28 सितंबर 2007 (शुक्रवार)।
हिंद-युग्म साप्ताहिक समीक्षा : 10
(17 सितम्बर 2007 से 23 सितम्बर 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)
मित्रो!
इस बार साप्ताहिक समीक्षा का आरंभ हम नवीं शती के प्रसिद्ध काव्यशास्त्री यायावर राजशेखर के इस कथन से कर रहे हैं कि कवि और आलोचक में भेद नहीं है क्योंकि दोनों ही कवि हैं। "उन्होंने आलोचकों को चार कोटियों में बाँटा है :
1. अरोचकी (जिन्हें किसी की अच्छी-से-अच्छी रचना भी नहीं जंचती)।
2. सतृष्णाभ्यवहारी (जो भली-बुरी सभी प्रकार की रचनाओं पर "वाह-वाह' कर उठते हैं)।
3. मत्सरी (जो ईर्ष्यावश किसी रचना को पसंद नहीं करते और कुछ-न-कुछ दोष-दर्शन कराने की चेष्टा करते रहते हैं)।
4. तत्वाभिनिवेशी (जो निष्पक्ष और सच्चे समालोचक होते हैं। भावयित्री प्रतिभा केवल उनमें ही मिलती है, लेकिन ऐसे मात्सर्यरहित गुणज्ञ आलोचक विरले ही होते हैं)।
राजशेखर का यह विवेचन आज भी सही है।'(डॉ. शिवदान सिंह चौहान, आलोचना के सिद्धांत, 1960, पृ. 82)।....... बाकी आप खुद समझदार हैं!
तो यह तो हुई कवि और आलोचक की चर्चा। अब कुछ चर्चा कविताओं की कर लें। इस सप्ताह 14 कविताएँ विचारार्थ आई हैं। अगर कहूँ कि सब अच्छी हैं तो आप मुझे भी सतृष्णाभ्यवहारी कहकर तालियाँ पीटेंगे। खोद-खोद कर दोष दिखाने जाऊँ तो खटिया तो सबकी खड़ी की जा सकती है पर क्या करूँ मैं स्वभाव से मत्सरी नहीं हूँ - प्रेरित किया जाने पर भी दोष दर्शन में आनंदित नहीं हो पाता। इसीलिए प्रयास यह करता हूँ कि जो भी रचना सामने आए उसे सौंदर्य के एक विधान या कलाकृति की तरह देखूँ और दिखाऊँ। दृष्टि की अपनी सीमा है। वह भी स्वीकार है। अस्तु ......
1. बुद्धू-बक्से (राजीव रंजन प्रसाद) में मनोरोगी बन चुके मीडिया पर व्यंग्य से आक्रोश तक की यात्रा निहित है। मीडिया की निरंकुशता उभरकर आई है। तीसरे अंश में चालीसा शैली कवि की लोक संपृक्ति की सूचक है। व्यंग्य को उभारने के लिए असंगति और विचित्रता का प्रयोग भी अच्छा बन पड़ा है। पूरी कविता मूल्य संकट की ओर इंगित करती है।
2. ख्वाब (मोहिंदर कुमार) में विषय और शब्द चयन अच्छा है लेकिन अभी ग़ज़ल के प्रवाह की सिद्धि बाकी है। यह बात समझ में नहीं आई कि कवि ने अंतिम अंश में रदीफ (होनी चाहिए) में शामिल "होनी' को गायब करने की अनहोनी क्यों कर डाली।
3. बैठे-बैठे (सीमा कुमार) में संबंधों के प्रति चिंता व्यक्त हुई है। घर से मिलने वाली आश्वस्ति की चाह आधुनिक मनुष्य को शायद पुराने आदमी से कुछ ज्यादा ही है। द्रष्टांतों का सटीक इस्तेमाल इन लघु कविताओं को प्रभावशाली बनाता है।
4. भारी भूल हुई (पंकज) का मूल स्वर उपालंभ का है। काफिया- रदीफ का अच्छा निर्वाह हुआ है। चौथा अंश वचनवक्रता का अच्छा नमूना कहा जा सकता है।
5. ग्यारह क्षणिकाएँ (गौरव सोलंकी) छोटी-छोटी बातों के बहाने बड़े अनुभवों को सूक्ति की तरह शब्द बद्ध करने वाली हैं। खुदा, शर्म और खबर का कटाक्ष आकर्षक है। तेरी हँसी में मरजाणे सपने का सहप्रयोग ताज़गी से भरा है। दर्द साधारण है। प्रेम में किसी सूफी बोध कथा का सार प्रस्तुत किया गया है जिसे ओशो ने अपने प्रवचनों में बार-बार उद्धृत किया है।
6. एक नई शुरुआत (रंजू) आशा का संदेश देने वाली कविता है। नीड़ का निर्माण फिर-फिर! पुराने ज़ख्मों की छत अच्छा रूपक है।
7. नौ महीने (सजीव सारथी) साधारण स्थितियों से बनी अच्छी कविता है। वात्सल्य भी है और स्त्री विमर्श भी।
8. इस साल गाँव (मनीष वंदेमातरम) में लोक जीवन के कष्ट उभर कर सामने आए हैं। वीभत्स, विद्रूप और विसंगत की पृष्ठभूमि में करुणा उपजाने में कवि समर्थ है। असली जमीन गल गई बाढ़ में और सारी फसल घुल गई पानी में - कवि के अनुभव की प्रामाणिकता को प्रकट करने वाले बिंब हैं।
9. न खुदा (अजय यादव) में काफिया-रदीफ और बहर का खूब निर्वाह है। मानवतावादी संदेश इसकी विशेषता है। कवि ने मकता आखिरी शेर से पहले शायद कुछ सोचकर ही रखा होगा!
10. टोकरी (तुषार जोशी) में वक्तव्य और व्याख्यान कविता पर हावी होने की कोशिश करते प्रतीत होते हैं। भग्न हृदय की पीड़ा की चिकित्सा अनकंडीशनल लव में खोजना प्रेम के उदात्तीकरण का एक सोपान है। सच ही आत्मदान में प्रेम की परिपूर्णता है।
11. एक डाकू की मौत (आलोक शंकर) भी दार्शनिक किस्म की कविता है जिसमें हृदय परिवर्तन और प्रार्थनाभाव की महिमा का प्रतिपादन किया गया है। चित्रात्मकता के कारण कवित्व की रक्षा हो सकी है।
12. क्षणिकाएँ (निखिल आनंद गिरि) में चौथे अंश में महीने के आखिरी दिन और जिंदगी का आखिरी वक्त के समानांतरित प्रयोग से चमक आ गई है। सातवें अंश में संभ्रांत कुत्ते के सहप्रयोग ने व्यंग्य को पैना कर दिया है। नवम अंश में उत्तर आधुनिक साहित्य के स्त्री, अल्पसंख्यक और पर्यावरण जैसे कई विमर्शों को सटीक व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति मिली है - खचाखच भरी बस/बुर्के के भीतर पसीने से तर लड़की/मैं सोचता हूँ/ग्लोबल वार्मिंग पर बहस ज़रूरी है। शेष अंश घिसे-पिटे विषयों पर हैं।
13. गधा (?)गाड़ी (गिरिराज जोशी) में शोषण और दमन का यथार्थ उभरकर आया है। कवि ने तथाकथित विकास और परिवर्तन की पोल खोल दी है - बेंत नहीं बदली/निशान नहीं बदले/पीठ बदल गई है।
14. मेरे बिहार में (विश्वदीपक तन्हा) का प्रथम अंश पाठक की चेतना पर सीधे चोट करता है। आगे के अंश उसकी पीड़ा को फैलाते हैं। गांधारी वाले अंश में न्याय की दुर्गत की वीभत्सता और भयानकता उभर कर सामने आई है। अंतिम अंश बिहार के आम आदमी की असहाय और निरीह मनोदशा को बयान करता है। (वैसे कमोबेश देश भर का यही हाल है)!
अंत में, इस बार हम सर्वेश्वर दयाल सक्सेना का स्मरण करना चाहते हैं जिनकी जन्म तिथि और पुण्य तिथि दोनों ही सितंबर में पड़ती हैं। इस समय सही-सही शब्दावली तो याद नहीं आ रही है लेकिन कई दिन से उनकी एक कविता का यह भाव स्तंभकार की चेतना को हाण्ट कर रहा है कि मुझे एक चाकू लाकर दो ताकि मैं अपनी रगों को काटकर यह दिखा सकूँ कि मेरी रग-रग में कविता है!
अब और क्या कहें? सर्वेश्वर जी ने कुछ कहने को छोड़ा ही कहाँ?
आज इतना ही।
इति विदा पुनर्मिलनाय॥
आपका - ऋषभदेव शर्मा
28.9.2007
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10 कविताप्रेमियों का कहना है :
आदरणीय ऋषभदेव जी,
इस बार फ़िर से आपकी भूमिका बनाने की मनमोहक शैली देखने को मिली(पिछली बार सीधे कविता पर चले गये थे), पढ़कर आनंद आ गया। सम्यक समीक्षा के लिए साधुवाद।
आदरणीय ऋषभदेव जी,
इस स्तंभ की प्रतीक्षा रहती है।आभार की आपने रचना "बुद्धुबक्से की पत्रकारिता.." को सराहा। मैं अपनी पिछली कविता पर आपके सुझाये संशोधन से उसे बेहतर बना सका...
*** राजीव रंजन प्रसाद
दसवी बार आभार, सार्थक विवेचनाओ के लिए, मेरी कवितायेँ छोटी होती है, श्याद इसीलिये आपकी समीक्षाएं भी छोटी छोटी होती है, हा हा हा.... पर सच कहूँ तो डर लगा रहता है की कहीँ कान न मरोड़े जा रहे हो. आपकी कौसौटी पर खरे उतरने की चाह हमेश कुछ अच्छा रचने को प्रेरित करती है
समीक्षा का यह स्तंभ देख कर बहुत अच्छा लगा। इसके द्वारा न सिर्फ कविताओं को एक नये नजरिये से देखने में मदद मिलेगी, वरन कवियों को अपनी गहराई को भी समझने का सुअवसर प्रदान होगा।
ऋषभदेव जी,
नमस्ते ,
आपकी समीक्षा के साथ जो और बातें जानने को मिलती वह बहुत रोचक होती हैं
रचना पोस्ट करते ही आपकी समीक्षा का इंतज़ार शुरू हो जाता है
शुक्रिया आपका बहुत बहुत !!
आदरणीय गुरुजी,
प्रणाम,
मै बहुत दिनो से एक बात कहने को सोच रहा था, पर हिम्मत नही जुट पा रही थी। समीक्षा की शुरूआत मे राजशेखर का विवेचन शायद आवश्यक पृष्ठभूमि बना पाया।
इसमे कोई शक नही कि हर रचना को पहली नजर मे आप तत्वाभिनिवेशी दृष्टिकोण से ही देखते होंगे। शायद मन मे कुछ निर्णय भी आप कर लेते होंगे!
क्षमा चाह्ता हूँ, पर समीक्षा लिखते वक्त आपका थोड़े ज्यादा politically correct statements के साथ बह जाना हम सीखनेवालो के लिए रसगुल्ले वाली मिठास का ही काम करता है(मधुमेह भी तो एक रोग ही है गुरुदेव)।
इसमे कोई शक नही कि इस पटल पर लिखने वाले ज्यादातर अभी सीखने के दौर मे हैं और प्रोत्साहन बहुत जरूरी है। पर गुरु जी,आपकी छड़ी भी उतनी ही जरूरी है।(आपको भी narcissists का गुरु बनना अच्छा नही लगेगा!)
मै अल्पज्ञानी हूँ,मूढ़ भी..... बालक समझकर गलती माफ कर देंगे।
क्षमायाची,
श्रवण
हम तो स्तृष्णाभ्यवहारी इसलिए भी हैं कि हम तत्वाभिनिवेशी नहीं बन सकते। इसलिए हम तो यही कहेंगे कि प्रो. शर्मा जी जो कहेंगे वो सच ही कहेंगे क्यों कि वे तत्वाभिनिवेशी है\ उनकी मीठी टिप्पणी के पीछे भी कुछ सीख होती है। बस, समझने वाले को इशारा है। कभी हनुमानजी ने सीना चीरा था ----अब ये चाकू लिये बैठे हैं!!!!
आदरणीय ॠषभदेव जी,
हर बार की तरह इस बार भी आपकी समीक्षा पढकर बहुत कुछ सीखने को मिला। आपने हर कविता पर जो विचार दिये हैं, वो अमल में लाए जाने चाहिए।
मैं श्रवण जी से भी सहमत हूँ कि कभी-कभी आप छड़ी भी उठा लिया करें। हम आपके डर से कुछ और अच्छा लिखने लगेंगे :)
-विश्व दीपक 'तन्हा'
आदरणीय ऋषभदेव जी !
इस स्तंभ की प्रतीक्षा रहती है।
सार्थक समीक्षा .....देख कर बहुत अच्छा लगा।
पढ़कर आनंद आया ।
आभार
आप चाहे जिस वर्ग के आलोचक हों, मगर आपकी समालोचना से युग्म के कवियों का स्तर दिन-प्रतिदिन बढ़ रहा है, यह मैं ज़रूर जानता हूँ। बहुत-बहुत धन्यवाद।
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