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Saturday, September 15, 2007

एक और बुधिया


मैं रोता हूँ अगर मेरे सपने पूरे ना होते हैं
पर उसको पता ही नही ,
कि सपने कम्बख़्त क्या होते हैं !

बुधवार को पैदा हुई सो बुधिया नाम है ,
कचरे में ज़िंदगी तलाशे
बस यही काम है |
छोटी है,मासूम सी
उम्र कोई पंद्रह साल है|

कष्ट हों जीवन मे तो इच्छाएँ मर जाती हैं,
पर बुधिया की विडंबना ..
कोई आरज़ू पनप ही ना पाती है !

मासूम...
पता ही नही ज़िंदगी क्या होती है
बस पेट भर खाना मिल जाए ,
देवी माँ से रोज़ कहती है !

जो हमारे लिए कचरा है ,
वही ख़ुशियों का संसार है
उसे कैसी शर्म ...
घूरे पर शान से घूमती है
दिन भर प्लास्टिक बीने...
तब रात में रोटी खा पाती है !

घूरे पर पन्नी दिख जाए
तो ऐसे गर्व से उठाती है ,
मानो कोई शहीद की विधवा
परमवीर चक्र पाती है !

बस यूँ ही ,
बुधिया की ज़िंदगी चलती है
जैसे घिसे हुए टायर पर ,
कोई मोटर बेमन से बोझ ढोती है !

एक दिन वो घूम रही थी ,
कि सकपका गयी
शायद कोई चीज़ अनजाने में ,
उसके पैरों से टकरा गयी
झुकी,उठाया,
देखा..
पता है क्या हुआ फिर !
उसने पीठ पर लादी बोरी
फेंक दी |
कचरे की बोरी..
नहीं-नहीं
घुटन और विवशता की बोरी !
फेंक दी उसने

महसूस किया मैने ..
मेरी आँखे नम हो गयीं
उसकी वो चेष्टा कुछ आहत सी कर गयी
सच..
कुछ विचित्र सी घटना घट रही थी ,
मैने देखा ..
आज एक पोखर में भी लहरे चल रही थीं |

बुधिया ..
शायद ख़ुद की ही आँखों में कुछ ढूँढ रही थी ,
अपने गालों पर ढलका पसीना पोंछ रही थी ,
उसके होंठों पर एक प्यारी सी मुस्कान तैर रही थी ,
शायद कोई आरज़ू आज अंगड़ाई ले रही थी|

उसके अंतस से कोई लड़की-सी
आज बाहर झाँक रही थी..
शरमा कर बड़े जतन से,
अपने बिखरे बालों को सँवार रही थी
आज बुधिया को नहीं,
मैने देखा था..
एक लड़की को..
जो ख़ुद को शीशे में निहार रही थी !

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16 कविताप्रेमियों का कहना है :

शोभा का कहना है कि -

विपुल जी
बहुत ही अच्छी यथार्थ वादी कविता लिखी है तुमने । आंचलिक शब्दों के प्रयोग ने प्रभावी बना
दिया है । बुधिया के माध्यम से आम बालिका को ले आए हैं । बहुत--बहुत बधाई ।

RAVI KANT का कहना है कि -

विपुल जी,
मार्मिक रचना!

मैं रोता हूँ अगर मेरे सपने पूरे ना होते हैं
पर उसको पता ही नही ,
कि सपने कम्बख़्त क्या होते हैं !

बहुत अच्छा!

पारुल "पुखराज" का कहना है कि -

विपुल ्जीमेरे घर के सामने भी एक घूरा है अक्सर सुबह ्गेट पर खड़े ्हो कर इन कचरा बीनने वालों को देखती रह्ती हूं।कभी कभी टोकती भी हूं कि कचरा बीनने के बजाय फ़ैलाते क्यूं हो ।मेरे स्वय के मन मे उठे भाव आज आपकी ्पंक्तियों मे पढ़ कर अच्छा लगा ।

राहुल पाठक का कहना है कि -

vipul ji vastav me kavita marmik ban padi hai.....
budiya ki shrinkhala ki prtyek kavita se aapne nyaya kiya hai
sadhuvad

Sajeev का कहना है कि -

उसके अंतस से कोई लड़की-सी
आज बाहर झाँक रही थी..
शरमा कर बड़े जतन से,
अपने बिखरे बालों को सँवार रही थी
आज बुधिया को नहीं,
मैने देखा था..
एक लड़की को..
जो ख़ुद को शीशे में निहार रही थी !

किसी भी किरदार को कविता के मध्यम से जीवित करना और उसके मध्यम से कोई बात संप्रेसित करना बहुत मुश्किल काम है विपुल जी आपने न सिर्फ़ यह मुश्किल काम किया है बल्कि उसे बहुत अद्भुत तरीक़े से निभाया है, ठोकर लगने के बाद बुधिया को क्या मिला, इस रहस्य से परदा हटा तो कविता को जैसे एक नया अर्थ मिल गया, सुंदर शब्द , सुंदर अभिव्यक्ति और अतिसुन्दर प्रस्तुति .... बहुत बहुत बधाई

गीता पंडित का कहना है कि -

विपुल जी,

बहुत मार्मिक ,

मैं रोता हूँ अगर मेरे सपने पूरे ना होते हैं
पर उसको पता ही नही ,
कि सपने कम्बख़्त क्या होते हैं !

यथार्थ वादी रचना...

आज बुधिया को नहीं,
मैने देखा था..
एक लड़की को..
जो ख़ुद को शीशे में निहार रही थी !

सुंदर अभिव्यक्ति

बहुत--बहुत बधाई ।

विपिन चौहान "मन" का कहना है कि -

वाह
बहुत खूब लिखा है मित्र
आनन्द आ गया
रचना के अन्त ने बहुत प्रभावित किया है
शुरुआत में मुझे कविता कुछ कमजोर सी लगी थी
किन्तु अन्त ने सारी कमियों को दूर कर दिया
बहुत प्यारी रचना की है
बधाई स्वीकार करें

रंजू भाटिया का कहना है कि -

विपुल जी,बहुत ही मार्मिक अच्छी रचना.... सुंदर अभिव्यक्ति लिखी है

मासूम...
पता ही नही ज़िंदगी क्या होती है
बस पेट भर खाना मिल जाए ,
देवी माँ से रोज़ कहती है !

....

आज बुधिया को नहीं,
मैने देखा था..
एक लड़की को..
जो ख़ुद को शीशे में निहार रही थी !

सुंदर.....बहुत बधाई ।

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

बहुत संवेदनशील रचना, लेकिन मुझे जाने क्यों अधिक की उम्मीद थी।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

बुधिया पर आपकी पिछली दो कविताओं के मुकाबले इसे मैं कमजोर प्रस्तुति कहूँगा। कविता अंत में उठती है और प्रभावित करती है:

उसके अंतस से कोई लड़की-सी
आज बाहर झाँक रही थी..
शरमा कर बड़े जतन से,
अपने बिखरे बालों को सँवार रही थी
आज बुधिया को नहीं,
मैने देखा था..
एक लड़की को..
जो ख़ुद को शीशे में निहार रही थी !

*** राजीव रंजन प्रसाद

Gaurav Shukla का कहना है कि -

विपुल,

मानवीय भावनाओं को बहुत सूक्ष्मता से उकेरते हैं आप,सरल भाषा के प्रयोग से कविता और सुग्राह्य हो जाती है
अच्छा लिखा है, कविता का संवेदित करने वाला अंत प्रभावी है

आज बुधिया को नहीं,
मैने देखा था..
एक लड़की को..
जो ख़ुद को शीशे में निहार रही थी !

सुन्दर रचना के लिये बधाई

सस्नेह
गौरव शुक्ल

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

विपुल,

यह कविता बुधिया से पाठकों को रत्ती भर भी नहीं जोड़ पा रही ह। पता नहीं कहाँ कमी है। शायद शैली में वो बात नहीं है। ज़रा फ़िर ध्यान देना,

विपुल का कहना है कि -

शैलेश जी आपने सही कहा की कविता में कहीं कोई कमी है पर सच कहूँ तो मुझे भी समझ में नही आया कि कहाँ पर कमी है पर कमी है इसे मैं भी स्वीकार करता हूँ| वास्तव में मैने यह कविता युग्म पर इसीलिए ही भेजी थी कि कोई मुझे बताएगा कि क्या बात अधूरी रह गयी पर मेरी मंशा पूरी नही हो पाई |
पिछली दोनो बुधिया वाली कविताओं से यह बिल्कुल अलग है कारण कि अंत में फ़र्क है| हर बार बुधिया हार जाती थी पर इस बार उसमें से कुछ नया हमे बाहर झाँकता दिखाई दिया तो यह तो निश्चित है कि पिछली दोनो कविताओं को पड़ते समय की मानसिकता से अलग हो कर हमे इसे पढ़ना होगा | पर इस सब के बाद भी फिर से कहूँगा कि कमी रह गयी है इस बात का एहसास मुझे भी हो रहा है पर कहाँ रह गयी है यह आप लोगों से पूछना चाहूँगा| आशा है मेरी इस छोटी सी इच्छा को आप पूरा करेंगे...

praveen pandit का कहना है कि -

बुधिया ने संवेदित कर दिया।भीतर तक छूती है।
अंत विशेष प्रभाव छोड़ जाता है।सरल-सहज शब्दों मे बुधिया बहुत अच्छी लगी।

विपुल जी! मेरी बधाई स्वीकार करें।

प्रवीण पंडित

Mohinder56 का कहना है कि -

विपुल जी,

गरीबी के अन्तर्द्वन्द का बडा स्टीक चित्रण किया है आपने. कुडे के ढेर के साथ कुडा हुयी जाती जिन्दगियों को देख कर आंख मूंद लेने वाला समाज निश्च्य ही परिताडना का अधिकारी है.

Pooja Anil का कहना है कि -

विपुल जी,
आपकी यह रचना मैंने तीन बार पढी कि शायद जो कमी आप ढूँढ रहें हैं उसमें आपकी कुछ मदद कर सकूं, परन्तु यहाँ कमी नहीं एक प्यास उभर कर आई जो कुछ और ,,,,कुछ और भी चाहती है , यह कमी आपकी कविता में नहीं शायद हर एक पढने वाले के मन में रह जाती होगी क्योंकि कभी -कभी कविताएँ भी प्यासा छोड़ जाती हैं (:

निःसंदेह बहुत ही सुंदर . बहुत बहुत बधाई

^^पूजा अनिल

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