क्यों?
यूँ हर बात में
'क्यों' ना कहा करो,
कुछ बातें,
कुछ लोग,
बेवज़ह भी होते हैं।
आशा
इन उम्मीद वालों को
ख़त्म कर दो,
हम,
जो उम्मीद के हाथों जले
नाउम्मीदी में खो गए हैं,
उन्हें ये कायर बताते हैं।
ख़ुदा
नींद माँगी
तो बेहोश कर दिया,
ऐ ख़ुदा,
तू मुझसे इतना डरता क्यों है?
शर्म
डूबता सूरज
शर्म से लाल है,
चलो,
डूबते हुए
किसी को तो शर्म आई।
तेरी हँसी
तेरी एक हँसी,
मेरे सपनों की उम्र
सौ बरस बढ़ा जाती थी,
इतना हँसती क्यों थी
कि अब मरजाणे सपने
मरते ही नहीं।
जाल
बहुत खुश है
जालों में उलझा कर मुझे,
उसे समझाओ,
मकड़ियाँ
किसी की वफ़ादार नहीं होतीं।
दर्द
सीने में कुछ
बहुत चीसता है डॉक्टर साहब,
कोई दवा असर नहीं करती,
एक चीरा लगाओ,
इस दिल को
बाहर फेंक दो ना।
बुढ़िया
पचास बरस बाद,
हम जैसे अल्हड़
अपने पोते पोतियों को देखोगी
तो सच कहो,
झुर्रियों से भरे बदन के भीतर छिपा
यही मासूम सा दिल,
क्या नहीं कहेगा,
मैं भी होता तो अच्छा होता...
खबर
तेरे आने की
खबर आती
तो खबर भी सुनता,
अब जहाँ में
कौन जिया, कौन मरा,
मुझको क्या?
प्रेम
- कौन?
- मैं
- कौन?
- मैं
- कौन?
- तुम
- ......
- कौन?
- प्रेम...
एक...
एक प्यार,
एक परी,
एक राक्षस,
एक कहानी,
एक दर्द,
एक मैं
और
.......
कुछ भी नहीं!
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
bahut kuchh samajh nahi paayi ...par baat gahari hogi jo samajh nahi aayi.....i want to know more about prem?
bahut hi achhe the kuch to bahut pyare........keep it up
सुंदर लिखा है गौरव... कई ठीक- ठीक लगी
पर यह विशेष रूप से पसंद आई ..
शर्म
डूबता सूरज
शर्म से लाल है,
चलो,
डूबते हुए
किसी को तो शर्म आई।
....
खबर
तेरे आने की
खबर आती
तो खबर भी सुनता,
अब जहाँ में
कौन जिया, कौन मरा,
मुझको क्या?
बधाई !!!
गौरव,
कई क्षणिकाओं में बिम्ब स्पष्ट नहीं हुए हैं। जैसे "क्यों", "आशा", "खुदा", "शर्म", "बुढिय" दिमाग लगा कर इन्हे समझा तो जा सकता है और एक परिपक्व सोच भी दीख पडती है इनमें, किंतु क्षणिकाओं वाली धार का अभाव है।
"तेरी हँसी", "जाल", "दर्द", "खबर", "प्रेम" और "एक" अच्छी क्षणिकायें हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
"तेरी हँसी" और "क्यों" मुझे बहुत अच्छे लगे
gaurav kya kar ke rahoge...
bahut sahi hai
ख़ुदा
नींद माँगी
तो बेहोश कर दिया,
ऐ ख़ुदा,
तू मुझसे इतना डरता क्यों है?
saram bhi achchi hai
lage raho..
:) तुम यार बढिया लिखते हो.
भई अच्छा लिखते हो तुम, बल्कि अब तो इन्तज़ार रहने लगा है कि क्षणिकायें कब आयेंगी.
अपनी समझ से वर्गीकरण कर रहा हूँ -
sabase achchee lagee yaha -
जाल
बहुत खुश है
जालों में उलझा कर मुझे,
उसे समझाओ,
मकड़ियाँ
किसी की वफ़ादार नहीं होतीं।
उत्तम-
क्यों?
शर्म
तेरी हँसी
बुढ़िया
खबर
मध्यम-
ख़ुदा
दर्द
एक
शेष-
आशा
प्रेम
आगामी क्षणिकाओं की प्रतीक्षा रहेगी.
स्नेह सहित
शिशिर
गौरव , क्षणिकाओं के साथ तुम्हारा प्रयोग अच्छा लगा। "प्रेम" और "एक" तुम्हारी प्रयोगात्मक क्षणिकाएँ हैं। बाकी क्षणिकाएँ मैं पहले पढ चुका था,उनका दुबारा पढा जाना दिल को सुकून दे गया। ऎसे हीं लिखते रहो।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
गौरव जी,
कमाल का लिखते हैं आप! ’प्रेम’ बहुत पसंद आई।
प्रिय गौरव
बाहुत अच्छा लिखा है । मुझे विशेष रूप से निम्न पंक्तियाँ पसन्द आई -
नींद माँगीतो बेहोश कर दिया,ऐ ख़ुदा,तू मुझसे इतना डरता क्यों है?
डूबता सूरजशर्म से लाल है,चलो,डूबते हुएकिसी को तो शर्म आई।
सस्नेह और बहुत सी बधाई
"डूबता सूरज शर्म से लाल है,चलो,
डूबते हुए किसी को तो शर्म आई।"
"बहुत खुश है जालों में उलझा कर मुझे,
उसे समझाओ,
मकड़ियाँ किसी की वफ़ादार नहीं होतीं। "
"तेरे आने की खबर आती तो खबर भी सुनता,
अब जहाँ में कौन जिया, कौन मरा,मुझको क्या?"
इस बार भी टिपण्णी ना करता तो "गुनाह" होता....कुछ क्षनिकायें साधारण थीं, मगर कुछ तो लाजवाब हैं......आप इस विधा में हमारी अनुपम खोज हैं.....उम्मीद है मैं भी इस बार इसी विधा पर हाथ साफ करुंगा..और इसके प्रेरणा स्त्रोत आप होंगे.....
बहुत-बहुत बधाई.......
आपका प्रशंसक,
निखिल
pretty good short poetic lines...
this one is too good..
डूबता सूरज
शर्म से लाल है,
चलो,
डूबते हुए
किसी को तो शर्म आई।
Bhaut hi Sunder Rachna...
गौरव भाई
हर बार की तरह इस बार भी आपकी रचना पसंद आई, और क्यों पसंद न आए, न पसंद आने की कोई वजह ही नही है, बहुत सुंदर.
जो हमे सबसे अच्छी लगी वो है 'क्यों?'
..... यूँ हर बात में'क्यों' ना कहा करो,कुछ बातें,कुछ लोग,बेवज़ह भी होते हैं। ...
bhayia bahut acha likha hai.sabhi achi thi. par mujhe sharm and jall sabse achi achi lagi.
चलिए आपने एक काम अच्छा कर रहे हैं। क्षणिका विधा को एक मुकाम तो आप दे ही रहे हैं साथ ही साथ उसमें प्रयोग भी कर रहे हैं। हो सकता है पाठक उसे तुरंत पसंद न करें लेकिन इससे ताज़गी बनी रहेगी।
मुझे एक क्षणिका कुछ खास नहीं लगी-
दर्द
सीने में कुछ
बहुत चीसता है डॉक्टर साहब,
कोई दवा असर नहीं करती,
एक चीरा लगाओ,
इस दिल को
बाहर फेंक दो ना।
गौरव भाई
आप मुझसे बहुत छोटे है तो अधिकार सा जताने का मन है. एक गुजारिश है कि लिखने के बाद कभी भी पोस्ट करने की जल्दबाजी न करें. आपमें असीम क्षमतायें हैं यह तो कोई भी आपकी लेखनी के सुक्ष्म दर्शन से जान जायेगा मगर छपास लालियता को लगाम दें. लिखने के बाद रचना को सहेजें. कई कई बार पढ़ें और जब अपनी रचना पर आपको मजा आने लगे स्थायी, तब पोस्ट करें.
कई क्षणिकाओं में अच्छे तेवर निकल कर आये हैं मगर बाकि उन्हें गिरा रहे हैं. ११ की जगह ५ ही दें मगर उम्दा.
आशा है बड़ॊं की सलाह अन्यथा न लोगे. अनेकों शुभकामना.
it,s very very good
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