फटाफट (25 नई पोस्ट):

Sunday, September 23, 2007

मेरे बिहार में


फिर एक हुजूम-
गिद्ध-चील--कौए
और इंसान
हैं निकले
बोटी की आस में।

खरबूजे,
कद्दू,
जूट,
रेशम
और
खंडहर में टिकाई गई गोटियाँ-
सारे नोच डाले
उसके बदन से,
उसके-
जो जमीं पर रीसता था,
बस एक रोटी की आस में।

उसके बाद-
एक मुर्दानगी
एक अट्टहास-

थोड़ी देर बाद
हुजूम गुम
और
फिर चारों ओर लेती करवटें
वही चिथरों वाली जिंदगी।

इस तरह हीं
बेरोजगार , भूखी , प्यासी
चेहरे से गांधारी
और लिए
हाथ में बिन पँसगे वाली तराजू
वो
यूँ हीं नोची जाती है,
हर चौक-चौराहे पर-
किसी-न-किसी वेश में।

यही सब
हर दिन -
हर पल
मेरे बिहार में-
दशकों से,
या फिर सदियों से या ................ ।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)

21 कविताप्रेमियों का कहना है :

रंजू भाटिया का कहना है कि -

बहुत ही सुंदर रचना लगी यह तुम्हारी ....


इस तरह हीं
बेरोजगार , भूखी , प्यासी
चेहरे से गांधारी
और लिए
हाथ में बिन पँसगे वाली तराजू
वो
यूँ हीं नोची जाती है,
हर चौक-चौराहे पर-
किसी-न-किसी वेश में।


बिहार में ... या अक्सर हर जगह... सोचने वाली बात है वैसे यह ...बधाई

शिवानी का कहना है कि -

aaj ke samay mein bihar ki sthiti ko kam shabdon mein likhne ka behad uchch koti ka prayas hai...kavita mein jeevan ki jatiltaon ko bahut sunderta se prastut kiya hai...badhai...

शोभा का कहना है कि -

तनहा जी
बहुत ही सुन्दर व्यंग्य लिखा है आपने । बिहार क्या आज सारे देश का यही हाल है । चील और कौवे
हर जगह कमजोरों को नोचने में लगे हैं । एक यथार्थ वादी कविता के लिए बधाई ।

Sajeev का कहना है कि -

नही तनहा भाई सदियों से तो नही, बदकिस्मती से जैसे राजनेता बिहार को मिले वो अगर किसी भी प्रदेश को मिलते तो वो भी बिहार ही होता, पर समय हमेशा एक सा नही रहता, आप जैसे लोग इस प्रदेश की तस्वीर बदल सकते हैं .... जहाँ तक कविता की बात है और भी प्रभावी हो सकती थी

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

तनहा जी,


मुझे गर्व है कि मैं उस "युग्म" का हिस्सा हूँ जिसमें आप जैसी मेधा है। असाधारण शब्दों में यथार्थ प्रस्तुत किया है आपनें।

*** राजीव रंजन प्रसाद

गीता पंडित का कहना है कि -

तनहा जी,

यथार्थ वादी कविता ...

सुन्दर व्यंग्य ...

बधाई ।

"राज" का कहना है कि -

दीपक !!!!
बहुत सही रचना है...तुमने सच्चाई को लिखा है...मैने भी बिहार में रहकर यही महसूस किया है...पर तुम्हरी कलम मे तो जादू है मित्र....हर बात को कितनी खुबशुरत भाव के साथ प्रस्तुत किया है....मुझे बहुत अच्छी लगी....
मित्र स्वीकारो बधाई!!!!

****************************

फिर एक हुजूम-
गिद्ध-चील--कौए
और इंसान
हैं निकले
बोटी की आस में।

इस तरह हीं
बेरोजगार , भूखी , प्यासी
चेहरे से गांधारी
और लिए
हाथ में बिन पँसगे वाली तराजू
वो
यूँ हीं नोची जाती है,
हर चौक-चौराहे पर-
किसी-न-किसी वेश में।
*********************

RAVI KANT का कहना है कि -

तन्हा जी,
एक कटु सत्य को आपने शब्दों में बाँधा है। वैसे सिर्फ़ बिहार ही नही किसी न किसी रूप में तो समस्त विश्व में ये जारी है-

इस तरह हीं
बेरोजगार , भूखी , प्यासी
चेहरे से गांधारी
और लिए
हाथ में बिन पँसगे वाली तराजू
वो
यूँ हीं नोची जाती है,
हर चौक-चौराहे पर-
किसी-न-किसी वेश में।

Mohinder56 का कहना है कि -

तन्हा जी,

बिहार तो बेवजह ही बदनाम है... यह आलम तो पूरे देश में है... बेचारगी की त्रासदगी का सुन्दर चित्रण किया है आपने.

Rajesh का कहना है कि -

फिर एक हुजूम-
गिद्ध-चील--कौए
और इंसान
हैं निकले
बोटी की आस में।
"Tanha ji", Kya chitran banaya hai aapne. Aaj kal sare hi kamjoron ko nochne mein lage hai, chahe wah aam insaan ho ya phir police wala ya phir ho wah neta. Aur ek baat, Bihar hi kyon, U.P., Orissa, aur kah lijiye ki aaj kal to sare Hindustan mein yahi drashya dikhai padne lage hai. Bahut hi sahajta se prastuti ki hai aap ne, badhaai.

Dr. Seema Kumar का कहना है कि -

लगता है आपने कुछ बहुत ही बुरी परिस्थियाँ देख कर यह लिखा है । ऐसी बुराइयाँ ढूँढ़ें तो हर जगह मिल जाएगी, सिर्फ बिहार में ही क्यों ? कुछ बहुत अच्छी बातें भी हैं वहाँ ।

भूपेन्द्र राघव । Bhupendra Raghav का कहना है कि -

बहुत बढिया, सुन्दर शिल्प के साथ व्यंगात्मक दृष्टिकोण से यथार्थ को परिलक्षित करती रचना..

बहुत बहुत बधाई

Alok Shankar का कहना है कि -

बिहार की स्थिति एक प्राकृतिक त्रासदी से कम नहीं है जिसको सुधारने के लिये कुछ नहीं होता , बस उसका होना चुपचाप स्वीकार कर लिया जाता है । बिहार की स्थिति को इतनी खूबसूरती से सिर्फ़ आप ही प्रस्तुत कर सकते थे ।

कुणाल किशोर (Kunal Kishore) का कहना है कि -

दीपक जी,
टिप्प्नी करने के लिये यह भी नही कह सकता की बहुत सुन्दर रचना है, पढ कर काफी अच्छा लगा क्योकी कविता जहाँ से शुरू होती है वही से पाठक को ऐसे यथार्थ मे ले जाती है जहाँ समाज का एक बीभत्स रूप नजरो के सामने अट्टाहस करने लगता है और आप सिर्फ दु:ख और अवसाद से भर जाते है| मै बिहार का हूँ इस लिये आपकी पीडा समझ सकता हू कि अपने ही घाव को कुरेद कर लोगो को जख्म दिखाना इतना आसान नही होता पर दर्द सहा भी तो नही जाता| उम्मीद है हम-आप और लोग जुटेन्गे और उन समाज के दरिन्दो को बेनकाब करेन्गे जो गिद्धो से बदतर होते हुये जिवीत माँस का भक्छण कर रहे है और इस राज्य और देश के प्रगती के सबसे बडे अवरोधक है|
इस झकझोरने वाली कविता के लिये आप बधाई के पात्र है|

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

एक अलग तरह की कविता मिली तुमसे विश्वदीपक भाई।

कविता छोटी रह गई। इस विषय पर तो और भी बहुत लिखा जा सकता था। लेकिन जितना लिखा है, वह बहुत अच्छा है।

मैं कभी बिहार नहीं गया, इसलिए यह तो नहीं बता सकता कि सच को कितनी सच्चाई से कहा है तुमने।

वर्तनी की कई अशुद्धियाँ रह गई हैं, भविष्य में ध्यान रखिएगा।
बधाई।

गिरिराज जोशी का कहना है कि -

शब्दशिल्पीजी,

बिहार में बिगड़ते हालात पर आपने बहुत ही मार्मिक रचना लिखी है, सीधे ही दिल को छूति है...

मानव द्वारा मानव के साथ ही किये जा रहे अमानविय कृत्य को आपने हु-ब-हु सामने रख दिया है, यह भयावह, डराता भी है और मन को कचौटता भी है...

हक़िकत को शब्दों में पिरोने के लिये बहुत-बहुत बधाई!!!

Gaurav Shukla का कहना है कि -

दीपक जी,
बिहार तो एक बहाना है,आज तो सभी जगह यही हाल है
हमारा भी दोष कम नहीं है, आखिर व्यवस्था का चुनाव तो हम ही करते हैं

बाकी कविता में चित्र खींच देना बहुत मुश्किल काम है जो आपने बडी सफलता से कर दिखाया है
हर विधा में आपका अधिकार देख कर मन प्रसन्न होता है
बधाई

सस्नेह
गौरव शुक्ल

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

ख़ास मज़ा नहीं आया। बिहार की सचाई इसके अधिक विचित्र और वीभत्स है। इतना तो पूरे देश में होता है, केवल इतने से बिहार को अलग करना बेईमानी होगी।

विश्व दीपक का कहना है कि -

शैलेश जी,
मुझे महसूस हो रहा है कि अगर कोई व्यक्ति अपने प्रदेश की बुराई लिखे तो लोग उससे और भी बुराई लिखवाना चाहते हैं। मैं बिहार में घट रही पिछली कुछ घटनाओं से आहत हो गया था , इसलिए यह कविता लिख डाली। लेकिन "मेरा बिहार" इतना भी वीभत्स और भयावह नहीं है, जैसा लिखे जाने की आप माँग कर रहे हैं। मैं २१ वर्ष का हो चुका हूँ, लेकिन अपनी आँखों से मैने ऎसा कुछ वीभत्स घटते अपने आसपास नहीं देखा।
मेरी कविता से आपको मज़ा नहीं आया, इसके लिए मैं आपसे क्षमा चाहता हूँ, शायद भाव वैसे नहीं बन पाए। लेकिन मुझे माफ करेंगे, मैं अपने बिहार को इससे ज्याद भयावह नहीं बता सकता।

-विश्व दीपक 'तन्हा'

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

दीपक जी,

ऐसी बात नहीं है, मैं खुद बिहार से (अब झारखण्ड है) वास्ता रखता हूँ, और जब कोई बिहार की बुराई करता है तो मुझे बुरा लगता है। मैं नक्सलवादियों से दहशत में जी रहे भूभाग का हिस्सा रहा हूँ, भयावह है वो सच (आसाम का, उड़ीसा का और झारखण्ड-बिहार का)। आप जिस आधार पर बिहार को भारत के अन्य कोनों से अलग कर रहे हैं, वो एक तरह से पूरे देश की हालत है, फ़िर आपने बिहार को ही क्यों चुना? आये दिन अखबारों में हम रोज़ 'चारों ओर करवटें लेती ज़िंदगियों' के बारे में पढ़ते हैं, फ़िर बिहार से यह विरक्ति क्यों?

मुझे लगता है आप मेरी आलोचना से आहत हो गये, मैं आपसे क्षमा माँगता हूँ। कृपया अन्यथा न लें।

दिवाकर मणि का कहना है कि -

बिहार पर लिखी गई यह रचना मार्मिक लगी लेकिन बिहार से अधिक ये घटनाएँ अन्य राज्यों तथा महानगरों में देखने को मिलती हैं. दूसरी बात कि "हमारे जोकर नेता, जिन्हें लूटना-खसोटना छोड़कर कुछ नहीं आता", बिहार की कोई भली तस्वीर दुनिया को दिखलाने नहीं देते.

अधोलिखित पंक्तियाँ ध्यातव्य हैं...
इस तरह हीं
बेरोजगार , भूखी , प्यासी
चेहरे से गांधारी
और लिए
हाथ में बिन पँसगे वाली तराजू
वो
यूँ हीं नोची जाती है,
हर चौक-चौराहे पर-
किसी-न-किसी वेश में।

साधुवाद के पात्र हैं आप..

आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)