(१)
पूरब और पश्चिम - दो जुड़वाँ भाई,
सूरज की गेंद को एक दूसरे के पाले में,
फेंकने का खेल खेलते थे।
पूरब- कुछ थका सा, बड़े भाई जैसा,
आत्मा के गहरे अर्थों में उतरता था,
जीवन का सत्य समझता था,
अध्यात्मिक आँखों से संसार को परखता था,
परम अनंद के सूत्र उसने ढुंढ निकले,
वह जीने के संस्कार बाँटता था
उसके पास ज्ञान का ताना था ।
पश्चिम - कुछ बिगडा सा, छोटे भाई जैसा,
तर्कों में उलझा रहता था,
हर सिद्धांत को कसौटी पर रखता था,
उसने समझाया दुनिया कैसे बनी, क्यों बनी,
उसने जीवन को रफ़्तार दी,
भौतिकता की सारी परतें,
उसने उधेड़ कर सामने रख दी,
उसके पास विज्ञान का बाना था।
पूरब और पश्चिम- दो जुड़वाँ भाई,
एक दूजे से कितने अलग - फ़िर भी एक दूजे के पूरक,
सूरज की गेंद को
एक दूसरे के पाले में फेंकते रहे, खेलते रहे।
सदियाँ गुजरी, केन्द्र बदलता गया,
पूरब - अपनी ही वर्जनाओं में जकड गया,
अपने ही संस्कारों से उब गया,
उसने आत्मा से मुह मोड़ लिया,
वह जीवन के सत्यों को भूल गया,
उसने ख़ुद को पिछडा हुआ पाया,
सत्य को जमीं से उखडा हुआ पाया,
वह अपनी ही कुंठा में जलने लगा,
अपने ही दमन में सुलगने लगा,
पश्चिम - अपनी संभावनाओं पर अकड़ गया,
अपनी कामियाबी पर फूल गया,
उसने मौत को चुनौती दे डाली,
वह वासनाओं में उलझ गया,
वह मुगालते में था कि दुनिया जीत ली,
वह ख़ुद को जीतना भूल गया,
वह अपने ही चक्रव्यूह में फंसने लगा,
पागलों की तरह कुदरत को ललकारने लगा।
पूरब ने भ्रमित होकर,
अपने ज्ञान को फूंक दिया,
और उसकी राख सूरज के मुह पर मल दी,
आधा संसार धुंधला हो गया,
पश्चिम यह देख कर ठा-ठा कर हंसा,
अपने गरुर में चूर होकर उसने,
अपने विज्ञान का परमाणु,
सूरज के सर पर फोड़ दिया,
एक भयानक रोशनी हुई,
और अगले ही पल,
सारा संसार अंधा हो गया,
कल शाम , साहिल पर खड़े होकर,
मैंने देखा था - खून से लथपथ,
डरा सहमा सूरज,
दरिया में उतर गया था,
देर तक लहू बरसता रहा था
आसमान से ।
(२)
मेरी आंख खुलती है,
मैं खिडकी से बाहर झांकता हूँ,
दूब के हरे कालीनों पर,
सतरंगी किरणों का जादू बरकरार है,
मुझे अपने देखे सपने पर ताज्जुब होता है,
क्योंकि मैं जानता हूँ कि
सूरज कभी उगता या डूबता नही,
पूरब और पश्चिम दिशाओं के बीच,
कहीँ स्थिर खड़ा रहता है बस,
तभी मुझे याद आता है,
मैंने कही पढा है
कहीँ कोई ग्रह है , जिसका रंग सुर्ख है,
जहाँ दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध है और
वहाँ का आकाश काले धुवें से भरा पड़ा है,
हाँ ...... मैंने कहीँ पढ़ा है....
------- सजीव सारथी -------
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20 कविताप्रेमियों का कहना है :
सजीव जी,
कविता जितनी सशक्त है सोच के उतने ही द्वार खोलती है। आपने बिम्बों ही बिम्बों में असाधारण कथ्य प्रस्तुत किये हैं। विरोधाभासों और उनकी परिणतियों का जो चित्र आपने दिखाया है व्ह अविचलित करता है।
सूरज की गेंद को एक दूसरे के पाले में,
फेंकने का खेल खेलते थे।
मैंने देखा था - खून से लथपथ,
डरा सहमा सूरज,
दरिया में उतर गया था,
देर तक लहू बरसता रहा था
आसमान से ।
और आपके सचेत करने के तरीके नें झकझोर दिया है:
तभी मुझे याद आता है,
मैंने कही पढा है
कहीँ कोई ग्रह है , जिसका रंग सुर्ख है,
जहाँ दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध है और
वहाँ का आकाश काले धुवें से भरा पड़ा है,
हाँ ...... मैंने कहीँ पढ़ा है....
श्रेष्ठ रचना। बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आपने अपनी रचना मे बिंबों के द्वारा जो जीवंत चित्रण किया है वह अदभुत है। इस मन को झकझोर देने वाली रचना के लिए आपको बहुत-बहुत बधाई।
सजीव जी बहुत ही सुंदर तरीके से आपने पूरब और पश्चिम को अपने लफ्जों में ढाला है
भाव और उसकी अभिव्यक्ति बहुत ही रोचक लगी ..बहुत सुंदर बधाई
कुछ अकाट्य सत्यो के साथ कल्पनाशीलता का जो जादू आपने रचा है,सचमुच काबिलेतारीफ है।
एक सच को यूँ बेबाकी से कह देना- कलम की ही शक्ति है और आपने भली भाँति उस धर्म को निभाया।
सादर,
श्रवण
अद्भुत!
अतिसुंदर , असाधारण!
सजीव जी, इस बार तो आपने कमाल कर दिया है। हर बिंब सजीव है यहाँ।एक-एक पंक्ति गूढ है। सच्चाई को आपने बखूबी दर्शाया है।
किसी एक पंक्ति को उद्धृत करना बाकी के साथ बेईमानी होगी, मैं ऎसा पाप नहीं कर सकता। बस इतना कहूँगा कि शुरू से अंत तक आपने कविता को थामे रखा है। और अंत तो लाजवाब है...
बधाई स्वीकारें-
विश्व दीपक 'तन्हा'
सजीव जी बहुत दिनो। बाद इतनी सशक्त रचना पढ़ने को मिली है। कोई आश्चर्य नहीं कि वो आपकी कलम से आयी है। प्रतिकों का बहुत सुन्दर उपयोग किया है और अन्त तो झक्झोरने वाला है। बहुत बहुत बधाई, ऐसी ही सुन्दर रचनाएं देते रहिएगा
सजीव जी!
क्षमा चाहूँगा कि अपनी निज़ी व्यस्तता के चलते आपकी इतनी सुंदर रचना पर कुछ विस्तृत टिप्पणी नहीं कर पा रहा हूँ. असल में तो पिछले कुछ समय से कोई टिप्पणी ही नहीं कर पा रहा. परंतु आज आपकी रचना ने मज़बूर कर दिया, आपको बधाई देने के लिये. अत: बधाई स्वीकारें!
सजीव जी
बहुत ही सुन्दर रचना है । पूरब और पश्चिम को जोड़ने का सुन्दर प्रयास । कभी-कभी यही लगता है कि
कुछ विरोध अकारण हो जाते हैं । विश्व में आधी से अधिक समस्याएँ तो मनुष्य की अग्यानता के ही
कारण हैं । एक सही सोच और सही दिशा देने के लिए बधाई ।
मैंने देखा था - खून से लथपथ,
डरा सहमा सूरज,
दरिया में उतर गया था,
देर तक लहू बरसता रहा था
आसमान से ।
वाह...क्या बात है.......मुझे सूरज को प्रतीक बनाकर लिखना हमेशा लुभाता है...आपने भी निराश नहीं किया........
बार-बार कहने का मन होता है कि बेहद उम्दा और यथार्थवादी रचना है.......
निखिल
बहुत सुंदर प्रतीक चिन्हों का प्रयोग किया है तुमने। तुम्हारे चिंतन और कल्पनाशक्ति कि गहराई का अच्छा उदहारण है ये कविता!
सजीव जी यहाँ इतने लोग पहले से आपकी तारीफ़ कर चुके है हम क्या लिखें आप सचमुच तारिफ़ेकाबिल हैं...भावो का समन्दर है आपके अंदर...शब्द है जैसे की कटारी हो...अद्भुत रचना...कुछ भी कहना कम है...
सुनीता(शानू)
सजीव जी,
बहुत-बहुत सुन्दर लिखा है। आपका सपना!!!उफ़!इतना सच्चा सपना! अद्भुत!
पूरब ने भ्रमित होकर,
अपने ज्ञान को फूंक दिया,
और उसकी राख सूरज के मुह पर मल दी,
आधा संसार धुंधला हो गया,
पश्चिम यह देख कर ठा-ठा कर हंसा,
अपने गरुर में चूर होकर उसने,
अपने विज्ञान का परमाणु,
सूरज के सर पर फोड़ दिया,
एक भयानक रोशनी हुई,
और अगले ही पल,
सारा संसार अंधा हो गया,
कल शाम , साहिल पर खड़े होकर,
मैंने देखा था - खून से लथपथ,
डरा सहमा सूरज,
दरिया में उतर गया था,
देर तक लहू बरसता रहा था
आसमान से ।
मैंने कही पढा है
कहीँ कोई ग्रह है , जिसका रंग सुर्ख है,
जहाँ दुर्गन्ध ही दुर्गन्ध है और
वहाँ का आकाश काले धुवें से भरा पड़ा है,
हाँ ...... मैंने कहीँ पढ़ा है....
पूरब और पश्चिम के अधूरेपन को सुन्दरता से प्रस्तुत किया है आपने। बधाई।
अद्भुत!
झकझोर देने वाली सशक्त रचना...
असाधारण बिम्बों के जीवंत चित्रण...
सुंदर भाव-अभिव्यक्ति ...
सजीव जी !
बधाई स्वीकारें
प्रिय सजीव
हर कोई जानता है कि पूर्व एवं पश्चिम दोनों ही आज समस्याओं से घिरे है. कई लोगों ने इसका विश्लेषण करने की कोशिश भी की है, क्योंकि विश्लेषण के बाद ही मानव परिवर्तन की दिशा में अग्रसर हो सकता है.
गद्य में इस तरह का विश्लेषण बहुत देखा है, लेकिन पद्य में अधिकतर इस विषय पर विमर्श ही देखा है. लेकिन आज पहली बार पद्य में एक विश्लेषण देखने को मिला जो अनावश्यक भावनाओं में न फंस कर विषय की गहराई में जाकर विषय को एकदम सटीक तरीके से प्रस्तुत करता है.
मनुष्य मन को मथने में काव्य एक बहुत बडी भूमिका अदा कर सकता है. प्रभु से मेरी प्रार्थना है कि वे इस काव्य का उपयोग इस तरह से करें -- शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!
sajeev ji ek aur ant ....yakeenan yeh ek katu satya hai....is kavita ke madhyam se kahi baat seedhe dil ki gehraai mein utarti hai...aapne bahut hi khoobsurati se aaj ki badalti paristhitiyon koabhivyakt kiya hai...jitni tareef karein shayad utni kam hai...badhai sweekar karein....
सजीव जी!
सूरज के माध्यम से आपकी कल्पनाशीलता ने पूर्व और पश्चिम दोनों को चैतन्यता दी।क़लम का अद्भुत रूप देखने के लिये मिला।
आपको पढना सदैव ही सुख अनुभव करना होता है
बधाई।
प्रवीण पंडित
पूरब और पश्चिम- दो जुड़वाँ भाई,
एक दूजे से कितने अलग - फ़िर भी एक दूजे के पूरक,
पूरब और पश्चिम को लेकर बहुत ही गहन चिंतन और उसे कविता में बहुत अच्छी तरह से पिरोया गया । बहुत प्रभावित करती है । आप दोनों की ही अच्छाई और बुराई सामने लेकर आए हैं यह बात विशेषकर अच्छी लगी । वरना आम तौर पर एक को दूसरे से अच्छा या ऊँचा बताने की कोशिश रहती है । सिक्के के दोनों पहलुओं को आपने बखूबी प्रस्तुत किया है और अपनी सोच को सार्थक रूप से व्यक्त किया है । बधाई ।
- सीमा कुमार
सन् २००० की बात है झूँसी (इलाहाबाद) के एक संत ने 'भारत' और 'अमेरिका' शब्दों के एक ही अर्थ निकाले थे, लेकिन वो बहुत कम तार्किक थे। मगर आज आपकी व्याख्या पढ़कर दिल को तसल्ली मिली कि सही अर्थों में आपने विश्व-बंधुत्व को परिभाषित किया है।
सजीव जी, गजब का चिंतन प्रस्तुत किया है आपने. midblowing..!
i want to hats off u sir...
बधाई हो
आलोक सिंह "साहिल"
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