आज का जन्म
पैदा होते ही
माँ के सीने से लिपटा
पर उसके दूध से दूर
बोतल और बाल आहार पर पलता
खोल के नन्ही आंखें
बिटर-बिटर दुनिया को तकता
बनूँगा इस आहार पर ही
ताकतवर
हगीज़ पहन कर भी
ख़ूब है हँसता
आज का बचपन
डगमगाते कदमो से
सुरज के संग खोल के आंखें
हाथ थाम के चलने की जगह
पेंसिल की नोक घिसता
नर्सरी कविता को
बिना समझे
अंग्रेजी में रटता
जीत लूँगा इस दुनिया को
यही सपना बचपन से पलता
माँ-बाप की अभिलाषा को
अपने जीवन का सच समझता
आज का टीनएजर
हैरी पॉटर के कारनामों में गुम
एक नई दुनिया बुनता, रचता
एम टी वी, एकता कपूर की कहानी में
मटकता ,भटकता .बहकता
जीवन का सत्य तलाश करता
या देख के रोज़ नई विज्ञान की बातें
एक दिन करुंगा में भी कुछ
यह वादा ख़ुद से करता
देख सुनीता कल्पना को
चाँद पर रोज़ सपने में उतरता
आज का युवा
आक्रोश बेरोजगारी
और लाचारी
इन सब से तंग आ कर
बसे फूंकता नारे लगता
कुछ नही रखा यहाँ
विदेशी नौकरी
करके अपना जीवन
कॉल सेंटर कल्चर
अपनाता
आज का बुढापा
अकेली आंखो में सपने प्रवासी
जिन्दगी में है बस एक उदासी
अकेले कब तक बच्चो की राह निहारे
हर पल एक डर, और मौत भी नही आती…
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25 कविताप्रेमियों का कहना है :
रंजना जी,
आपने बुनियाद पर चोट करते हुए वृक्ष के हालात तक कविता को जिस तरह पहुचाया है, आप बधाई की पात्र हैं।
बिटर-बिटर दुनिया को तकता
बनूँगा इस आहार पर ही
ताकतवर
एम टी वी, एकता कपूर की कहानी में
मटकाता ,भटकता .बहकता
जीवन का सत्य तलाश करता
इन सब से तंग आ कर
बसे फूंकता नारे लगता
और अंदिम बहुत मार्मिक:
अकेले कब तक बच्चो की राह निहारे
हर पल एक डर, और मौत भी नही आती…
आज का युवा इस कडी में कुछ तत्व कम हैं। बहुत अच्छी कविता।
*** राजीव रंजन प्रसाद
wah ranjana jee.
ek ankaha dard ek ankahi bat aapne bachapan ke madhyam se kah di,
sach me kabile tareef baat hai.
Jitni Tareef karo utani kam...hamesah ki tarah....Zindagi ke harr padaav ko bakhubi pesh kia tumne....bahut bahtu accha laga padke....!!!
aaj ka janam mujhe bhut aacha laga or speacily ye line to bahut hi achi lagi ki "बिटर-बिटर दुनिया को तकता
बनूँगा इस आहार पर ही
ताकतवर " or choti choti aankho se nayi duniya ko dekhta
pad kar i miss my new born Bhanja
he is so cute jab apni aknhe kholta hai to heraan pareshan sab jagah dekhta hai esa lagta hai ki kisi new duniya mein aagaya hai actuly mene bhi first time ka exp. hai new born baby ke sath but its realy amezing.
or aapki kavita ke in line ne to mujhe or yaad dila diya
thanx u r a gr8 kavi
रंजना जी एक कटु सत्य को सुन्दर व प्रभावी तरीके से सामने लाई हैं । बधाई !!!!
वाह! वाह! वाह!
यह हुई ना बात! मज़ा आ गया!
जीवन के चार महत्वपूर्ण भागो की वास्तविकता, बिना शब्दों में उलझे सरलता से सामने रख दिया है आपने... कथन की खूबसूरती पसंद आयी... सरलतम शब्दों का प्रयोग मगर फिर भी बात दिल में गहराई से उतरती है, वर्तमान में बदल रही परिस्थितियों का सटीक काव्य-रूपांतरण!
पैदा होते ही
माँ के सीने से लिपटा
पर उसके दूध से दूर
बोतल और बाल आहार पर पलता
खोल के नन्ही आंखें
बिटर-बिटर दुनिया को तकता
बनूँगा इस आहार पर ही
ताकतवर
माँ के दूध की ताकत का एहसास एवं वर्तमान में इससे वंचित रहते बच्चों में भी जोश... मगर इसकी अंतिम दो पंक्तियाँ -
हगीज़ पहन कर भी
ख़ूब है हँसता
इसमें भी थोड़ा सा कचोटता है, बिना "भी" के यह बचपन की मासूमियत दिखाता है, एक खिलखिलाते हुए नन्हें का चित्र खिंचता है मगर "भी" का प्रयोग "हगीज़" पर वार करता सा प्रतित होता है मानो "हगीज़" उसे काट रही हो मगर फिर भी वह खूब हँस रहा हो....
नर्सरी कविता को
बिना समझे
अंग्रेजी में रटता
यहाँ आपने बेहद उम्दा बात कही है, बात अंग्रेजी या हिन्दी या किसी भी भाषा में कविता रटने की नहीं है बल्कि उसे बिना समझे रटने की है, वह रटता है क्योंकि सभी रटते हैं, 'टीचर' रटवाता है.. यहाँ सुधार की आवश्यकता महसूस होती है, समझ में आना बेहत जरूरी प्रतित होता है।
जीत लूँगा इस दुनिया को
यही सपना बचपन से पलता
माँ-बाप की अभिलाषा को
अपने जीवन का सच समझता
बचपन की कोमल भावनाओं को सही शब्द प्रदान किये है, वाह!
टीनएज़र की दोनों परिस्थितियों को आपने सामने रख दिया है -
हैरी पॉटर के कारनामों में गुम
एक नई दुनिया बुनता, रचता
एम टी वी, एकता कपूर की कहानी में
मटकाता ,भटकता .बहकता
जीवन का सत्य तलाश करता
यहाँ भटकाव दिखता है, मगर साथ ही रोमांच की दूनियाँ भी है, मंनोरंजन भी है जिसकी इस उम्र में सर्वाधिक आवश्यकता भी होती है...
या देख के रोज़ नई विज्ञान की बातें
एक दिन करुंगा में भी कुछ
यह वादा ख़ुद से करता
देख सुनीता कल्पना को
चाँद पर रोज़ सपने में उतरता
यहाँ कुछ करने का जज्बा है, प्रेरणा है, यह भी एक सत्य है कि इस उम्र में बच्चे अपना एक आईडिल भी तय कर लेते है और उसी की तरह बनने की कल्पना भी करते है... यह बात अलग है कि कल्पना के साथ-साथ प्रयास कम ही करते है।
आक्रोश बेरोजगारी
और लाचारी
इन सब से तंग आ कर
बसे फूंकता नारे लगता
कुछ नही रखा यहाँ
विदेशी नौकरी
करके अपना जीवन
कॉल सेंटर कल्चर
अपनाता
बेरोजगारी की समस्या, विदेशी नौकरी का लालच, बदलता रहन-सहन, बढ़ता आक्रोश... आज के युवा का सही एवं सटीक चित्रण!
अकेली आंखो में सपने प्रवासी
जिन्दगी में है बस एक उदासी
अकेले कब तक बच्चो की राह निहारे
हर पल एक डर, और मौत भी नही आती…
बुढ़ी आँखों में पलता दर्द साफ़ झलक उठा है आपकी इन पंक्तियों में, बच्चों के पास समयाभाव है जिसके चलते वे भी उन्हें समय नहीं दे पा रहें है...
एक बार से आपको हार्दिक बधाई देना चाहूँगा... बहुत-बहुत बधाई!
रंजना जी, दर-असल यह रचना आपके संवेदनशील मन का परिचय देती है।
अपने से बहुत छोटी उम्र और बहुत बड़ी उम्र की सोच को सोचकर उसे शब्दों मे एक संवेदनशील मन ही ढाल सकता है।
बधाई एक बढ़िया रचना के लिए!
शुक्रिया गिरीराज जी .जो आपने मेरे इस लिखने के तरीके को इतना सराहा
यहाँ "भी " इस लिए लगाना जरुरी हो गया था क्यूंकि जब यह मासूम बच्चे इस के बन्धन में होते हैं
तो उनका वह दर्द वही समझ सकते हैं फ़िर भी हंसते हैं :) जरा इनको इस बन्धन के मुक्त करके इनकी
सहज हँसी देखिये आप फर्क समझ जायेंगे :)
आज जिस उम्र में बच्चे को स्कूल भेज दिया जाता है वहाँ वह सिर्फ़ अपनी भाषा की कविता न केवल सहज भाव से समझ जाते हैं बल्कि कई बाल सुलभ सवाल भी पूछते है
जबकि बाकी भाषा की कविता वो सिर्फ़ रटते है . :)बहुत बहुत शुक्रिया आपका
रंजना जी,
आपने आज के परिवेश में जीवन का सजीव चित्रण किया है बधाई.
परन्तु अपुन बुढापे के बारे में सुन कर घबरा गये...अपना क्या होगा :)
आज का बुडापा सब से अच्छा लगा , एक जगह मटकाता हो गया है मटकता होना चाहिय था शायद
very well said ranjana
रंजना जी,
वाह..... वाह......क्या बात है...
आज का बुडापा सब से अच्छा लगा .....
आज का बुढापा
अकेली आंखो में सपने प्रवासी
जिन्दगी में है बस एक उदासी
अकेले कब तक बच्चो की राह निहारे
हर पल एक डर, और मौत भी नही आती…
ये रचना मुझे आपकी सबसे अच्छी लगी...
बधाई
ranjna ji aap sahi keh rahi hai . aaj ke jiwan ki sachai hai ye.
ranjanaji,
bahot badhaii eka sanvedansheel rachana ke liye
बहुत ख़ूब रंजना जी...
मज़ा आ गया ... हर बात का चित्रण बख़ूबी किया है !
"खोल के नन्ही आंखें
बिटर-बिटर दुनिया को तकता
बनूँगा इस आहार पर ही
ताकतवर
हगीज़ पहन कर भी
ख़ूब है हँसता"
"हाथ थाम के चलने की जगह
पेंसिल की नोक घिसता"
"या देख के रोज़ नई विज्ञान की बातें
एक दिन करुंगा में भी कुछ
यह वादा ख़ुद से करता"
"या देख के रोज़ नई विज्ञान की बातें
एक दिन करुंगा में भी कुछ
यह वादा ख़ुद से करता"
वाह क्या ख़ूब लिखा है ! बात की सरलता और सँप्रेषण की क्षमता ग़ज़ब की है
बधाई..
Hey Ranju ji....aapne humesha ki tarah is baar bhi..bilkul sach aur yatharth ko kitne simple tareeke se likh diya hai....God knows aisi skill hum mein kyun nahi aati....heehee :)
Sach hin to hai.....ekdam sach....ye kahan se kahan aa gaye hum....har aankhon mein bas yahin to sapna hota hai...bina kuchh soche.bina kuchh jaane....captalism ki is duniya ko bina namak mirch lagaaye kitne seedhe shabdon mein apni baat kah deti hain aap.....continue doing gud jobs...we want sumthing more..n..more....n even more...!! :) ;)
रंजना जी,
बहुत सुन्दर!!
पैदा होते ही
माँ के सीने से लिपटा
पर उसके दूध से दूर
बोतल और बाल आहार पर पलता
खोल के नन्ही आंखें
बिटर-बिटर दुनिया को तकता
बनूँगा इस आहार पर ही
ताकतवर
कम शब्दों में बहुत कुछ कह दिया आपने।
U superb!,hamesha ki tarha :)
bohot dino baad pada,par ye maloom chal gaya k hamse durr rehkar bhi tumhari kalam ki dharr waise hi tej hai;-)
gr8 work
रंजू जी, वैसे तो आपकी यह रचना मैने पहले हीं पढ ली थी, लेकिन उस समय भी अपूर्ण होने के बावजूद बहुत खूबसूरत थी। उस समय आपने अपनी रचना का अंत नहीं किया था। अब इसका अंत देखकर ऎसा लगता है कि सोने पर सुहागा चढा दिया है आपने। मुझे आपकी यह रचना बेहद पसंद आई।
बधाई स्वीकारें।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
रंजना जी,
aap ki rachnaa "आज का सच" satyaa ghatnaao pe aadhaarithai
balki yadi is ki kuch baato ko chod diyaa jaaye to ye achnaa mujhe apne jivan ki hee parchaayi nazar aati hai...
main hee nahi lagbhag sabhi ka jivan ye hee hai
aap ne jivan ki satyaata shabdo me dhaal di hai
aur
satya ko satya bol diyaa jaaye isse badaa uska sammaan nahi ho sakta.....
आपको हार्दिक बधाई देना चाहूँगा...
बहुत-बहुत बधाई!
रंजना जी बधाई स्वीकार करें।
काफ़ी कम शब्दों में आपने बड़ी खूबसूरती से पूरी बात कह दी है।
मटकाता ,भटकता .बहकता
जीवन का सत्य तलाश करता
तीनों शब्द काफ़ी अच्छे से बताते हैं टीनएज़र के मन के हालात। उस उम्र में तो जो दिखाया जाता है, जो बताया जाता है, वही सच लगने लगता है। जो नहीं मिलता है या जिसके लिये मना किया जाता है, उसे ही पाने की चाहत होती है। जिससे दूर रहने को कहा जाता है वही सबसे अपना लगने लगता है। जिन रिश्तों में भी अधिकार दिखाया जाता है वही बेड़ियाँ लगने लगते हैं।
शायद यही यौवन किसी वक्त में मेरे माता-पिता ने अलग अलग जिया होगा। और शायद अब मेरी बारी है।
रंजना जी, आपने आज के सच को बखूबी बयान किया है। यह हमारे समय का क्रूर सत्य है। हम इस पर सोच सकते हैं, इसपर अपने विचार व्यक्त कर सकते हैं, पर शायद इसे जीने के लिए अभिशप्त हैं। यही हमारी नियति है।
फिरभी यह देखकर कर अच्छा लगता है कि कुछ लोग तो हैं इस दुनिया में जो इसे लेकर उद्वेदित होते हैं। इस विचार, इस संवेदना को मैं सलाम करता हूं और दुआ करता हूं ईश्वर निम्नांकित स्थितियों से हम इन्सानों को निजात दिलाए-
"अकेली आंखो में सपने प्रवासी
जिन्दगी में है बस एक उदासी
अकेले कब तक बच्चो की राह निहारे
हर पल एक डर, और मौत भी नही आती…"
वैसे ये एक नग्न सत्य है, जिसे हम आप सब लोग समझते हैं।
कविता व्यंग्य और चिंता से शुरू होकर आज के अमीर बुढ़ापे के दर्द पर खत्म होती है। रंजना जी की यह कविता इस बार अत्यधिक प्रसंशा की पात्र है क्योंकि बहुत ही सहज गति से आगे बढ़ते हुए अपना अभीष्ट पाती है।
बधाई।
रंजू जींबहुत ही अछा लिखा है . बहुत बहुत बधाई .
रंजनाजी आज के दौर में जन्म से बुढ़ापे तक की परिभाषा किस प्रकार बदल गई है और वक्त के साथ साथ सोच में जो परिवर्तन आया है वो आप से बेहतर और कौन बता सकता है !आपकी रचना बहुत उत्कृष्ट और सुंदर है !बड़ाई स्वीकार करिएँ !
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)