1.
अपनी हथेली से मेरा चेहरा यूँ थामते थे तुम,
जैसे बूंदी के लड्डू गढ रहा हो कोई हलवाई।
तुमने हाथ जो हटाया तो बिखर गए टुकड़े॥
२.
मौत की ताबीज बाँटते फिरे हैं तेरे बंदे,
जिंदगी की एक फूंक बस मार दे, ऎ खुदा!
चुप रहा तो एक फूंक हीं काफी है तेरे लिए॥
३.
यूँ फुर्सत से जीया कि अख्तियार ना रहा,
कब जिंदगी मुस्कुराहटों की सौतन हो गई।
आदतन अब भी मुझे दोनों से इश्क है॥
४.
गुमसुम जबां का रूख हो , आँखें हीं कुछ कहे,
मोहब्बत की लंबी उम्र इन्हीं रास्तों पर है।
नफरत में लोग खुद को भी देखते नहीं ॥
५.
ईमान का एक घाव जो सीने में हो चला ,
हाकिम ने मर्ज कहकर दफ्तर से छुट्टी दे दी।
रीसता है अब मवाद साँसों के रास्ते मे ॥
६.
अंदर हीं अंदर गम को उबालता हूँ ताकि
जीने के हौसले को उफान मिल सके ।
"बिग बैंग" से दुनिया निकली थी इस तरह हीं॥
७.
अब आता-जाता दिन है इस भांति मेरे घर में,
मानो मदरसे में कोई "अलिफ-बे" रट रहा हो।
बस वक्त काटने को झुकता है, उठ जाता है ॥
८.
कभी रात ढले आसमां का रंग देखना,
दिन भर तो रौशनी के ढकोसले होते हैं।
पानी-सा रंग लिए वो पानी-पानी मिलेगा।
९.
मेरी जिस बात पर बिगड़ जाती है जिंदगी,
जी लेने को मैं फिर वो बात मोड़ देता हूँ।
हूँ जानता "यू टर्न" पर हीं फैसले होते हैं।
१०.
इस कदर इश्क ने जुल्म किया हम पर,
मुझसे मिलने वो खुदा के दर तक आ गए।
पता घर का दिया था, खुदा का तो नहीं ॥
११.
तुझे कुछ न भाता मेरा, मुझे कुछ न भाता तेरा,
यही खासियत थी जोड़े हम दोनों को सारी उम्र ।
मैं मौत मांगता रहा और तूने जिंदगी दे दी ॥
१२.
मकबूल जो हुए वो , खुद को हीं खो दिए,
दर से जुदा हुए थे, अब रिश्तों से भी गए।
है पेचीदा दास्तां कितनी इंसां के नाम की ॥
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
तन्हा जी,
त्रिवेणियाँ अच्छी बन पड़ी हैं। अनुभव ने शब्दों का रूप ले लिया है।
तुझे कुछ न भाता मेरा, मुझे कुछ न भाता तेरा,
यही खासियत थी जोड़े हम दोनों को सारी उम्र ।
मैं मौत मांगता रहा और तूने जिंदगी दे दी ॥
मकबूल जो हुए वो , खुद को हीं खो दिए,
दर से जुदा हुए थे, अब रिश्तों से भी गए।
है पेचीदा दास्तां कितनी इंसां के नाम की ॥
ये दोनों काफ़ी पसंद आए।
तनहा जी
बहुत ही सुन्दर लिखा है । मुझे गज़ल की ये पंक्तियाँ विशेष पसन्द आई-
तुझे कुछ न भाता मेरा, मुझे कुछ न भाता तेरा,
यही खासियत थी जोड़े हम दोनों को सारी उम्र ।
tanha ji dariye mat aapne bhi bahut achha prayas kiya hai abhi to in men kuch chuni ja sakti hai yah kahkar ki adhik achhi hai par dheere dheere aap pathakon ko is kaam ke liye bhi pareshani men daal denge aisa mujhe vishwaas hai
jo mujhe adhik bhayi wo yeh hain-
अंदर हीं अंदर गम को उबालता हूँ ताकि
जीने के हौसले को उफान मिल सके ।
"बिग बैंग" से दुनिया निकली थी इस तरह हीं॥
७.
अब आता-जाता दिन है इस भांति मेरे घर में,
मानो मदरसे में कोई "अलिफ-बे" रट रहा हो।
बस वक्त काटने को झुकता है, उठ जाता है ॥
८.
कभी रात ढले आसमां का रंग देखना,
दिन भर तो रौशनी के ढकोसले होते हैं।
पानी-सा रंग लिए वो पानी-पानी मिलेगा।
९.
मेरी जिस बात पर बिगड़ जाती है जिंदगी,
जी लेने को मैं फिर वो बात मोड़ देता हूँ।
हूँ जानता "यू टर्न" पर हीं फैसले होते हैं।
तुझे कुछ न भाता मेरा, मुझे कुछ न भाता तेरा,
यही खासियत थी जोड़े हम दोनों को सारी उम्र ।
मैं मौत मांगता रहा और तूने जिंदगी दे दी ॥
बहुत ही खुबसुरत लिखा है तन्हा जी आपने ..यह विधा मुझे हमेशा ही बहुत अच्छी लगी है बहुत कोशिश के बाद भी मैं
इस पर लिख नही पायी सही ढंग से ..:)
आपकी लिखी यह पंक्तियां बहुत ही अच्छी लगी
गुमसुम जबां का रूख हो , आँखें हीं कुछ कहे,
मोहब्बत की लंबी उम्र इन्हीं रास्तों पर है।
नफरत में लोग खुद को भी देखते नहीं ॥
बधाई !!!
वाह!
शब्द-शिल्पीजी आपकी सभी त्रिवेणियाँ कमाल की है, भावपूर्ण, मज़ेदार... दिल को छू लेने वाली... कल ही विपुलजी नें भी त्रिवेणियों में हाथ मारा है, लगता है क्षणिकाओं के बाद अब युग्म पर त्रिवेणियाँ छायेगीं ;)
तुझे कुछ न भाता मेरा, मुझे कुछ न भाता तेरा,
यही खासियत थी जोड़े हम दोनों को सारी उम्र ।
मैं मौत मांगता रहा और तूने जिंदगी दे दी ॥
भारतीय जीवन से जुड़ी एक कड़वी सच्चाई, कमाल का लिखा है आपने, बधाई!!!
~~मकबूल जो हुए वो , खुद को हीं खो दिए,
दर से जुदा हुए थे, अब रिश्तों से भी गए।
है पेचीदा दास्तां कितनी इंसां के नाम की ॥~~
दीपक !!!
बहुत ही सही त्रिवेणि कि रचना कि है आपने.....बहुत ही बेहतरीन ढंग से आपने भाव को प्रस्तुत किया है........
####तुझे कुछ न भाता मेरा, मुझे कुछ न भाता तेरा,
यही खासियत थी जोड़े हम दोनों को सारी उम्र ।
मैं मौत मांगता रहा और तूने जिंदगी दे दी ॥#####
कभी रात ढले आसमां का रंग देखना,
दिन भर तो रौशनी के ढकोसले होते हैं।
पानी-सा रंग लिए वो पानी-पानी मिलेगा।
...........................
बहुत अच्छी लगी ये......
दीपक जी
कमाल लिखा है आप ने..
हर त्रिवेणी ने मन को मुदित किया है..
बहुत खूब मित्र
बहुत बहुत बधाई..
आभार
विश्वा दीपक जीं,
अंदर हीं अंदर गम को उबालता हूँ
ताकि जीने के हौसले को उफान मिल सके ।॥
"बिग बैंग" से दुनिया निकली थी इस तरह
जिस बात पर बिगड़ जाती है जिंदगी,
जी लेने को मैं फिर वो बात मोड़ देता हूँ।
हूँ जानता "यू टर्न" पर हीं फैसले होते हैं।
वाह-वाह..लाजवाब रचना है.......मान गए आपको.........."बिग बैंग " और यु-टर्न तो दिमाग पर बैठ गए हैं.........
उम्दा रचना के लिए बधाई.......आप भी मेरे पसंदीदा हिंदयुग्म रचनाकारों में शुमार हो गए.......
निखिल
आप एक परिपक्व कवि हो चुके हैं तन्हा जी।
अब किसी भी विधा में आप हाथ आजमाएँ, सोना निकाल ही लाते हैं। बात चाहे गज़ल की हो या त्रिवेणी की।
अंदर हीं अंदर गम को उबालता हूँ ताकि
जीने के हौसले को उफान मिल सके ।
"बिग बैंग" से दुनिया निकली थी इस तरह हीं॥
कभी रात ढले आसमां का रंग देखना,
दिन भर तो रौशनी के ढकोसले होते हैं।
पानी-सा रंग लिए वो पानी-पानी मिलेगा।
मेरी जिस बात पर बिगड़ जाती है जिंदगी,
जी लेने को मैं फिर वो बात मोड़ देता हूँ।
हूँ जानता "यू टर्न" पर हीं फैसले होते हैं।
इस कदर इश्क ने जुल्म किया हम पर,
मुझसे मिलने वो खुदा के दर तक आ गए।
पता घर का दिया था, खुदा का तो नहीं ॥
तुझे कुछ न भाता मेरा, मुझे कुछ न भाता तेरा,
यही खासियत थी जोड़े हम दोनों को सारी उम्र ।
मैं मौत मांगता रहा और तूने जिंदगी दे दी ॥
भावों की अद्वितीय अभिव्यक्ति आपने दी है। नए बिम्ब और उनका सुन्दर प्रयोग तो कोई आपसे सीखे। आपसे बहुत सा सीखने को मिलता है।
मेरी जिस बात पर बिगड़ जाती है जिंदगी,
जी लेने को मैं फिर वो बात मोड़ देता हूँ।
हूँ जानता "यू टर्न" पर हीं फैसले होते हैं।
तन्हा जी आप अपनी विविधता में हर बार एक नया आयाम जोड़ देते हैं , इस बार भी आप छा गये ।
अपनी हथेली से मेरा चेहरा यूँ थामते थे तुम,
जैसे बूंदी के लड्डू गढ रहा हो कोई हलवाई।
तुमने हाथ जो हटाया तो बिखर गए टुकड़े॥
बहुत अच्छा है और , सभी में कवि का दिल ही नहीं दिमाग भी लगा है लगता है कि त्रिवेणी महोत्सव आरंभ हुआ ।
अच्छी त्रिवेणियां है। बधाई,
लगे रहिऐ
वाह-वाह! वाह-वाह!
कुछ नहीं कहूँगा..... अभी त्रिवेणियों के संगम मे डूबकी लगाने मे व्यस्त हूँ।
सस्नेह,
श्रवण
तनहा जी.
त्रिवेणी पर आपकी कलम सधी हुई है। इस विधा के बहुत गुणी या जानकार अभी नहीं है, इसे आप अपना समय और अध्ययन प्रदान करें जिससे इसकी पहचान बन सके। आपकी कलम से मुझे यह अपेक्षा है।
प्रस्तुत त्रिवेणियों के लिये बहुत बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
तन्हा जी!
प्रथम प्रयास के लिहाज़ से सभी त्रिवेणियाँ बहुत अच्छी हैं. कुछ पाठक को सचमुच ही सोचने पर मज़बूर करतीं हैं. बधाई!
nice effort kaviji.. really liked the "triveni"s and thanks for telling me what they mean..
my favorite of the 12:-
"तुझे कुछ न भाता मेरा, मुझे कुछ न भाता तेरा,
यही खासियत थी जोड़े हम दोनों को सारी उम्र ।
मैं मौत मांगता रहा और तूने जिंदगी दे दी ॥
तन्हा जी,
आपकी मैं इस बात की प्रसंशा करूँगा कि आपने बेहद कठिन विधा में भी लिखने का बेड़ा उठाया। मैं त्रिवेणियों को पढ़कर यह तो समझ जाता हूँ कि यह त्रिवेणियाँ हैं, मगर खुद लिखने की हिम्मत नहीं कर पाता।
हो सकता है कि आपकी इन त्रिवेणियों में कुछ उस श्रेणी में आती हों, कुछ न आती हों। मगर भावों की दृष्टि से सभी उत्तम हैं। और प्रयोग की बात करें तो आपने 'बिग-बैंग' और 'यू-टर्न' का खूबसूरत इस्तेमाल किया है।
मुझे यह बहुत पसंद आई-
कभी रात ढले आसमां का रंग देखना,
दिन भर तो रौशनी के ढकोसले होते हैं।
पानी-सा रंग लिए वो पानी-पानी मिलेगा।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)