हिंदयुग्म साप्ताहिक समीक्षा : 7
(27 अगस्त 2007 से 02 सितम्बर 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)
मित्रो!
'साप्ताहिक समीक्षा' के इस अंक के आरंभ में हम श्रीकृष्ण जन्माष्टमी पर्व (4 सितंबर, 2007) के संदर्भ में श्रीमद्भागवत के तीसरे अध्याय के आरंभिक अंश को 'विवरण प्रोक्ति' के काव्यात्मक सौंदर्य के एक उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर रहे हैं - "भगवान श्रीकृष्ण के प्राकट्य का काल निकट आते ही, समस्त शुभ गुणों से युक्त समय मूर्तिमान होकर भगवान के स्वागत के लिए उपस्थित हुआ। रोहिणी नक्षत्र था। नभस्थ सभी ग्रह और नक्षत्र शांत और सौम्य थे। दिशाएँ निर्मल थीं। धराधाम के सारे नगर, ग्रामादि मंगलमय हो रहे थे। नदियों का जल निर्मल हो गया था। जब भगवान के प्राकट्य का समय आया, स्वर्ग में देवताओं के नगाड़े अपने आप बज उठें। किन्नर और गंधर्व मधुर स्वर में गाने लगे ......।"
.... और अब वही हमारी कविता-चर्चा।
इस सप्ताह चौदह कविताएँ भेजी हैं शैलेश जी ने। आइए, इनमें प्रवेश करें - हम और आप, साथ साथ।
1. 'बेटियाँ' (अनुराधा श्रीवास्तव) में कवयित्री ने अत्यंत भावपूर्ण विषय का चयन किया है और अपने अनुभवों को सुंदर उपमानों की सहायता से अभिव्यक्त किया है। वत्क्तव्य की अपेक्षा ऐसा विषय बिंब-निर्माण द्वारा अधिक रमणीयता प्राप्त कर सकता है। यहाँ आचार्य रामचंद्र शुक्ल के प्रसिद्ध निबंध 'कविता क्या है?' का एक अंश प्रसंगवश रचनाकारों के आत्मविमर्श हेतु प्रस्तुत है - "काव्य के लिए अनेक स्थलों पर हमें भावों के विषयों के मूल और आदिम रूपों तक जाना होगा जो मूर्त और गोचर होंगे। जब तक भावों से सीधा और पुराना लगाव रखने वाले मूर्त और गोचर रूप न मिलेंगे तब तक काव्य का वास्तविक ढाँचा खड़ा न हो सकेगा। भावों के अमूर्त विषयों की तह में भी मूर्त और गोचर रूप छिपे मिलेंगे, जैसे, यशोलिप्सा में कुछ दूर भीतर चलकर उस आनंद के उपभोग की प्रवृत्ति छिपी हुई पाई जायगी जो अपनी तारीफ कान में पड़ने से हुआ करता था। काव्य में अर्थग्रहण मात्र से काम नहीं चलता; बिंबग्रहण अपेक्षित होता है। यह बिंबग्रहण निर्दिष्ट, गोचर और मूर्त विषय का ही हो सकता है।"
2. 'काश! मेरी बहना होती' (राजीव रंजन प्रसाद) रक्षाबंधन-पर्व के अक्सर पर सटीक बन पड़ी है। रचनानुभव की मार्मिकता ध्यान खींचती है। संबंधों से जुड़ी करुणा कविता का अत्यंत उर्वर प्रदेश है। कोमल मन के टुकड़ों में आग लगने तथा छाती के धू-धू जलने के चित्र नैरेटर की मानसिक पीड़ा को मूर्तित कर सके हैं।
3. 'बनजारे' (मोहिंदर कुमार) में इमारतों के लिए उजड़ती झोंपडियों के दर्द को शब्दबद्ध किया गया है। विवरणात्मकता के बावजूद कविता वर्गभेद को द्वंद्व-चित्रण के सहारे उभार सकी है। रोशनी की चकाचौंध और अंधेरों का द्वंद्व इसी प्रकार का है। किसी के बसने के साथ किसी के उजड़ने में भी यह द्वंद्व परिलक्षित किया जा सकता है।
4. 'आवारागर्द है' (पंकज) में गज़लकारों के प्रिय विषय आत्मदर्प और आवारगी को उभारा गया है। इस प्रकार की रचनाओं में कवि स्वयं को समाज की उपेक्षा का शिकार दिखाया करते हैं और यह जताते हैं कि उनकी सारी औघड़ क्रियाएँ समाज की रूढ़ियों के प्रति विद्रोह की प्रतीक हैं। रचनाकार अपनी निष्पापता की घोषणा करता है - है साफ आइने सा आज भी दिल/कतरा तलक जम न सकी गर्द है। (यह चादर सुर-नर-मुनि ओढ़ी, ओढ़ के मैली कीनी चदरिया। दास 'कबीर' जतन करि ओढ़ी, जस की तस धर दीनी चदरिया॥ - कबीरदास)।
5. 'नींद, डर और आँसू' (सीमा कुमार) में आँखों पर नींद का परत-दर-परत चढ़ना चमत्कारी प्रयोग है। बधाई! अंधकार के सागर और अँधियारे की खाई की तुलना तब और काव्यात्मक हो जाती यदि 'अँधियारे' के स्थान पर कोई व्यंजक शब्द (प्रतीक) रखा जा सकता।
6. 'बारह क्षणिकाएँ' (गौरव सोलंकी) वक्रता और व्यंजना से अभिमंडित हैं। शब्दक्रीड़ा भी आकर्षक है। कवि शब्दों की सार्थक पुनरावृत्ति द्वारा कथन को चमत्कारपूर्ण बनाने में सफल है। सभी क्षणिकाएँ सामासिकता के गुण से युक्त हैं - कम शब्दों में गहरी चोट करती हैं। (ज्यों नावक के तीर!) बधाई!
7. 'तुम तो हो उस पार साजन' (रंजना भाटिया) विरहानुभूति की सामान्य अभिव्यक्ति है। प्रेम पर लिखना जितना सरल है, उसे मार्मिकता प्रदान करना उतना ही कठिन। "प्रेम जीवन की वह स्वाभाविक क्रिया है जहाँ मनुष्य की संवदना, भावना और विचार एक ही राग में झंकृत हो उठते हैं!' (रामविलास शर्मा, आस्था और सौंदर्य)। इस एकात्मकता को रचना के स्तर पर भी चरितार्थ करना होगा।
8. 'मिट्टी' (सजीव सारथी) में रूपक का आद्यंत निर्वाह हृदयस्पर्शी है। बधाई!
9. 'आदमी तो मिला नहीं' (अजय यादव) के शेरों में व्यंग्यात्मकता और सूक्तिपरकता ध्यान खींचती है। मुहावरे का प्रयोग भी सार्थक बन पड़ा है।
10. 'त्रिवेणियों में मेरा प्रथम प्रयास, महज क्षणिकाएँ या कुछ ख़ास? (विपुल) में परिहास और विनोद की प्रमुखता है। प्रयास सराहनीय है। लट्टू और गर्भवती वाला कथन कुछ विकृत रुचि दर्शाता है। इससे बचा जा सकता था। मोजे और जूते वाला कथन प्रभावी बन पड़ा है। वैसे जूते का काटना असामान्य रति को व्यक्त करने वाले प्रतीक की तरह भी व्यवहृत होता है।
11. 'बाढ़' (आलोक शंकर) में करुणा और व्यंग्य का एक साथ प्रयोग पाठक की चेतना को झकझोरने में समर्थ है। शब्दचयन, लय निर्वाह और रूपक की आद्यंत पूर्ण संगति ने कविता को प्रभावात्मकता और संप्रेषणीयता प्रदान की है। बधाई!
12. 'बारह त्रिवेणियाँ' (विश्व दीपक तन्हा) विनोद और व्यंग्य को समेटे हुए हैं। शब्दक्रीड़ा भी चमत्कारी है। सांसों के रास्ते मवाद रिसने का चित्र बीभत्स रस का उदाहरण हो सकता है! आसमां का पानी-सा रंग अच्छा निखरा है। बधाई! तीसरी पंक्ति की वक्रता में त्रिवेणी की जान होती है, कई स्थल इसका भी प्रमाण देते हैं। प्राय: सभी कथन लयपूर्ण हैं।
13. 'हर बात पर ताली बजाना बेवकूफी हैं (गिरिराज जोशी) पर ताली बजाई तो बेवकूफ कहे जाने का ख़तरा है! पर नहीं, हँसी में भी दिल दुखाने की बेवकूफी हम नहीं करेंगे। ग़ज़ल अच्छी है, सूक्तिपरक है।
14. 'इन दिनों' (निखिल आनंद गिरि) आकर्षक उक्तियों से सजी ग़ज़ल है। एकाकीपन, आत्मनिर्वासन, संत्रास, आतंक और असंपृक्ति जैसी स्थितियों को एक-एक शेर में ग़ज़ल की पारंपरिक शब्दावली में पिरोया गया है। व्यंग्य भी है - पाँव क्यों उसके जमीं पर हों भला/आदमी अब चांद पर है इन दिनों।
अंतत: इस अंक में त्रिवेणी-संगम के संदर्भ को ध्यान में रखते हुए हम यहाँ गुलज़ार को उद्घृत करने की अनुमति चाहते हैं - "त्रिवेणी ना तो मुसल्लस है, ना हाइकू, ना तीन मिसरों में कही एक नज्म। इन तीनों 'फार्म्ज़' में एक ख्याल और एक इमेज का तसलसुल मिलता है। लेकिन त्रिवेणी का फ़र्क इसके मिज़ाज का फ़र्क है। तीसरा मिसरा पहले दो मिसरों के मफहूम को कभी निखार देता है, कभी इज़ाफ़ा करता है या उन पर 'कमेंट' करता है। त्रिवेणी नाम इसलिए दिया था कि संगम पर तीन नदियाँ मिलती हैं। गंगा, जमना और सरस्वती। गंगा और जमना के धारे सतह पर नज़र आते हैं लेकिन सरस्वती जो तक्षशिला के रास्ते से बहकर आती थी, वह ज़मीनदोज़ हो चुकी है। त्रिवेणी के तीसरे मिसरे का काम सरस्वती दिखाना है जो पहले दो मिसरों में छुपी हुई है।" स्तंभकार आभारी है अपने अज़ीज़ दोस्त गुरुदयाल अग्रवाल जी के प्रति जिन्होंने कई साल पहले गुलज़ार का मजमूआ 'रात पश्मीने की' भेंट दिया था - तब क्या पता था यह आज काम आएगा! वहीं से एक त्रिवेणी -
"बस एक पानी की आवाज़ लपलपाती है
कि घाट छोड़ के माँझी तमाम जा भी चुके
चलो ना चांद की कश्ती में झील पार करें।"
आज इतना ही।
इति विदा पुनर्मिलनाय॥
आपका
ऋषभदेव शर्मा
07.09.2007
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
ऋषभ जी
आपकी समीक्षा बहुत ही सटीक और निष्पक्ष होती है । हिन्दी विषय का गहन अध्ययन झाँकता
है आपकी समीक्षाओं में । इनका मैं हमेशा इन्तज़ार करती हूँ । पाठकों की ओर से आप बधाई
स्वीकारें ।
आज सुबह से ही समीक्षा का इंतजार कर रहा था । अंततः इंतजार पूरा हुआ। कवि को सुधार की दिशा मिले तो वह निखर सकता है इसमें कोई संदेह नहीं … आप से बस दिशादर्शन ही चाहिये ।
सधन्यवाद ,
आलोक
ऋषभ जी आपकी समिक्षाओ को पढने का अनंद अलग ही है, त्रिवेनियाँ युग्म पर अभी शुराती दौर मे हैं जल्द ही कुछ कमाल होगा गौरव से मुझे बहुत उम्मीदें हैं, गुलज़ार साब की बात चली है है तो लगे हाथों उनकी एक त्रिवेणी मैं भी पेश कर दूँ -
उम्र के खेल मे एकतरफा है ये रस्साकशी,
एक सिरा मुझको दिया होता तो कुछ बात बात भी थी,
मुझसे परदा भी है और सामने आता भी नही .
धन्यवाद सहित
श्रद्धेय डा साहब आपकी समीक्षा का बेताबी से इन्तजार रहता है। आपके दिशा-निर्देश का पालन करने की चेष्टा करुंगी ।
धन्यवाद ।
आदरणीय शर्माजी की समीक्षादृष्टि का चमत्कार,४० वर्ष का लेखनानुभव,साँस्कृतिक पक्ष के प्रति सदैव जागरूकता व इन सबसे बढ़कर गहन अध्ययन की प्रवृत्ति तथा कृति के प्रति सदा का सदाशयभाव ही वे मूलतत्व हैं जो साप्ताहिक समीक्षा के इस स्तम्भ को बारम्बार पाठकों द्वारा सराहे जाने व वाह कहने को प्रेरित करते हैं ।
ऋषभ जी,
आपकी समीक्षा को पढकर हीं भान होता है कि हिन्दी-साहित्य से हम जुड़े हैं। हर एक विषय पर आप किसी रचनाकार की पंक्तियाँ या कथन देते है,उसे पढकर कुछ सीखने को मिलता है।साथ-हीं-साथ हर कविता पर आपकी समीक्षा निष्प्क्ष या संपूर्ण होती है। मेरी त्रिवेणियाँ आपको पसंद आईं, इससे मुझे बहुत खुशी हुई। आगे भी कुछ अच्छी रचना दूँगा, यह मैं वादा करता हूँ।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
हर शुक्र्वार को कविगण किन्नर और गंधर्व की तरह कविता के नगाडे बजाते हुवे आ जाते हैं कि लो चांद की कश्ती लेकर डा. शर्मा जी आ गये काव्य-गंगा पार कराने के लिये. उनकी समीक्शा से कवियों को बहुत कुछ सीखने को मिलता है.
भूल हुई....नाम लिखना भूल गया. नौसिखिया जो ठ्हरा.
आदरणीय ऋषभ जी,
साप्ताहिक समीक्षा का बेसब्री से इंतज़ार रहता है।
विषय पर आपकी पकड़ इसे और रोचक बना देता है साथ ही कविताओं को पूरी तरह आत्मसात करने में भी सहायक होता है। धन्यवाद।
हर बार आपकी समीक्षा किसी न किसी भूमिका के साथ शुरू होती है और मैंने पाया कि उनका सप्ताह भर की कई कविताओं से सीधा संबंध होता है। यह भी समीक्षक की ही क्षमता है कि वो डाँटता भी है, फटकारता भी है मगर अंदाज़ इतना प्यारा है कि कवि और पाठक आत्मसात करते चले जाते हैं।
शुक्रिया जी आपके द्वारा की गई समीक्षा बहुत ही अच्छी लगती है..धन्यवाद
ऋषभ जी
आपकी समिक्षाओ से मुझे काफी कुछ सीखने को मिलता है।
ऋषभ जी,
आभार कि आपने रचना को पसंद किया। आप जैसी कसौटी से गहरा मार्गदर्शन हुआ है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
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