बादलों से झांकती
है सूर्य की किरणें वो,
या आम्रकुंज में कूकती
कोयलों की रागिनी।
या संगिनी है वायु की,
या स्वामिनी स्नायु की।
या डोलती शाखाओं पर
चटकती वो छुइमुई,
या चमकती शाम है
धुंधले आकाश में।
एक प्रकाश आस का,
या फूल है वो कास का।
या चाँद है जो चाँदनी
बिखेरता है रात भर,
या बूंद है जो जल में भी
छेड़ती है एक तरंग।
या अंग है अनंग का,
या अंत है अनंत का।
वो फुरसतों में गढी हुई
कामनी माधुर्य की,
वो रूप की है रत्नाकर
या सादगी की खान है।
वो रैन है या है दिवा,
या शिव की है वो शिवा।
वो मोहिनी है श्याम की
या राम की है मैथिली,
वो प्राण है हर जीव का,
या कवि की है कल्पना।
भावना हर संत की,
फिज़ा है वो वसंत की।
वो सुरभि है कस्तूरी की,
या सीप की है मोती वो,
अजेय है,अमित है वो,
या वाणी की है भारती।
आरती उस रूप के,
दीपक हों मानो धूप के।
नेत्र हैं या चंद्र-सूर्य,
ओष्ठ हैं कि पंखुरी,
कपोल हैं या मधुकलश,
या चाँद है वो दूज का।
लोच इतनी तीक्ष्ण है,
सम्मुख पखेरू निम्न हैं।
वो तान है वीणा की,
या दुंदुभि की गर्जणा,
या इन्द्रधनुष की गूंज पर
विहँस रही है जानकी।
हैं पालकी पलक बने,
ग्रीवा हेम के झलक बने।
सोमरस का है नशा,
भ्रमरों से घिरी पुष्प है,
कटि टंक-से, उस अंक में
गरलपान भी मधुप है।
अनूप है, अलख है वो,
हर पुष्प की महक है वो।
हर गीत की है नायिका,
या जन्नत की हूर है,
वो चाँदनी में है ढली-
है कांता या है अगन।
स्वप्न बाहुपास है,
नेत्रों में रूह की प्यास है।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
दीपक जी,
वाह्!!!!
स्वतःस्फूर्त प्रतिक्रिया है यह....मैंने नहीं कहा
इतने सुन्दर शब्द चुन लाते हैं आप कि मन खुश हो जाता है, यदि कहूँ कविता नयनाभिराम है प्रथमदृष्टया तो गलत नहीं होगा :-)
एक बार फिर अनुपम लेखन, इस बार बहुत ही सुन्दर अनुपमाओं से सजाया है आपने कविता को, बहुत सुन्दर
"फिजा" और "जन्नत" जैसे गैर हिन्दी शब्द भी कविता को कहीं कमजोर होने नहीं देते
एक विषय पर इतनी सारी उपमायें एकत्रित करना और फिर उन्हें काव्य का रूप देना अति कठिन है जो आपने सफलता से कर दिखाया है
बधाई स्वीकारिये शब्दशिल्पी जी :-)
अद्भुत कृति के लिये साधुवाद
पूरी कविता सुन्दर उपमाओं से भरी है सो कुछ को चुनना बाकियों के साथ अन्याय होगा
पुनश्च बहुत बहुत बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
या चाँद है जो चाँदनी
बिखेरता है रात भर,
या बूंद है जो जल में भी
छेड़ती है एक तरंग।
या अंग है अनंग का,
या अंत है अनंत का।
दीपक .जी .मैंने इस को अभी पढ़ा और मैं इसको पढ़ के सच में कुछ पल के लिए सिर्फ़ इसी के लफ्जों में खो गई
और जब पता चला की यह तुमने तब लिखी जब तुम ११ में थे ...तो सच में यही निकला मुहं से की ""होनहार
बिरबान के होत चिकने पात"' ..बहुत ही सुंदर और नए लफ्जों से सजी यह रचना मुझे बहुत पसंद आई
एक नया अंदाज़ है इस में जो अपनी तरफ़ आकर्षित करता है ..
ढेर सारी शुभकामनाएं और बधाई
रंजू
तन्हा जी,
अतिसुन्दर!!! आप तो शब्दों के जादूगर मालूम पड़ते हैं। पूरी कविता में सुन्दर प्रवाह दिख्ता है। बहुत पसंद आई, बधाई।
या डोलती शाखाओं पर
चटकती वो छुइमुई,
या चमकती शाम है
धुंधले आकाश में।
एक प्रकाश आस का,
या फूल है वो कास का।
कोशिश करते rahiye samjhne की .... लेकिन समझ जाने से तो ये उलझने ही भली, वरना इतना सुंदर गीत कहाँ से बनता, tanha कवि जी बहुत बहुत बधाई
तनहा जी
बहुत ही सुन्दर कल्पना की है । विशेष रूप से बिम्ब बहुत अच्छे बने हैं । सन्देह अलंकार का इतना बढ़िया
प्रयोग करने के लिए बधाई ।
दीपक जी,
अति - सुन्दर....
सुन्दर कल्पना ....
सुन्दर बिम्ब......
सुन्दर - शिल्प
अद्भुत कविता
बहुत बहुत बधाई|
सस्नेह
ये पंक्तियाँ बार बार पढ़्ता रहूँ, गाता रहूँ, महसूस करता रहूँ...स्पंदित होता रहूँ।
*** राजीव रंजन प्रसाद
vishwa saab...
aapki kalam masha allah na jane kis dhatu ki bani hai...
jab bhi likhti hai to maniye keher aur zeher dono ugalti hai..
likhte rahe.....
khuda aapko hamesha nayi oonchaiyan pradan kare....
insha-allah.....
parag...
hamesha ki bhanti ek hi shabd hai mere pas..."lajavab"
likhte rahiye,sukun milta hai.
शब्दशिल्पीजी,
अद्भुत कृति!!! उपमाओं का इतना सुन्दर प्रयोग... मज़ा आ गया भाई!
आप कविता को रचते ही नहीं वरन सजाते भी है, एक एक शब्द अनुपम है।
गौरव शुक्लाजी के शब्दों में कहे तो "इतने सुन्दर शब्द चुन लाते हैं आप कि मन खुश हो जाता है, यदि कहूँ कविता नयनाभिराम है प्रथमदृष्टया तो गलत नहीं होगा", यह सही भी है मित्र!
बहुत-बहुत बधाई!!!
इस कविता की कोई भी उपमा नई नहीं है। आप इतनी नई-नई उपमाएँ लेकर आये हैं कि उनके सामने यह सब पानी भर रही हैं। ऐसी उपमाएँ तो वो भी दे लेता है जो कि कवि नहीं है। अपना धर्म निभाइए। कुछ चमत्कार परोसिए।
दीपक!!
हमेशा की तरह इस बार भी अपकी रचना शराहने योग्य है....बहुत ही उम्दा शब्दों का प्रयोग किया है....
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नेत्र हैं या चंद्र-सूर्य,
ओष्ठ हैं कि पंखुरी,
कपोल हैं या मधुकलश,
या चाँद है वो दूज का।
लोच इतनी तीक्ष्ण है,
सम्मुख पखेरू निम्न हैं।
वो तान है वीणा की,
या दुंदुभि की गर्जणा,
या इन्द्रधनुष की गूंज पर
विहँस रही है जानकी।
हैं पालकी पलक बने,
ग्रीवा हेम के झलक बने।
सोमरस का है नशा,
भ्रमरों से घिरी पुष्प है,
कटि टंक-से, उस अंक में
गरलपान भी मधुप है।
अनूप है, अलख है वो,
हर पुष्प की महक है वो।
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बहुत हीं कठिन शब्दों का प्रयोग किया है....पर बहुत ही खुबशुरत रचना है...
मुझे बहुत अच्छी लगी आपकी यह रचना.....
दीपक जी
बहुत सुन्दर रचना लिखी है आपने.. उपमाओं और अंलकांरों से सज्जित. बधाई
इस नयनाभिराम कविता-रूपसी को देखकर चैतन्य रहा जा सकता है क्या?
दीपक जी!मैं तो दंग रह गया।पढता ही जा रहा हूं और दुबारा पढने के लिये स्वयं को चिकोटी काट रहा हूंकि समय से पढा करो वरना इतनी नयनाभिराम उक्तियों और उपमाओं पर छोटी सी टिप्पणी के लिये भी जगह नही मिलेगी।
प्रवीण पंडित
सुंदर रचना
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