वाइज़ की बातों में रहे, अब तक का जीवन चल गया
जब से परी-चेहरा मिला, हाथों से दिल निकल गया
कल ही की तो ये बात है, उनसे जो नज़रें जा मिलीं
उस दम से फिर न कल पड़ी, आज बीता न कल गया
सच्चाइयों को परख सकें, आँखें कहाँ रहीं वो अब
असली को कठघरे में खींच, शाह बन नकल गया
इन्सानियत का दौर तो, गुज़रे हुये अरसा हुआ
उस दौर से सीखा था जो, वह भूल दौर-ए-कल गया
बच्चों की आँखों की चमक, दीपक की लौ मद्धम हुयी
शोला जो भड़का भूख का, ईमान-ए-इन्साँ जल गया
मैं रस्ते पे सरे-शाम से, बैठा हूँ उसके ही ’अजय’
बस उम्मीद के तारे बचे, वादे का सूरज ढल गया
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
बच्चों की आँखों की चमक, दीपक की लौ मद्धम हुयी
शोला जो भड़का भूख का, ईमान-ए-इन्साँ जल गया
बहुत ही अच्छा लगा यह शेर ..बधाई सुंदर रचना के लिए अजय जी !!
वाइज़ की बातों में रहे, अब तक का जीवन चल गया
जब से परी-चेहरा मिला, हाथों से दिल निकल गया
कल ही की तो ये बात है, उनसे जो नज़रें जा मिलीं
उस दम से फिर न कल पड़ी, आज बीता न कल गया
wah wah kya bat khi aapne ajay ji.
bhut khub.
अजय जी सच बात है आपकी गजल वाकई खूबसूरत शब्द-सयोंजन है...अनुभूति पर भी आपकी रचना पढ़ने को मिली थी...बहुत अच्छा लगा...बहुत-बहुत बधाई...
शानू
अजय आप गजल में सिद्धहस्त होते जा रहें हैं ।
बच्चों की आँखों की चमक, दीपक की लौ मद्धम हुयी
शोला जो भड़का भूख का, ईमान-ए-इन्साँ जल गया
बहुत खूब........ बधाई!!!
अजय जी,
आम तौर पर यह मौका आप देते नहीं किंतु इस बार शिल्प कुछ कमजोर प्रतीत होता है। पंक्तियों की लंबाई में प्रवाह अवरुध हुआ है। जो शेर सर्वाधिक पसंद आया वह है:
बच्चों की आँखों की चमक, दीपक की लौ मद्धम हुयी
शोला जो भड़का भूख का, ईमान-ए-इन्साँ जल गया
*** राजीव रंजन प्रसाद
अजय जी बहुत अच्छा लिखा है, मुझे तो पुरी गज़ल ही बहुत सुन्दर लगी, कोई एक शेर बताना मुश्किल सा लग रहा है।
बच्चों की आँखों की चमक, दीपक की लौ मद्धम हुयी
शोला जो भड़का भूख का, ईमान-ए-इन्साँ जल गया
bhaut khoob achhi line hai
pankaj ramendu manav
बच्चों की आँखों की चमक, दीपक की लौ मद्धम हुयी
शोला जो भड़का भूख का, ईमान-ए-इन्साँ जल गया
Ajay ji aapki ye sher aur 3rd no ka sher
bhaut achha laga aajkal sachhyi aankhon main nahi rahti
shaah nikal gaya bhaut ghari baat kahi hai aapne
अजय जी
आपकी गज़ल ने मुझे कुछ खास प्रभावित नहीं किया । आप किसी एक भाव को लेकर नहीं चले ।
प्रेम के साथ बच्चों की आँखों की चमक कुछ समझ नहीं आई । शुभकामनाओं सहित
अजय जी
अच्छी बनी है कविता
इन्सानियत का दौर तो, गुज़रे हुये अरसा हुआ
उस दौर से सीखा था जो, वह भूल दौर-ए-कल गया
मैं रस्ते पे सरे-शाम से, बैठा हूँ उसके ही ’अजय’
बस उम्मीद के तारे बचे, वादे का सूरज ढल गया
अच्छा बना है
मैं रस्ते पे सरे-शाम से, बैठा हूँ उसके ही ’अजय’
बस उम्मीद के तारे बचे, वादे का सूरज ढल गया
जैसा प्रवाह इस शेर मे हैं बाकियों मे भी होता तो ग़ज़ल बेहद सुंदर बन जाती, मेरी बात को अन्यथा मत लीजियेगा अजय जी पर ग़ज़ल मे शब्द सयोंजन का खासा महत्व होता है, मैं फ़िर वही बात कहूँगा की आप विषय बहुत ही सशक्त लेकर आते हैं बस संयोजन मे कहीँ कोई कसर छुट जाती है आप ग़ालिब को बार बार पढे. आप समझ जायेंगे की मैं क्या कहना चाहता हूँ
अजय जी,
क्षमा कीजीएगा आपकी काव्य-प्रतिभा का मै कायल हुँ लेकिन इतनी घनघोर हताशा देखकर चिन्ता होती है-
सच्चाइयों को परख सकें, आँखें कहाँ रहीं वो अब
असली को कठघरे में खींच, शाह बन नकल गया
हमारी सोच का विषय हमारे जीवन को प्रभावित करता है इस मनोवैग्यानिक तथ्य के आलोक मे मै कह रहा हुँ। और थोड़ा गहरा सोचें आप पायेंगे कि ऐसा हर ज़माने मे होता आया है इसलिए ’अब’ का प्रयोग निराशा के सिवा और कुछ नही दर्शाता।
अजय जी,
भाव अच्छे हैं परन्तु इस बार ईंट पर ईंट नही जमायी आप ने.
यह खास तौर पर पसन्द आये
इन्सानियत का दौर तो, गुज़रे हुये अरसा हुआ
उस दौर से सीखा था जो, वह भूल दौर-ए-कल गया
बच्चों की आँखों की चमक, दीपक की लौ मद्धम हुयी
शोला जो भड़का भूख का, ईमान-ए-इन्साँ जल गया
इस ग़ज़ल में अभ्यास की कमी दीखती है। अभी यह हाथ से निकली नहीं है। दस बार सोचेंगे तो यह भी मीटर में आ जायेगी, जिसमें आपकी लगभग सभी ग़ज़लें होती हैं।
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