होता यूं
कभी
कि घर से बाहर निकलता मैं
टहलने को
और,वापस लौटना ही भूल जाता
फिर,घर मुझे ढ़ूढ़ता हुआ आता
और कहता -
कहां चले जाते हो बिना बताये
या यूं कि
टहलते-टहलते निकल जाता मैं
नये पुल की तरफ
और चूंगी का बैरियर
मुझे रोकता
मुझसे 'टोल टैक्स' मांगता
१० रूपया प्रति दोपाया वाहन
ऎसा कि
कोई किताब खोलता
पढ़ने को
और, हर्फ़ हर्फ़ मिट जाता उसका
फ़िर किताब मुझे पढ़कर
खुद को लिखती
एक शाम
बोटिंग करता रहता
बोरियत दूर करने को
कि नदी
आ के बैठ जाती नाव में
और,मैं बहता
होता कभी यूं भी
भूल जाता मुझसे
मेरा सारा लिखा-पढ़ा
मैं आदमी बन जाता
फ़िर से
एकदम कोरा
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
कल्पणा को अच्छी तरह ढा़ला है आपने कविता में ।
होता यूं
कभी
कि घर से बाहर निकलता मैं
टहलने को
और,वापस लौटना ही भूल जाता
फिर,घर मुझे ढ़ूढ़ता हुआ आता
और कहता -
कहां चले जाते हो बिना बताये
अच्छी लगी आपकी कविता, उसके भाव और कल्पणा ।
मैं आदमी बन जाता
फ़िर से
एकदम कोरा
और अंत में यह बात भी सोचने लायक है । नया कुछ सीखना पहले से सीखे हुए को भुला पाने से ज़्यादा सरल होता है । Unlearning की प्रक्रिया बहुत मुश्किल होती है ... काश कि हम कोरा बन फिर से नए लिखे जा सकते !!
एक अच्छी कविता के लिए बधाई ।
- सीमा कुमार
jio manish babu... pyaaj ki chikalon see kavita jiska har rang naya hai..har para ek kava arth de sake...seekhna aur fir seekhe huye ko bhulana, bahut din baad koi kvita padhi, achchi lagi...
हो गया ऐसा
कि
सब कुछ भूल कर मै
डूब गया.......।
काश मैने वो बोर्ड पढ़ा होता
साहिल पे रखा था जो-
कि
"यहाँ तैरना मना है...!
ये मनीष वंदेमातरम की रचना है।"
साँस लेने की फुरसत लेने के लिए माफी चाहूँगा।
सस्नेह,
श्रवण
मनीष जी..
एसी कविता की खूबसूरती यह है कि इसे पढते ही मन हल्का हो गया। महसूस हुआ जैसे मेरी ही भीतर की कोई चीज़ शब्द बन कर मेरे सामने आ खडी हुई हो।......।
होता कभी यूं भी
भूल जाता मुझसे
मेरा सारा लिखा-पढ़ा
मैं आदमी बन जाता
फ़िर से
एकदम कोरा
जैसे आपने मेरे लिये ही लिखा हो....आपको बहुत लम्बे समय से पढ रहा हूँ किंतु पिछले दो माह में आपने वो कविताये प्रकाशित की हैं जो मन से कभी नहीं उतरेंगी।
*** राजीव रंजन प्रसाद
वाह! मनीष जी! बहुत अच्छी रचना है. परत दर परत खुलती हुई मगर फिर भी कुछ बाकी रखती खूबसूरत कल्पना! बहुत खूब!
मनीष जी
बहुत बढ़िया कल्पना है आपकी । वैसे अधिकतर जो आदमी सुबह घर से जाता है वह शाम तक
बदल ही जाता है । कभी सचमुच ऐसा ही होजाए तो मज़ा आ जाए ।
सुन्दर एवं नवीन कल्पना । बधाई
होता कभी यूं भी
भूल जाता मुझसे
मेरा सारा लिखा-पढ़ा
मैं आदमी बन जाता
फ़िर से
एकदम कोरा
बहुत सुंदर मनीष जी ...बधाई ।
वाह मनीष जी कविता का उत्कृष्ट नमूना .... वाह शब्द नही हैं तारीफ करने के लिए .... नायाब... मनीष जी कितना सुंदर लिखा है आपने, युग्म के संकलन का तोः पता नही पर मेरे संकलन मे यह कविता हमेशा रहेगी, इस शानदार प्रस्तुति के लिए कोटी कोटी बधाई, हिन्दी दिवस पर भला इससे अच्छा तोहफा क्या हो सकता है.
मनीष जी. .बेहद पसंद आया आपका अंदाज़ ...इस ख़ूबसूरत रचना के लिए शुक्रिया
हर्फ़ हर्फ़ मिट जाता उसका
फ़िर किताब मुझे पढ़कर
खुद को लिखती
कि नदी
आ के बैठ जाती नाव में
और,मैं बहता
होता कभी यूं भी
भूल जाता मुझसे
मेरा सारा लिखा-पढ़ा
मैं आदमी बन जाता
फ़िर से
एकदम कोरा
बहुत सुंदर रचना है मनीष जी।
काश ऎसा हो पाता। तब शायद इंसान सच में इंसान बन जाता।
मनीष जी,
अद्भुत लिखा है आपने!! खासकर कविता के अंत ने बहुत प्रभावित किया-
होता कभी यूं भी
भूल जाता मुझसे
मेरा सारा लिखा-पढ़ा
मैं आदमी बन जाता
फ़िर से
एकदम कोरा
मनीष जी..
खूबसूरत कविता ...
होता कभी यूं भी
भूल जाता मुझसे
मेरा सारा लिखा-पढ़ा
मैं आदमी बन जाता
फ़िर से
एकदम कोरा
एकदम कोरा
एकदम कोरा
एकदम कोरा
जैसे......
आपने मेरे लिये ही लिखा है |
आपकी अच्छी कविता के लिए...
बधाई ।
मनीष जी बहुत ही सुन्दर लिखा है आप ने
कविता की सरलता और विचारों की विशिष्टिता ने कायल बना लिया
किसी भी मन को गम्भीर कर देने वाली है आप की रचना
मन को एक अजीव सी शान्ति मिली है
बधाई हो
देरी के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ मनीष जी।
अच्छी लगी कविता।
ऎसा कि
कोई किताब खोलता
पढ़ने को
और, हर्फ़ हर्फ़ मिट जाता उसका
फ़िर किताब मुझे पढ़कर
खुद को लिखती
भूल जाता मुझसे
मेरा सारा लिखा-पढ़ा
मैं आदमी बन जाता
फ़िर से
एकदम कोरा
बहुत मासूम रचना...
मनीष जी,
आपके यही सब अंदाज़ असाधारण कविता घोषित करते हैं। कहा जाता है कि कविता में चमत्कारिक तत्व होने चाहिएँ। यहाँ मैंने उन्हें पाया। आप बधाई के पात्र हैं।
मनीष जी, अति विलम्ब के लिये क्षमा करेंगे
मैं ही चूक गया ऐसी सुन्दर कविता पढने में
प्रतीक्षा थी आपकी कविता की, इस बार अलग सी कविता पढवाई आपने
गंभीर, और आम बोलचाल की भाषा में
बहुत सुन्दर
"हर्फ़ हर्फ़ मिट जाता उसका
फ़िर किताब मुझे पढ़कर
खुद को लिखती"
वाह!!!!
"होता कभी यूं भी
भूल जाता मुझसे
मेरा सारा लिखा-पढ़ा
मैं आदमी बन जाता
फ़िर से
एकदम कोरा"
बहुत ही सुन्दर
अनुपम रचना के लिये बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
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