उस अरण्य के
वीराने के
कोलाहल का दर्द पचाते
रावण के भीतर का रावण
थर-थर थर -थर
काँप रहा है ।
इस वीभत्स , भयावह
का भय
भीत -प्राण का घूँट आज़
अपनी गरदन से उतर रहा है।
हाथों में जो अस्त्र,
बड़ा जो विध्वंसक,
भयकारी है ;
आज़ विषैले , तेज दर्द का
मरहम बनता दीख रहा है ।
आँखों के दर्पण , जिनमें
है पड़ी परत जाने कैसी \
जो सदा विनत ,
बस दीन , क्रंदनों के विलाप
को देख - दिखा बस तुष्ट हुए हैं;
जाने क्यों उस दर्पण के
पीछे जो परछाईं बसती थी,
वह भी है
लो झुकी , प्रार्थना - मुद्रा में
निरीह बनकर !
पत्थर का बुत,
हृदय कोशिकायें जिसकी
कोमल हैं , नाज़ुक
हम -सीं हैं
प्रस्तर के जुड़ाव को पल पल
तोड़ रहीं हैं ।
हाथों की गठरी
उसमें जो स्वर्ण
रक्त से बुझा हुआ है
वह
हाथों से छूट-छाटकर
कहीं राह में फ़िसल गया है,
और पिघलता है थोड़ा
पत्थर,
बनकर वह चूर्ण
भरभराकर गिरता है
कीचड़ में-
मानो वह पत्थर का बुत
प्रार्थना-भाव में झुका हुआ
अपने पैरों से रौंदे
फ़ूलों पर रखकर
निज - मस्तक
फ़िर से कुछ जीवन माँग रहा हो ।
- आलोक शंकर
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
आलोक जी
बहुत ही बढ़िया कविता लिखी है । भाव और भाषा दोनो ही प्रभावशाली है । यह अरण्य ये दुनिया ही है । बहुत खूब ।
इसी के साथ एक रावण हम सबके भीतर भी है जाने कब वह जागृत हो जाए । एक सुन्दर कल्पना एवँ
गम्भीर शैली के लिए बधाई ।
आलोक जी,
सुन्दर प्रयोग है.
उस अरण्य के
वीराने के
कोलाहल का दर्द पचाते
रावण के भीतर का रावण
थर-थर थर -थर
काँप रहा है ।
इस वीभत्स , भयावह
का भय
भीत -प्राण का घूँट आज़
अपनी गरदन से उतर रहा है।
सच में अपने आप से बच पाना मुश्किल है.
आपकी प्रसंशा के शब्द मेरे शब्दकोष में नहीं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अति-उत्तम रचना ,
बहुत दिन बाद आपकी रचना आयी है,
पढकर बहुत आनन्द आया,
आपकी भाषा-शैली,
शब्द-चयन सभी प्रभावित कर गये ।
आभार
आलोक जी
बधाई
हाथों में जो अस्त्र,
बड़ा जो विध्वंसक,
भयकारी है ;
आज़ विषैले , तेज दर्द का
मरहम बनता दीख रहा है ।
उस दर्पण के
पीछे जो परछाईं बसती थी,
अपने पैरों से रौंदे
फ़ूलों पर रखकर
निज - मस्तक
फ़िर से कुछ जीवन माँग रहा हो ।
बड़ी हीं सुंदर रचना है आलोक जी। एक अरण्य में डाकू की स्थिति और डाकू की मन:स्थिति दोनों का आपने सजीव चित्रण किया है।
बधाई स्वीकारें।
आलोकजी,
आपकी कविताएँ उत्कृष्ट होने के बावजूद इन पर टिप्पणियाँ कम ही होती है, जबकि आंकड़े बताते हैं कि इसे पढ़ने वाले बहुत लोग होते हैं...कहीं ऐसा तो नहीं कि उनके साथ भी राजीवजी के तरह "आपकी प्रसंशा के शब्द शब्दकोष में नहीं" वाली समस्या है ;)
आपकी इस रचना में एक खूबसूरत कल्पना के साथ-साथ भाषा एवं गम्भीर शैली भी बेहद प्रभावित करती है... बहुत-बहुत बधाई!!!
आलोक जी,
मैंने एक बार आपकी कविताओं में अज्ञेय की झलक देखी थी, आज फ़िर देख रहा हूँ। एक डाकू के पश्चाताप के पल ऐसे ही होंगे शायद और न भी हों तो अगर इस तरह के हो जायें तो समझिए उन्हें पुनर्जन्म मिल गया।
आपकी कविताओं पर कम कमेंट का मिलना सम्भव है-आपकी कविताओं का अत्यंत अंतर्मुखी होना-हो।
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