समय बदल गया है...
गधा गाड़ी,
गधा खींचता था
आदमी हाँकता था
गधे की पीठ पर
बैंत के निशान...
अब कहाँ?
आधुनिक दौड़ में
गधा ढो नहीं सकता
आदमी को
अब
आदमी खींचता है
आदमी हाँकता है
घास
गधा नहीं,
आदमी खाता है
गाड़ी
गधा नहीं,
आदमी खींचता है
पीठ
गधे की नहीं,
आदमी की है
सच में
समय बदल गया है...
बस
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है...
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31 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविता बहुत ही अच्छी है निश्चित रूप से यह कविता सांमतवादी व्यवस्था पर प्रहार कर रही है। और आज के सर्वहारा वर्ग और बन्धुवा मजदूर वर्ग की ओर इंगित कर रही है।
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है...
वाह! क्या ख़ूब ....
अब
आदमी खींचता है
आदमी हाँकता है
बहुत ही बढ़िया....
अचानक आदमी को गधे के साथ तुलना करके युगीन विवशता को दर्शा दिया
आदमी और जानवर मे कोई फ़र्क नही रहा...
खींचने वाला आदमी हाँकनेवाले आदमी से घास के अलावा क्या उम्मीद कर सकता हे..
सुनीता यादव
अच्छा है। ये सब बदलाव हो कैसा गया?
अब
आदमी खींचता है
आदमी हाँकता है
घास
गधा नहीं,
आदमी खाता है
अति सुन्दर, बेहतरीन, लाज़वाब व्यंग.
बढ़िया... अत्युत्तम। सम्वेदनशील हृदय से निःसृत कविता।
अब
आदमी खींचता है
आदमी हाँकता है
घास
गधा नहीं,
आदमी खाता है
गाड़ी
गधा नहीं,
आदमी खींचता है
बस
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है...
दार्शनिक महोदय के कर-कमलों ने फिर एक अमूल्य रचना जनी है। इसके लिए गिरि जी (दार्शनिक जी) बधाई के पात्र हैं।
ek behtareen kavita jo sochne ko majboor kerti hai ki beshaq hum 21 sadi ki or agrasar hein perantu hamari maansikta nahi badli...hamari dayaluta,krurta mein badalti ja rahi hai..giriraj ji ki likhi kavita ke examples hum her roz TV aur newspaper mein padhtey hein...kam shabdon mein bahut achcha prayaas...badhai...
लगता है आज कल कविराज जी कोई गहरे विचार मंथन करने में लगे हैं :)
तभी इतनी दार्शनिक कविता लिखने लगे हैं :) बात पते की लिखी है आपने कि
सच में
समय बदल गया है...
बस
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है...
..एक अच्छा व्यंग लिखा है आपने बधाई
गिरिराज जी बहुत गहरी बातें कह गये ।ये पंक्तियाँ विशेष रुप से प्रभावित करती हैं-बस
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है...
गिरीराज जी
आपने आज के इन्सान की सही तसवीर खींची है । आज सचमुच यही हाल है । पता नहीं कब इस देश से
सामाजिक विषमता समाप्त होगी । आप जैसे कवि यदि इसी प्रकार चेतना जगाते रहे तो किसी दिन अवश्य
सब बदलेगा । शुभकामनाओं सहित
गिरी भाई आपकी इस शैली मे अजब सी बात है, आप के ये प्रयोग सराहनीय है अब इसी शैली मे कुछ और प्रयोग कीजिये जो चौंका दे
प्रतीक अच्छे चुने हैं आपने पर बैंत कभी बदलेगी भी नही बंधु!
व्यवस्था में चाहे कितने भी बदलाव आ जाएं, एक वर्ग रहेगा जो आदेश देगा और एक वर्ग रहेगा जो आदेश का पालन करेगा!! तंत्र चाहे कोई भी रहे और इसके ज़िम्मेदार हम सब हैं!
bahut achhe
lagta hai admi hi sab ko khinchta hai, bojh uthata hai.
bahut achha prayas
aap present ke kavi ho.
Ashok Maheshwari
उसी कड़ी में आपके दर्शन की एक और अच्छी कविता।
बस
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है...
हाँ, मेरा यह भी मानना है कि कविता को और भी प्रभावशाली बनाया जा सकता था।
kavita....ka vishay....vyangya..aur shailey atyant rochak awem pravahshaali hai......giriji ki is kavita ne..gagar me sagar ka kaam kiya hai......badhai....
बहुत बढ़िया कविता... बधाई।
nice poem Giri.but i am a bit worried abt the grass eating animals. once human beings start eating grass, there wld be none left for animals. :(
ghughuti basuti
अति सुन्दर..
..एक अच्छा व्यंग ....
सच में
समय बदल गया है...
बस
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है...
बधाई
प्रसंशनीय प्रयोग, श्रेष्ठ रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
गिरिराज जी,
अद्भुत लिखा है आपने। काफ़ी असरदार!
बस
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है...
इतनी सुन्दर कविता पढ़वाने के लिए बधाई।
achchhi lagi aapki ye kavita.kam shabdon mein zyada door ki baatein, yahi srijan ki saarthakta bhi hai.
www.prasoon-mullick.blogspot.com
गिरिराज जी,
जब तक हमारी शिक्षा प्रणाली आदमी को स्कूल में दाखिल कर गधा बना कर निकालती रहेगी.. यह चलता रहेगा..पूंजीपति तो हमेशा गरीबों का उत्पीडन करते रहे हैं और रहेंगे...जब तक कोई सैलाव या इन्कलाव नही आता..
सुन्दर रचना के लिये बधाई
Very Nice poem dear.. U have said a lot of things with very less number of words.. U R GR8..
हम सब हर समय बदलाव चाहते हैं,
लेकिन विडम्बना है कि,
बदली जाने वाली चीजें बदल नही पाते,
और न बदली जाने वाली चीजें,
बदलते जाते हैं!!
सूर्य न बदला चाँद न बदल न बदला आसमान.
कितना बदल गया इंसान, कितना बदल गया इंसान..
सच मुच बदलते इंसान और बदलती इंसानियत
का सजीव चित्रण वो भी प्रभाव-पूर्ण शैली में,
दर्शन में व्यंग..
निराल है आपक ढ़ंग
असमय असमान समय.
विवश करता हमें
जोशी जी बधाई के सिवा
और क्या कहूँ तुम्हें
कविराज़, सीधे शब्दों में गहरी बात कहना कोई आपसे सीखे।
पीठ बदलती ही रहेगी , और बेंत का व्यवहार वही रहेगा ।
टिप्पणियों की संख्या ही आपकी नयी शैली की सफलता को प्रदर्शित कर रही है हर बार कुच्छ नया सुनने को मिल रहा है आपसे | एक अभिनव प्रयोग | बहुत ही अच्छी बात कही आपने...
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है...
wah kya baat hai
"बस
बैंत नहीं बदली
निशान नहीं बदले
पीठ बदल गई है"
बहुत अच्छा लिखा आपने, अनुपम
बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
गिरिराज जी,
इतनी बात तो आप एक क्षणिका में भी कह सकते थे।
आपकी इस नयी शैली पर मैंने पिछली बार भी कमेंट किया था कि यदि आप इसे साध लें तो जो उपनाम आपका है वो सार्थक हो जायेगा। मगर इस बार 'नफ़रत' जैसी बात न थी। चलिए अगली का इंतज़ार करता हूँ।
गिरिराज जी आपके think tank से निकला यह विचार बहुत ही सराहनीय है.
सामंतवादी प्रथा पर करारा चोट करने का आपका अंदाज भी निराला है.
शुभकामनाओं समेत
आलोक सिंह "साहिल"
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