पियरिया डाईन है!
हाँ हाँ हाँ
डाईन है! डाईन है! डाईन है!
पति को खा गयी
बेटे को खा गयी
अब भूल्लू को भी खा गयी
हँस हँस के बतियाती थी
हाँ हाँ हाँ
डाईन है! डाईन है! डाईन है!
हे माधव! लाज बचाओ
पँचायत पँचायत पँचायत
हाँ हाँ हाँ
डाईन है! डाईन है! डाईन है!
मारो! मारो! मारो!
भगाओ! भगाओ! भगाओ!
हे माधव! लाज बचाओ
साड़ी खीचो! साड़ी खीचो! साड़ी खीचो!
ब्लाऊज फाड़ो! ब्लाऊज फाड़ो! बलाऊज फाड़ो!
खीं खीं खीं
हो हो हो
ही ही ही
नंगा करो! नंगा करो! नंगा करो!
और और और
खीं खीं खीं
हो हो हो
हे माधव! लाज बचाओ
सिर मूड़ो!
कालिख पोतो!
गाँव घुमाओ!
मारो! मारो! मारो!
हो हो हो
मजा आया! मजा आया! मजा आया!
डाईन!! डाईन!! डाईन!!
डाईन!! डाईन!! डाईन!!
हे माधव!.......
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
मनीष जी आपके शब्दों नें राक्षसों को नंगा कर दिया है। बहुत प्रभावित किया आपकी इस कविता नें और जो तमाचा सभ्यता के मुख पर आपने जडा है .....आपकी कलम और सोच को नमन।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मनीष जी आपका यह नया प्रयोग और एक सच पढ़ के एक चित्र सा आंखो के आगे आ गया ..बस पढ़ के चुप सा हो गया दिल ...राजीव के शब्द मैं भी दोहराती हूँ ...आपकी कलम और सोच को नमन..सच में
मनीष जी
सही चित्रण किया है...
इस तरह के दिल दहला देने वाले दृश्यो से कई बार आमना-सामना हूआ है... इसलिये आपकी रचना ज्यादा ही करीब लगी... अपने आपको महान भारत के जनता कहने वालो को इस तरह के कुकृत्य करते हूए शर्म भी नही आते... क्या कहें...
आपकी रचना अच्छी बन पड़ी है।
मनीष जी,
बहुत कम शब्द हैं आपकी कविता में और जो हैं, वे बार बार दोहराए गए हैं और यही दोहराव कविता की वेदना को कई गुना बढ़ा देता है।
इस नए प्रयोग में आप सफल रहे हैं।
जब अंतिम बार हे माधव... आता है तो पूरी कविता जैसे एक आह बनकर भीतर उतर जाती है।
ऐसा आप ही लिख सकते थे।
मनीष जी
बहुत ही सजीव चित्र खींचा है आपने । पढ़कर दर्द के साथ क्रोध भी जगा अपनी रूढ़यों के प्रति ।
आजकल ऐसे दृश्य यद्यपि कम देखने को मिलते हैं किन्तु समाज की सम्पूर्ण सोच अभी भी नहीं
बदली है ।
मैं व्यक्तिगत रूप से यह मानती हूँ कि हमारी परम्परा की जो विकृतियाँ समाप्त हो चुकी हैं उनको
दिखाने के बदले कुछ सकारात्मक दिखाएँ । हो सकता है ऐसा अभी भी कहीं होता हो- किन्तु
शर्मनाक दृश्य ना दिखाकर कुछ ऐसा दिखाएँ जिसे पढ़कर लगे कि हाँ ऐसा भी तो हो सकता है ।
शुभकामनाओं सहित
मनीष जी
आप की रचना में समाजिक विभत्स का नंगा रूप सामने आता है॥…हो हो हो , खी खी खी दिल भेद जाती हैं, बहुत दिनों बाद किसी रचना ने आखों में आसूँ भरे हैं और मन क्रोध से…आपको बधाई
बेहद सजीव चित्रण है मनीष जी, अन्त तो भयावह है .... सार्थक प्रयोग
डाईन है! डाईन है! डाईन है!
हे माधव! लाज बचाओ!
इन दो पंक्तियों का आपने जिस तरह से प्रयोग किया है वह हृदय में रोष और संवेदना पैदा करने के लिए काफी है। आपने गाँव की एक भीषण समस्या को दर्शाया है , जिसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
खीं खीं खीं
हो हो हो
ही ही ही
नंगा करो! नंगा करो! नंगा करो!
और और और
दिल दहला देने वाले शब्द हैं ये।मनुष्य का नग्न रूप प्रदर्शित करते हैं ये भाव। जाने कब तक इंसानियत का इस तरह दोहन होता रहेगा।जाने कब न्याय मिलेगा !
मनीष जी,
एक जीवंत रचना पढ़वाने के लिए धन्यवाद।
पियरिया डाईन है!
हाँ हाँ हाँ
डाईन है! डाईन है! डाईन है!
पति को खा गयी
बेटे को खा गयी
अब भूल्लू को भी खा गयी
हँस हँस के बतियाती थी
हाँ हाँ हाँ
डाईन है! डाईन है! डाईन है!
ये पंक्तियाँ पढ़ते वक्त दिल पर क्या गुजरती है क्या बताऊँ ! जो स्वयं मेरी भी अनुभूती रही है उसे आपने शब्द दे दिया है। आपकी समर्थ लेखनी को नमन।
मनीष जी!
देरी से टिप्पणी के लिये क्षमाप्रार्थी हूँ. इतनी टिप्पणियों के बाद मेरे पास कुछ और कहने को नहीं बचा है. बधाई स्वीकारें.
सुन्दर भावों से ओतप्रोत रचना है
परन्तु यदि हम इस परिपाटी के मूक दर्शक भर हैं तो हम सब के लिये यह एक लज्जाजनक बात है....किसी को तो आगे आ कर विरोध करना ही होगा... एक अशक्त को डायन करार देने वालों को राह पर लान ही होगा
स्नेही जनो़!
आप सबने अपना अमूल्य
मत रखा।
धन्यवाद
वैसे मै ये प्रयोग करते हुऍ
थोड़ा सकुचाया सा था।
आशा है आप सब यूं ही हौसला बढ़ाते रहेगें
मनीष जी,
प्रयोग के दृष्टिकोण से मैं कविता क स्वागत करता हूँ, लेकिन मुझे लगता है कि यह दृश्य इससे भी अधिक विभत्स और सभ्य समाज पर हँसने वाला होता है जितना कि आपकी कविता से परिलक्षित हो रहा है। मुझे लगता है कि आप इसे दर्दनाक बनाने से चूके हैं। अभी तो मुद्दे हज़ारों हैं। आपने कोशिश की है, इस प्रयोग को स्थाई करके और बेहतर रचनाएँ देने का प्रयास कीजिए। साहित्यकार यह भी ध्यान रखे कि किसी प्रयोग को स्थाई करना, कालजयी बनाना आसान नहीं होता। उस शैली को बार-बार स्वयम् से जीना ज़रूरी है।
बहुत ही बेहतरीन प्रस्तुति, बधाई ।
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