दीवारों,
दरवाज़ों,
खिड़कियों,
तुम सब क्यों नहीं बने,
कभी कोई वज़ह
किसी कविता को लिखने की?
तुम ‘उस’ से तो ज्यादा ही ज़िन्दा थे;
तुम्हें शायद दर्द भी महसूस होता था मेरा,
जब ट्रेन के गुजरने पर
दीवारें काँपती थीं,
या तेज हवा से भड़भड़ाते थे
दरवाजे, खिड़कियाँ,
घूमता हुआ पंखा
मौन हो जाता था अचानक
बिजली गुल हो जाने से,
और ये फ़ोन,
जिसे सब बेजान कहते हैं,
इसपर बेवज़ह
राँग नम्बर मिल जाते थे,
जब मैं उदास होता था,
ये कुर्सी कोशिश करती थी
बात करने की,
आँगन का नीम
कूकता था कोयल की तरह,
शायद ख़ुद ही,
मेरे पलंग की चादर
सरसराती थी हवा में,
बताती थी
कि सब चल रहा है
पहले की तरह,
टेलीविज़न पर ख़बरें आती थीं
कि बम फटा है
और लोग मर रहे हैं तेजी से,
या आती थी नाचती हुई तस्वीरें
और गीत गाती फ़िल्में,
जिन्हें कारण की जरूरत नहीं होती थी,
नाचने या गीत गाने के लिए,
मेज पर रखी किताबें भी
अकारण ही
नीचे गिर जाती थीं,
हर उदास कविता लिखते समय
कलम काँपकर
छूट जाना चाहती थी मेरे हाथों से,
बिना रुत के
बादल छा जाते थे,
बरसते थे शहर भर पर घंटों तक,
मेरा दिल बहलाने को,
तुम सब कितने बेचैन
हो जाते थे ना
और लगे रहते थे,
मुझे सामान्य करने के प्रयास में,
जब भी मैं उदास होता था;
दीवारों, दरवाजों, खिड़कियों,
पंखों, फ़ोन, कुर्सियों,
नीमों, पलंगों, चादरों,
टेलीविज़न, मेज, किताबों,
कलम, बादलों,
कौन कहता है
कि तुम ज़िन्दा नहीं हो,
’उस’ से लाख गुना ज्यादा जान है तुममें,
मगर मैंने
सैंकड़ों पन्ने
’उस’ पर काले किए
और तुम्हारे लिए
कभी कुछ नहीं लिखा,
तुमने तो
बिना किए सब वादे निभाए,
दुख देने
कभी खुशियों के बीच याद न आए,
मैं कृतघ्न हूँ
और बहुत स्वार्थी भी,
या पागल हो गया हूँ,
किसी तलाश में बहुत खो गया हूँ,
क्षमा करना,
तुम सब ज़िन्दा ही हो,
सरफिरे लोग तो
पत्थरों की कहानी ही लिखेंगे ना।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
22 कविताप्रेमियों का कहना है :
kavita ka ek pattern hota hai ek laya ek taal isme shak nahi ki vichaar achhe hain lekin gadyatmk hain
बहुत ही खूबसूरत पक्तियॉं रची है आपने। मूकों के लिये आमूक का प्रयोग उत्तम है।
बिना किए सब वादे निभाए,दुख देनेकभी खुशियों के बीच याद न आए,मैं कृतघ्न हूँऔर बहुत स्वार्थी भी,या पागल हो गया हूँ,किसी तलाश में बहुत खो गया हूँ,।ये पंक्तिया कुछ खास लगी ।
गौरव कविता अच्छी लगी । जिन निर्जीव चीजों से साधारणीकरण किया एक अपनापन महसुसा वो इसे अलग रुप देता है।
प्रिय गौरव जी,
बधाई स्वीकारें...
बहुत अच्छी रचना है.. सजीव ओर निर्जीव के बीच तुलनात्मक दृश्टिकोण अनूठा बन पडा है..
धन्यवाद
मैं कृतघ्न हूँ
और बहुत स्वार्थी भी,
या पागल हो गया हूँ,
किसी तलाश में बहुत खो गया हूँ,
क्षमा करना,
तुम सब ज़िन्दा ही हो,
सरफिरे लोग तो
पत्थरों की कहानी ही लिखेंगे ना।
गौरव, यह उदाहरण बन सकने वाली कविता है। तुम्हारी गहरी सोच से एक नितांत परिपक्व रचना बन पडी है। बहुत बधाई तुम्हें...
*** राजीव रंजन प्रसाद
मैं कृतघ्न हूँ
और बहुत स्वार्थी भी,
या पागल हो गया हूँ,
किसी तलाश में बहुत खो गया हूँ,
क्षमा करना,
तुम सब ज़िन्दा ही हो,
सरफिरे लोग तो
पत्थरों की कहानी ही लिखेंगे ना।
बहुत हीं सुंदर रचना है सोलंकी जी। न्रिर्जीव वस्तुओं का उदाहरण देकर तुमने सजीव प्रियतमा से जो खुन्नस निकाला है , वह दिल को भा गया। ऎसे हीं लिखते रहें। बस मुझे लगा कि कविता थोड़ी लंबी हो गई है। इसका म्तलब य्ह नहीं है कि बोझल है। बस परिमाण ज्यादा है , इसे संभाल सकते थे आप।
आपकी अगली रचना की प्रतीक्षा में-
विश्व दीपक 'तन्हा'
सोलंकी जी इसमे कोई शक नहीं की आपने बहुत ही सुंदर कविता लिखी है
पर पता नही क्यो बीच मे मुझे भाव कुछ सुस्त होते जान पड़ते है
शायद ये मेरी नासमझी हो
.........नासमझी ही होगी
बढ़ाई स्वीकरेंvvvv
गौरव जी!
कविता अच्छी लगी. हाँ, कुछ लम्बी ज़रूर है. बधाई!
Hi Gaurav , bahut acha likha tumne bilkool dil ko touch ho gaya.itni choti age mey itna acha likhna not easy..........u r true artist.
bahut sundar gaurav har baar ki tarah is baar bhi tum meri ummedon par khare utare ho. kaise kar pate ho tum aisa ? leek se hat kar kahunga ise
गौरव जी,
आपके कहने का अंदाज़ दिल को भा गया।
दीवारों, दरवाजों, खिड़कियों,
पंखों, फ़ोन, कुर्सियों,
नीमों, पलंगों, चादरों,
टेलीविज़न, मेज, किताबों,
कलम, बादलों,
कौन कहता है
कि तुम ज़िन्दा नहीं हो,
सरफिरे लोग तो
पत्थरों की कहानी ही लिखेंगे ना।
साधारण शब्दों के प्रयोग से आपने असाधारण बात सफलतापूर्वक कह दी है। बधाई।
’उस’ से लाख गुना ज्यादा जान है तुममें
गौरव जी,
क्षमा करेन्गे ये पंक्ति गल्ती से नीचे विस्थापित होगयी है-
’उस’ से लाख गुना ज्यादा जान है तुममें
इसे उपयुक्त स्थान पर ही समझा जाए।
अतुकान्त होते हुए भी आपकी कविता हृदयस्पर्शी है. छ्हंदमुक्त कविता का निर्वाह कठिन है, पर आपने इतनी सशक्त भावना के साथ लिखा है कि उसका निर्वाह आप अधिकाँश स्थलों पर कर ले गये हैं.
निम्न पंक्तियाँ विशेष पसंद आईं -
जब मैं उदास होता था,
ये कुर्सी कोशिश करती थी
बात करने की,
आँगन का नीम
कूकता था कोयल की तरह,
शायद ख़ुद ही,
मेरे पलंग की चादर
सरसराती थी हवा में,
बताती थी
कि सब चल रहा है
पहले की तरह,
टेलीविज़न पर ख़बरें आती थीं
कि बम फटा है
और लोग मर रहे हैं तेजी से,
या आती थी नाचती हुई तस्वीरें
और गीत गाती फ़िल्में,
जिन्हें कारण की जरूरत नहीं होती थी,
नाचने या गीत गाने के लिए,
मेज पर रखी किताबें भी
अकारण ही
नीचे गिर जाती थीं,
हर उदास कविता लिखते समय
कलम काँपकर
छूट जाना चाहती थी मेरे हाथों से,
बिना रुत के
बादल छा जाते थे,
बरसते थे शहर भर पर घंटों तक,
मेरा दिल बहलाने को,
तुम सब कितने बेचैन
हो जाते थे ना
और लगे रहते थे,
मुझे सामान्य करने के प्रयास में,
जब भी मैं उदास होता था...
बहुत ही सुन्दर रचना लगी
गौरव बहुत अच्छी रचना है.. बधाई
गौरव जी,
ये क्या लिख दिया??? सिर्फ यह कहना कि दिल को छु गयी, ना-इंसाफी होगी, शब्द ही नही मिल रहे हैं कुछ कहने के लिये.. आपकी सोच.. जिसका कोई मिसाल ही नही.. बहुउत बढिया :)
I have learnt Hindi in my school days as a compulsory subject (National Language). My first link is Marathi which has the same script (lipee) DEVANAAGARI as Hindi. This meak background doesn't qualify me to comment on poetry.
In fact, all I wish to do is to stay in touch with young ticking minds.
I had heard an Urdu peom, "MERAY MEHBOOB MUJH SE PEHLEE SEE MUHOBBAT NAA MAANG..."
Commenting on poem is not even like PEHLEE SEE MUHOBBAT, hence what could I say?
False words of appreciation?
Please pardon me, though I shall keep on reading the HINDI YUGM pages off & on.
vidyut
really a touching poem...kain baar aisa lagta hai ki ye bejaan cheeje zinda logo se kahin behatar hain...dil nahi todti , aanso nahi deti, akela chhod kar kahin nahi jaati....
very gud effort...
गौरव जी,
बेजान वस्तुओं का मानवीकरण करना सरल है लेकिन आपने उनमें जिस प्रकार से जान फूँकी है, वो प्रसंशनीय है। अकविता को सुंदर बनाने वालों में आपका नाम भी आगे आयेगा, ऐसा मेरा विश्वास है।
wow ach hai
ruyhjgkkll;..//.jnnnnnnnnuuuuuuuuuuuuuukm,
papuu.sharma595@gmail.com chat me open
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