प्यार की मेरी रीत थी, उनकी थी वे मस्तियाँ
बस बदन के नाम पर कब तक टिकेंगी बस्तियाँ
वो जो कह दे तो अभी सारी दुनिया जीत लाऊँ,
उसकी हसरत कुछ नहीं तो व्यर्थ हैं सब शक्तियाँ
बेवफाई आदत बनाई, वो बहुत होशियार था,
आशिकों की डूबती हैं, हर नदी में कश्तियाँ
शीशे से मैं था बना, वो पत्थरों का दौर था,
तब के फूलों में घुली थी पर्वतों की सख्तियाँ
थे जड़ों में जो गड़े और बरगदों से भिड़ पड़े,
उन अभागों को मिली थी बाग़ियों की तख्तियाँ
जुबां के मोल मिल गई थी सबको मुस्कुराहटें,
आज़ाद थे खुश लोग सारे, कैद थी अभिव्यक्तियाँ
एक बहुत मासूम बेटी रात भर बिकती रही
काम आई ना खुदाया, कितनी की थी भक्तियाँ
झीलों, झरनों के शहर में प्यास ही पीता रहा,
तृप्ति थी हराम मुझको, प्यास में थी मुक्तियाँ
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
वाह!
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल है गौरवजी, मज़ेदार!
प्यार की मेरी रीत थी, उनकी थी वे मस्तियाँ
बस बदन के नाम पर कब तक टिकेंगी बस्तियाँ
.
.
तब के फूलों में घुली थी पर्वतों की सख्तियाँ
.
.
आज़ाद थे खुश लोग सारे, कैद थी अभिव्यक्तियाँ
.
.
शब्दों का खूबसूरत प्रयोग, सुन्दर शिल्प, सुन्दर अभिव्यक्ति, बहुत-बहुत बधाई!!!
एक बहुत मासूम बेटी रात भर बिकती रही
काम आई ना खुदाया, कितनी की थी भक्तियाँ
कड़वा सच!
झीलों, झरनों के शहर में प्यास ही पीता रहा,
तृप्ति थी हराम मुझको, प्यास में थी मुक्तियाँ
अंतिम शे'र बहुत ही प्रभावशाली लगा, फिर से बधाई!
बहुत ही सुंदर रचना है गौरव जी ..आपका लिखा सदैव ही दिल को छू जाता है
बेवफाई आदत बनाई, वो बहुत होशियार था,
आशिकों की डूबती हैं, हर नदी में कश्तियाँ
....
झीलों, झरनों के शहर में प्यास ही पीता रहा,
तृप्ति थी हराम मुझको, प्यास में थी मुक्तियाँ
यह बहुत अच्छी लगी ....बधाई!
गौरवजी,
बहुत सुन्दर!
प्यार की मेरी रीत थी, उनकी थी वे मस्तियाँ
बस बदन के नाम पर कब तक टिकेंगी बस्तियाँ
एक बहुत मासूम बेटी रात भर बिकती रही
काम आई ना खुदाया, कितनी की थी भक्तियाँ
बहुत कुछ सोचने को विवश करते हैं ये शेर।
गौरव जी,
यहाँ भी आपने कमाल किया है।
"उसकी हसरत कुछ नहीं तो व्यर्थ हैं सब शक्तियाँ"
"शीशे से मैं था बना, वो पत्थरों का दौर था,
तब के फूलों में घुली थी पर्वतों की सख्तियाँ"
"थे जड़ों में जो गड़े और बरगदों से भिड़ पड़े,
उन अभागों को मिली थी बाग़ियों की तख्तियाँ"
"एक बहुत मासूम बेटी रात भर बिकती रही
काम आई ना खुदाया, कितनी की थी भक्तियाँ"
तुम्हारी कलम ही इतनी सुन्दर तरह से अभिव्यक्त हो सकती थी। वाह!!!
*** राजीव रंजन प्रसाद
kisee aparichit ko apna bana dene ka anu jo aapme asmita jama baitha he use hardik sneh....
pyar kee reet....kaid abhivyaktiyan...pyas me muktiyan...
mano seekha rahi ho...fefde me hawa bharkar kese hansa jata he...kese lada jata he unchaai ke hadon par thande mausam ke virrudhha....
bahut khuub
achhi lagee:-)
sunita
गौरव! बहुत अच्छा लिखा है आपने. यद्यपि अब भी कुछ छोटी-छोटी कमियाँ हैं मगर शुरुआत के लिहाज़ से ये कोई बहुत बड़ी बात नहीं. भाव-पक्ष के विषय में कुछ कहना व्यर्थ ही होगा क्योंकि यह तो सदा ही आपकी रचनाओं में श्रेष्ठ होता है. शिल्प की बात करें तो बहर में कुछ कमियाँ नज़र आतीं हैं. कहीं-कहीं यह कमी लय को भी अवरुद्ध करती जान पड़ती है. जैसे दूसरे शेर के पहले मिसरे में ’लाऊँ’ पर लय-भंग है. यहाँ दो मात्रायें अधिक हो गयीं हैं जो गति को रोकतीं हैं.
गज़ल का सातवाँ शेर भाव और शिल्प दोनों के हिसाब से मुझे बेहतरीन लगा.
एक अच्छी गज़ल के लिये बधाई और बेहतर के लिये शुभकामनायें!
प्रिय गौरव
बहुत सुन्दर गज़ल लिखी है । मज़ा आ गया । मुझे लगता है तुम्हे हर रोज अपनी एक
रचना भेजनी चाहिए । मूड बढ़िया हो जाता है । हिन्दी के साथ-साथ उर्दू पर भी तुम्हारी
पकड़ मज़बूत है । इसमें मुक्तक काव्य का भी आनन्द आगया ।
झीलों, झरनों के शहर में प्यास ही पीता रहा,
तृप्ति थी हराम मुझको, प्यास में थी मुक्तियाँ
खुदा तुम्हारी लेखनी में यही प्रभाव बनाए रखे । आशीर्वाद सहित
गौरव अजय जी की बातों से मैं भी सहमत हूँ, यक़ीनन भाव बेहद सुंदर और नवीन हैं, विशेषकर आखिरी नोट लाजवाब है -
झीलों, झरनों के शहर में प्यास ही पीता रहा,
तृप्ति थी हराम मुझको, प्यास में थी मुक्तियाँ
वाह बहुत सुंदर
वाह मज़ा आ गया ग़ौरवजी...हर एक शेर में कमाल किया है क्या कहूँ !
प्यार की मेरी रीत थी, उनकी थी वे मस्तियाँ
बस बदन के नाम पर कब तक टिकेंगी बस्तियाँ
शीशे से मैं था बना, वो पत्थरों का दौर था,
तब के फूलों में घुली थी पर्वतों की सख्तियाँ
और आख़िरी शेर के लिए तो मेरे पास शब्द ही नहीं हैं...
झीलों, झरनों के शहर में प्यास ही पीता रहा,
तृप्ति थी हराम मुझको, प्यास में थी मुक्तियाँ
बहुत बहुत बधाइयाँ ..
गौरव,
जब भी आपका लिखा पढता हूँ कुछ अलग सी ही लगती है, आपकी सोच जब कलम का साथ पकडती है तो कविता के रूप में जो परिणति सामने आती है उसके सौन्दर्य अभिभूत कर देने वाला होता है| बहुत सुन्दर लिखा अपेक्षानुरूप
प्रारम्भ बहुत प्रभावी है
"प्यार की मेरी रीत थी, उनकी थी वे मस्तियाँ
बस बदन के नाम पर कब तक टिकेंगी बस्तियाँ"
फिर उसके बाद हर शेर अच्छा बन पडा है
"शीशे से मैं था बना, वो पत्थरों का दौर था,
तब के फूलों में घुली थी पर्वतों की सख्तियाँ"
वाह!!!
"झीलों, झरनों के शहर में प्यास ही पीता रहा,
तृप्ति थी हराम मुझको, प्यास में थी मुक्तियाँ "
बहुत खूब
लिखते रहिये ऐसे ही
सस्नेह
गौरव शुक्ल
बार-बार पढ़ी गजल मैने,पर हर बार अंत मे खुदी रचयिता के नाम की पट्टी आँखें मलने को विवश कर देती थी। इसमे वो कुछ भी नही मिला,जिसके लिए इनकी रचनाएँ जानी जाती है।(या मै जितनी अपेक्षा करता हूँ।)
अपेक्षाकृत बड़े हल्के शेर बन पड़े हैं... कभी कभी तो यूँ लगा कि ’शीर्षक’ से शुरूआत की गई और गजल के भावो मे डूबने की जगह उससे मिलती जुलती तुकबन्दियाँ कर दी गई।
हाँ,एक जरूर वजनी है-
"थे जड़ों में जो गड़े और बरगदों से भिड़ पड़े,
उन अभागों को मिली थी बाग़ियों की तख्तियाँ"
मीटर और फुट की बात अब करने का ना अब प्रचलन है और ना ही कोई मतलब।
आपकी अगली गजल के इंतजार मे,
सस्नेह,
श्रवण
वाह! गौरवजी,
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ...
बहुत प्रभावशाली अभिव्यक्ति,
उसकी हसरत कुछ नहीं तो व्यर्थ हैं सब शक्तियाँ"
थे जड़ों में जो गड़े और बरगदों से भिड़ पड़े,
उन अभागों को मिली थी बाग़ियों की तख्तियाँ
"शीशे से मैं था बना, वो पत्थरों का दौर था,
तब के फूलों में घुली थी पर्वतों की सख्तियाँ"
"एक बहुत मासूम बेटी रात भर बिकती रही
काम आई ना खुदाया, कितनी की थी भक्तियाँ"
झीलों, झरनों के शहर में प्यास ही पीता रहा,
तृप्ति थी हराम मुझको, प्यास में थी मुक्तियाँ
बहुत-बहुत बधाई!!!
गौरव जी,
मैं तो आदत से मजबूर हूँ। अब चाहे इसकारण लोग मुझे कुछ भी समझें, लेकिन मैं तो मीटर ढूँढता हूँ। आपकी गज़्ल में कुछ शेर मीटर से भटके हैं। बाकी रदीफ, काफिर और मतला हर कुछ दुरूश्त है।भाव भी अच्छे हैं। कोई एक शेर उद्धृत नहीं करूँगा, नहीं तो वह गज़ल के साथ अन्याय होगा।
अच्छी गज़ल के लिए बधाई स्वीकारें।
गणपति पर्व पर हार्दिक शुभकामनायें!
गौरव, गौरव, गौरव!
इस गज़ल में कुछ मज़ा नहीं आया. दो शेर बड़े अच्छे लगे. एक-दो अर्द्धालियाँ भी बड़ी अच्छी बन पड़ी हैं, पर कुल् जमा मामला जम नहीं पाया. इसे और तराशिये, और चमकाइये.
आपकी क्षणिकायें तो कमाल हैं. इस विधा में भी आपको महारथ हासिल करते देर नहीं लगेगी.
विस्तृत विचार इस प्रकार हैं -
(1)
प्यार की मेरी रीत थी, उनकी थी वे मस्तियाँ
बस बदन के नाम पर कब तक टिकेंगी बस्तियाँ
(2)
वो जो कह दे तो अभी सारी दुनिया जीत लाऊँ,
उसकी हसरत कुछ नहीं तो व्यर्थ हैं सब शक्तियाँ
(3)
बेवफाई आदत बनाई, वो बहुत होशियार था,
आशिकों की डूबती हैं, हर नदी में कश्तियाँ
ऊपर वाले तीनों पद्यों में दूसरी पंक्ति तो अच्छी है, परंतु पहली न लय में बैठती है, न भाव माधुर्य में. ऐसा लगता है कि कवि के दिमाग में दूसरी सुंदर पंक्ति आ जाने पर उसने उसको जोड़ने के लिये जैसे-तैसे पहली पंक्ति बना ली.
शीशे से मैं था बना, वो पत्थरों का दौर था,
तब के फूलों में घुली थी पर्वतों की सख्तियाँ
थे जड़ों में जो गड़े और बरगदों से भिड़ पड़े,
उन अभागों को मिली थी बाग़ियों की तख्तियाँ
yaha do sher kamaal ke hai! Waah waah! doosaraa vaalaa to Dushyantkumaar ke star kaa hai!
cond...
...pichalee tippanee se jaaree...
dono hee panktiyaa bekaar hai-
जुबां के मोल मिल गई थी सबको मुस्कुराहटें,
आज़ाद थे खुश लोग सारे, कैद थी अभिव्यक्तियाँ
dono panktiyaa achchee hai -
एक बहुत मासूम बेटी रात भर बिकती रही
काम आई ना खुदाया, कितनी की थी भक्तियाँ
झीलों, झरनों के शहर में प्यास ही पीता रहा,
तृप्ति थी हराम मुझको, प्यास में थी मुक्तियाँ
झीलों kee bajaya झील kara lenge to maatraa kee galatee nahee raha jaayegee.
"तृप्ति थी हराम मुझको" सुनकर मज़ा नहीं आता... 'तृप्ति' बड़ा कोमल शब्द है, उसके साथ 'हराम' जैसा शब्द बिलकुल धक्का सा देता है.
एक बात और. ऊपर लिखी टिप्पणियों से लगता है कि लय, छंदों की बात करना लोग 'दकियानूसी' मानने लगे हैं. कुछ सुधी पाठकों के टिप्पणियाँ की भी तो डरते-डरते.
समझ में नहीं आता कि चंद स्वघोषित 'कवियों' के अधकचरे मापदंड पाठक क्यों अपना लेते हैं. पढ़ने वाले को हक़ है कि वो अच्छी रचना की माँग करे. कवि के लिये अपने कथ्य को साधना की आँच में पकाना बड़ा आवश्यक है. छंदों पर पकड़ रखने वाला यदि उनका अतिक्रमण करता है तो भी वह कविता के मर्म को समझता है - जैसे निराला - पर जिसका कविता से परिचय ही नहीं, वे (अ)कवि कुतर्क के माध्यम से अपना प्रचार चलाये रखते है, और सच्चा पाठक कविता को छोड़ देता है.
यदि कोई कहता है कि यह सब तो चौंकाने के लिये है, यह प्रयोगधर्मिता है, आदि, आदि; तो वह कहीं न कहीं जनमानस से दूर जा रहा है, क्योंकि अच्छा पढ़ने वाली जनता एक अच्छी रचना चाहती है, प्रयोग के नाम पर अधकचरा बकवास नहीं.
गौरव, इतनी लंबी बात इसलिये कहनी पड़ गयी, कि आपकी प्रतिभा कहीं सतही प्रशंसा की आकर्षक भूलभुलैया में कहीं खो न जाये. मेहनत की अभी ज़रूरत है, लगे रहो (मुन्नाभाई!)
शुभकामनाओं सहित
शिशिर
गौरव जी,
मैं भी इस बात से इत्तेफाक़ रखता हूँ कि ग़ज़ल के भाव भले अच्छे हों, पर इसमें प्रयुक्त 'बस्तियाँ, शक्तियाँ आदि' शब्द सुकून नहीं दे रहे हैं। मुझे लगता है शब्दों के चयन पर भी ध्यान देना आवश्यक है।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)