एक शक्ल की दो आँखें
बूढी सी, कुछ पथराई सी
डूबते हुए,
मटियाले , गंदले से जल में,
इच्छुक , शायद कुछ कहने को
और पास ही
पक्की एक भित्ति के ऊपर
एक अधमरी लता बेल की
श्वास जोड़ती पल - पल
दो पल
और गुजर करने को जीवित ;
तभी, गिरी दीवार अधमरी
जल की गोद लिपट सोने को,
मरी लता बेमौत-
अगर आँखें होतीं उसकी भी
तो शायद दिखती
फ़िर वही डूबती
हुई चमक पथराई सी ।
वह एक प्रस्तरी चमक
बनी जो ऊर्जा या सपनों , भावों के अकस्मात
ही एक साथ
जी लेने के उस दुष्प्रयत्न से ।
शायद उसमें दिखता हो जलमग्न
अहिल्या का भी जीवन स्वप्न
देख रहा हो राह
किसी अनहोनी लगते से
नायक का ।
सिंधु समान दृश्य चतुर्दिक
मध्य सिंधु में
एक स्वर्ण नौका दिखती
है जिसपर रखी एक कुरसी
या राजसिंहासन
उसपर श्वेत वसन वाले
कुछ देवपुत्र, समग्र हितकारी
लड़ते , गिरते , खोजते हुए
डूबती हुई उन आँखों के दर्पण में
परछाई , पानी में बहते
जाते सोने के टुकड़ों की
जिसका फ़िर गढ़कर राजमुकुट
वे बैठ सकें
फ़िर सिंहासन पर !
बूढ़ी सरिता भी सोच रही
अबकी धो डालूँ
सारे टुकड़े सोने के
जिनसे शायद फ़िर कभी न बन पाये
कोई भी राजमुकुट
औ' स्वप्न कभी भी
बनने ना पाये पत्थर !
-आलोक शंकर
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
आपकी लेखनी को नमन !
बड़ी शानदार कविता है वैसे जिस कविता को समझने में थोड़ी मशक्कत करना पड़े वह अच्छी ही लगती है मुझे और आपके संस्कृटनिष्ट शब्दों के कारण हमेशा ही दिक्कत होती है पर कविता मे जान भी इन्ही के कारण आती है |
पहली बार में तो बड़ी उलझी हुई सी लगी कविता पर 2-3 बार पढ़ने से कुछ-कुछ समझ पाया हूँ जितना समझा उस हिसाब से अदभुत ही कह सकता हूँ |
क्या बात है !
"अगर आँखें होतीं उसकी भी
तो शायद दिखती
फ़िर वही डूबती
हुई चमक पथराई सी ।"
इन पंक्तियों के बारे मे संशय है कि जो समझ रहा हूँ उसका अर्थ वही है या कुछ और !
"वह एक प्रस्तरी चमक
बनी जो ऊर्जा या सपनों , भावों के अकस्मात
ही एक साथ
जी लेने के उस दुष्प्रयत्न से ।"
अंत बड़ा लाजवाब है
"बूढ़ी सरिता भी सोच रही
अबकी धो डालूँ
सारे टुकड़े सोने के
जिनसे शायद फ़िर कभी न बन पाये
कोई भी राजमुकुट
औ' स्वप्न कभी भी
बनने ना पाये पत्थर ! "
धन्यवाद एक शानदार कविता के लिए..........
आलोक जी
बहत सुन्दर लिखा है । विशेष रूप से मुझे ये पंक्तियाँ अच्छी लगी-
"बूढ़ी सरिता भी सोच रही
अबकी धो डालूँ
सारे टुकड़े सोने के
जिनसे शायद फ़िर कभी न बन पाये
कोई भी राजमुकुट
औ' स्वप्न कभी भी
बनने ना पाये पत्थर ! "
आप निश्चय ही बधाई के अधिकारी हैं ।
आलोक जी..
क्या बात है... भाई बधाई हो..
रचना की सजीव कल्पना को नमन..
शब्द , शिल्प..भाव..सब कुछ सही और प्रशंशनीय हैं..
पूरी रचना ने प्रभावित किया है..
किसी भी एक पँक्ति की प्रशंशा करके मैं पूरी कविता का अपराधी नहीं बनना चाहता..
बहुत बहुत अभार
आलोक जी,
्बहुत सुन्दर! क्या बात कही है-
बूढ़ी सरिता भी सोच रही
अबकी धो डालूँ
सारे टुकड़े सोने के
जिनसे शायद फ़िर कभी न बन पाये
कोई भी राजमुकुट
औ' स्वप्न कभी भी
बनने ना पाये पत्थर !
बधाई स्वीकारें।
विपुल जी की ही तरह मुझे भी इस कविता को समझने मे waqt लगा, कुछ उलझी हुई जरूर है मगर प्रभावी भी, दर्द से भर जाती है जब -
बूढ़ी सरिता भी सोच रही
अबकी धो डालूँ
सारे टुकड़े सोने के
जिनसे शायद फ़िर कभी न बन पाये
कोई भी राजमुकुट
औ' स्वप्न कभी भी
बनने ना पाये पत्थर !
वह सुंदर
आलोक जी,
आपके पास निश्चय ही प्रभावशाली शब्दों एवं गहरे भावों का भण्डार है। लेकिन मुझे लगता है कि जो बात आसान शब्दों में कही जा सके, उसे कहने के लिए क्लिष्ट शब्दों या अति-घुमावदार कथनों का प्रयोग करना एक आवरण की तरह है, जो कविता को आम पाठक के लिए अरुचिकर और दुरूह बना देता है। यदि आपका उद्देश्य पाठक तक अपनी बात पहुँचाना रहा है तो उसमें आप काफी पीछे रह गए हैं।
सत्य कहूँ तो मुझे यह कविता कुछ अधिक समझ नहीं आई। वैसे यह मेरी अल्पज्ञता अथवा अज्ञानता के कारण भी हो सकता है।
कविता एक आम पाठक को बाँधे रखने में असमर्थ है। आशा है कि आप मेरी बात को अन्यथा नहीं लेंगे।
fantastic...
kuch samay laga samajhne main...par anth mein mila ...sirf anaand, aur nikli... aah ...
बूढ़ी सरिता भी सोच रही
अबकी धो डालूँ
सारे टुकड़े सोने के
जिनसे शायद फ़िर कभी न बन पाये
कोई भी राजमुकुट
औ' स्वप्न कभी भी
बनने ना पाये पत्थर !
बहुत सुंदर लिखा है आलोक जी बधाई !!
गौरव, सबसे बड़ी बात यह है कि मैनें कविता को नहीं लिखा , कविता ने खुद को लिखा है ।
आलोक जी!
एक और सुंदर कविता के लिये आभार! यद्यपि मैं आपकी इस बात से सहमत हूँ कि प्राय: कविता ही खुद को लिखती है, परंतु कोशिश करें कि बिम्ब अधिक क्लिष्ट न हो जायें.
आलोक,
आप हमेशा की तरह प्रभावशाली हैं, मैं हमेशा से मानता हूँ कि आपने हिन्द युग्म के स्तर को पराकाष्ठा प्रदान करने में अपनी कलम से महत्वपूर्ण योगदान दिया है।
फिर भी मैं गौरव से अपनी सहमति जाहिर करूंगा। इसका एक महत्वपूर्ण कारण मैं आज के समय को मानता हूँ।मास और क्लास के लिये लिखी जानी वाली कृतियों में क्या फर्क है, यहाँ दृष्टिगोचर होता है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अगर आँखें होतीं उसकी भी
तो शायद दिखती
फ़िर वही डूबती
हुई चमक पथराई सी ।
बूढ़ी सरिता भी सोच रही
अबकी धो डालूँ
सारे टुकड़े सोने के
जिनसे शायद फ़िर कभी न बन पाये
कोई भी राजमुकुट
औ' स्वप्न कभी भी
बनने ना पाये पत्थर !
भाव समग्र रूप से प्रेषित हुए हैं।आप हिन्द-युग्म पर दिनकर जी और निराला जी को जीवित रखे हुए हैं। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं। अगली बार ऎसी हीं किसी रचना की प्रतीक्षा रहेगी।
छंदमुक्त कविता का निर्वाह कठिन है.
आलोक जी, आपके बिंब अच्छे थे, पर कथन में अस्पष्टता है. कविता और काफ़ी मेहनत माँगती थी.
छंदमुक्त कविता का निर्वाह कठिन है.
आलोक जी, आपके बिंब अच्छे थे, पर कथन में अस्पष्टता है. कविता और काफ़ी मेहनत माँगती थी.
कविता बड़ी मंथर लय से प्रारंभ होती है. आप प्रारंभिक वर्णन बड़े विस्तार से करते हैं,पर बीच-बीच में कथ्य को आगे बढ़ाने की लिये झटके से आगे बढ़ जाते हैं.जैसे-
तभी, गिरी दीवार अधमरी
जल की गोद लिपट सोने को,
मरी लता बेमौत...
मैं राजीव जी के maas vs class वाली टिप्पणी से सहमत नहीं हूँ. यह 'क्लास' के लिये तो नहीं है.
कठोर बात कहने के लिये क्षमा करें. मेरा लक्ष्य मात्र आपकी ऊर्जा को सफलता की ओर केंद्रित करना है.
पुनः क्षमायाचना सहित
शिशिर
२ दिन पहले इसे पढ़ा तो पूरी तरह समझ में नहीं आई थी। अज्ञेय की कविताएँ भी बिलकुल ऐसी ही होती थी। उन्हें समझने हेतु या तो कई बार पढ़ना होता है या तो किसी मर्मज्ञ का सानिध्य चाहिए होता है। मैंने 'कई बार' का चयन किया। आखिर समझ में आई। मुझे कहना चाहिए कि आप शब्दों की कीमत जानते हैं, उनकी महिमा जानते हैं। बिहार राज्य में हर साल की बाढ़ और स्वप्नों के साथ इसी तरह से डूबती आँखें, मददगारों के सजते घर को कविता की पृष्ठभूमि के रूप में चुनना आपको सार्थक कवि के रूप में स्थापित करता है।
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