तहज़ीब और इन्सानियत जो बेच खाते हैं।
महज़ वो लोग मेरे देश में नेता कहाते हैं।।
मस्ज़िद से क्या मतलब इन्हें मंदिर से क्या लेना
जो चाहो ये कह देंगे, इन्हें बस वोट दे देना
नहीं जिनका कोई ईमाँ, जो बस बातें बनाते हैं।
कहीं ये तोड़ते मस्ज़िद, कहीं झुकते मज़ारों पे
कहीं ये आग बरसाते, हिमालय के चनारों पे
हमारे घर जलाकर खुद ही फिर आँसू बहाते हैं।
कहीं पर धर्म का मुद्दा, कहीं जाति के झगड़े हैं
कहीं भाषा अलग होने से सारे काम बिगड़े हैं
जलाते बस्तियाँ बलवों में और मातम मनाते हैं।
दोष हम सबका ही है जो इनको सर चढ़ाया है
अपने स्वार्थ की खातिर इन्हें नेता बनाया है
अपनी ही गलती की सजा हम आज पाते हैं।
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
आपने नेता नामक जीव का सही वर्णन किया है। इस सटीक बयानी के लिए बधाई।
बेहतरीन तेवरों वाली कविता। सश्क्त और पैनी प्रस्तुति। अजय जी आपकी रचना और सोच की इस धार से परिचित हो कर प्रसन्नता हुई।
दोष हम सबका ही है जो इनको सर चढ़ाया है
अपने स्वार्थ की खातिर इन्हें नेता बनाया है
अपनी ही गलती की सजा हम आज पाते हैं।
इन विचारों की आपके कलम से और भी अपेक्षा है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत सुंदर अजय जी,
नेता नामक जीव का सही वर्णन किया है आपने।
तहज़ीब और इन्सानियत जो बेच खाते हैं।
महज़ वो लोग मेरे देश में नेता कहाते हैं।।
सही बात है यह अजय जी... अच्छी लगी आपकी यह रचना ..
बधाई
दोष हम सबका ही है जो इनको सर चढ़ाया है
अपने स्वार्थ की खातिर इन्हें नेता बनाया है
अपनी ही गलती की सजा हम आज पाते हैं।
अजय जी,
इस बार आपकी शैली बदली-बदली-सी है, लेकिन रोचक और खूबसूरत है। देश की राजनीति पर आपका कटाक्ष पसंद आया। बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
बहुत अच्छे अजय, सही बात अच्छे pravah के sath
अजय जी
बहुत ही अच्छी विचारात्मक गज़ल लिखी है आपने । वास्तव में सच यही है । धर्म और संस्कृति की बात करना
जितना आसान है उतना ही मुश्किल सच्चा धार्मिक बनना है । एक सकारात्मक सोच देने के लिए बधाई ।
अजय जीं, इस बार "सिम्पल' लिखने के लिए बधाई....
बस, शुरुआत में कविता की लय थोड़ी दुरुस्त नहीं है....(मैं समझ सकता हूँ क्योंकि जानता हूँ आप किस यन्त्र से कविता लिखते हैं और किस समय भी...इस बार पक्का दोबारा पढ़ नही पाए होंगे...)
बाकी, कविता अच्छी है...पुराना विषय है लेकिन आपने अपनी छाप छोड़ दी है....
निखिल
अजय जी,
सही कहा आपने-
मस्ज़िद से क्या मतलब इन्हें मंदिर से क्या लेना
जो चाहो ये कह देंगे, इन्हें बस वोट दे देना
नहीं जिनका कोई ईमाँ, जो बस बातें बनाते हैं।
अंत में कारणों का विवेचन कविता को पूर्णता प्रदान करता है-
दोष हम सबका ही है जो इनको सर चढ़ाया है
अपने स्वार्थ की खातिर इन्हें नेता बनाया है
अपनी ही गलती की सजा हम आज पाते हैं।
मस्ज़िद से क्या मतलब इन्हें मंदिर से क्या लेना
जो चाहो ये कह देंगे, इन्हें बस वोट दे देना
आपकी यह बात आज के सन्दर्भ में कितनी सटीक है अजय जी, आपका आक्रोश हम सब का आक्रोश है इसे शब्द देने के लिए बधाई
अजय जी,
बहुत सुंदर ,
सश्क्त कविता।
मस्ज़िद से क्या मतलब इन्हें मंदिर से क्या लेना
जो चाहो ये कह देंगे, इन्हें बस वोट दे देना
सही बात है...
बधाई।
मान्यवर !!
आपकी लेखनी ने "परजीवी" नेताओं को सच्ची श्रद्धांजलि दी है.
अजय जी देर से टिप्पणी के लिये क्षमा चाहती हूँ। दिनोंदिन आपकी भाषा परिष्कृत हो रही है । नेताऒं का खाका सही खिंचा है आपने।
मूल कारण समझना और समाधान प्रस्तुत करना कविताओं में कम दीखता है। इस बार संतुष्टि हुई-
दोष हम सबका ही है जो इनको सर चढ़ाया है
अपने स्वार्थ की खातिर इन्हें नेता बनाया है
अपनी ही गलती की सजा हम आज पाते हैं।
नेताओं की जात को खूब पहचाना आपने..ये सब हमारे वोट रूपी चारे पर पल रहे भयानक जीव हैं
सुन्दर रचना के लिये बधाई
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