड़ी गलती है जिसकी तरफ़ अविनाश जी ने भी इंगित किया था, समयाभाव में इसे दुरुस्त नही कर पाया, आपने याद दिलाकर बहुत अच्छा किया

SahityaShilpi का कहना है कि -

एक और मार्गदर्शक समीक्षा के लिये आभार!

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

आपकी भूमिका बेहद रोचक है। आपके इस कथन को "कवि की व्यंग्यप्रियता प्रेमगीत की तन्मयता पर भारी नहीं पड़नी चाहिए।" मैंने आदेश की तर्ह लिया है। कोशिश करूंगा और सुधार की..


*** राजीव रंजन प्रसाद

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

काफ़ी दिनों से हिन्द-युग्म से दूर था। आज आपकी समीक्षा से पुनः पढ़ना शुरू किया। पढ़कर संतुष्ट हुआ कि सीखने-सीखाने की प्रक्रिया चालू है। आप समीक्षा की जो भूमिका गढ़ते हैं वो कलमकार को सबसे ज्यादा सीखाती है। नमन है आपको।

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