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Tuesday, September 11, 2007

न देखो, सच है वो, उसने कभी कपड़े नहीं पहने।




न देखो, सच है वो, उसने कभी कपड़े नहीं पहने।
वही कीमत कि जैसे हो, सुहागन लाश पर गहने।

फटे ही पाँव बो आया, पसीना कुछ बिबाई में
दिवाकर स्वर्ण बरसाये, मिला पत्थर खुदाई में
टपकते लार के बच्चे,..., कलेजा है कढाई में
नहीं फटता मरा अंबर, बडी हिम्मत ख़ुदाई में

बहुत है कर्ज, मर जाओ, सुकूं की नींद तो आये
है कम रस्सी, लटक जाओ, इसी फंदे में दो बहनें
न देखो, सच है वो, उसने कभी कपड़े नहीं पहने।

अगर आदम कहो तो जानवर गाली समझता है
जलाओ, लूट लो, नोंचो यही आखिर मनुजता है
कोई बच्ची की अस्मत रौंद कर गर्दन दबाता है
कोई उसका कलेजा फाड कर, बेखौफ खाता है

जिसे बोली नहीं आती, उसे जब वासना खाती
हया की आँख भर आती, दया इतिहास में दहने
न देखो, सच है वो, उसने कभी कपड़े नहीं पहने।

पिता लतखोर है, माँ घर में पोते ही की आया है
हर एक रावण का घर है, राम मेरे कैसी माया है
गला भाई का रेंता है, अगर आल्हा सुनाया है
बहुत अचरज में है धरती, दनुज आदम का जाया है

मरा है भ्रूण ही में राम, यह नूतन कहानी है
जलाते दशरथों को हम, जमाने तेरे क्या कहने
न देखो, सच है वो, उसने कभी कपड़े नहीं पहने।


मशालों जलो, आग ही आग हो, राख हो, खाख़ हो
ज्वाल के मुख फटो, आग की बन नदी बह चलो
आँधियों बढ़ चलो, सागरो अब उबल भी पडो
खत्म हो सब यहाँ, “चुप” रहे, गढ़ चलो, बढ़ चलो

हो नयी फिर सुबह, लाल हों कोंपलें, अंकुरें हों नयी
खेत ही खेत को चाहिये साथियों परबत ढ़हने
न देखो, सच है वो, उसने कभी कपड़े नहीं पहने।

*** राजीव रंजन प्रसाद
10.09.2007


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14 कविताप्रेमियों का कहना है :

Anonymous का कहना है कि -

बहुत अच्‍छी कविता। भई, बधाई हो। अरसा बाद एक लय ने अपने कहन से स्‍तब्‍ध कर दिया। छंद की अपनी कारीगरी का ऐसे ही इस्‍तेमाल कीजिए, राजीव भाई।

SahityaShilpi का कहना है कि -

राजीव जी!
गीत का आरंभ बहुत ही सुंदर है. सटीक शब्द-संयोजन भावों को और भी ऊँचा उठाता है. यदि यही गति अंत तक रहती तो यह एक कालजयी कृति होती. परंतु कविता के अंत, विशेषकर चौथे पद में लयात्मकता कुछ कम होती लगती है जबकि यहीं अधिकतम गति की आवश्यकता है. हाँ, भाव के स्तर पर पूरा गीत बहुत ही उत्कृष्ट कोटि का है.

Gaurav Shukla का कहना है कि -

राजीव जी,

सिहरन सी हो रही है, बहुत भयानक सच लिख दिया है आपने तो
आपके संवेदनशील हृदय में जन्मी घोर व्यथा को एक बार फिर आपकी सशक्त लेखनी ने साकार कर दिया है
कविता को पढते हुये पैशाचिक समाज के प्रति आक्रोश उठता है कभी, तो कभी निरीह व्यवस्था पर दया आती है
कभी कुछ पंक्तियाँ मनस को चीरती चली जाती हैं, तो कभी कुछ भी न कर पाने के लिये शर्मिन्दगी भी होती है

अद्भुत

"न देखो, सच है वो, उसने कभी कपड़े नहीं पहने"

पहली ही पंक्ति किसी तमाचे जैसी है जिसे अगली पंक्ति स्तब्ध कर देती है
"वही कीमत कि जैसे हो, सुहागन लाश पर गहने"

"फटे ही पाँव बो आया, पसीना कुछ बिबाई में"
"नहीं फटता मरा अंबर, बडी हिम्मत ख़ुदाई में"

"बहुत है कर्ज, मर जाओ, सुकूं की नींद तो आये
है कम रस्सी, लटक जाओ, इसी फंदे में दो बहनें"

सभी पक्तियाँ इतनी सजीव हैं कि रोंगटे खडे हो जाते हैं

"अगर आदम कहो तो जानवर गाली समझता है"

"बहुत अचरज में है धरती, दनुज आदम का जाया है
मरा है भ्रूण ही में राम, यह नूतन कहानी है
जलाते दशरथों को हम, जमाने तेरे क्या कहने"

"हो नयी फिर सुबह, लाल हों कोंपलें, अंकुरें हों नयी"
आमीन

अनुपम, मर्मस्पर्शी, संवेदित करने वाली रचना
ऐसे अद्भुत काव्य रचे जाने चाहिये, आपकी लेखनी जो कार्य कर रही है उसके लिये आपको सादर नमन

सादर
गौरव शुक्ल

रंजू भाटिया का कहना है कि -

कोई बच्ची की अस्मत रौंद कर गर्दन दबाता है
कोई उसका कलेजा फाड कर, बेखौफ खाता है
जिसे बोली नहीं आती, उसे जब वासना खातीहया की आँख भर आती, दया इतिहास में दहने
न देखो, सच है वो,......

ऐसी पंक्तियां आप ही लिख सकते हैं राजीव जी बेहद झंझोर देने वाली पंक्तियां है यह ...

पढ़ के बस यही कहूँगी ..आपकी कलम यूं ही चलती रहे ..और हमे ऐसी सुंदर रचना पढने को मिलती रहे !

शुभकामनाये
रंजना

शोभा का कहना है कि -

राजीव जी
आपकी कविता के तेवर आज कुछ बदले-बदले नज़र आ रहे हैं । एक यशस्वी कवि के रूप
में दिखाई दे रहे हैं । कवि और उसकी कविता को प्रणाम । यथार्थ का वर्णन बहुत ही प्रभावी है ।
ओजगुण से परिपूर्ण रचना के लिए बधाई ।

Mohinder56 का कहना है कि -

राजीव जी
व्यथा, करूणा व आक्रोश भाव से भरी हुई एक सशक्त रचना है आपकी.
निम्न पंक्तियों का मैं विषेश कर जिक्र करना चाहूंगा

"टपकते लार के बच्चे,..., कलेजा है कढाई में
नहीं फटता मरा अंबर, बडी हिम्मत ख़ुदाई में

बहुत है कर्ज, मर जाओ, सुकूं की नींद तो आये
है कम रस्सी, लटक जाओ, इसी फंदे में दो बहनें

मरा है भ्रूण ही में राम, यह नूतन कहानी है
जलाते दशरथों को हम, जमाने तेरे क्या कहने"

विश्व दीपक का कहना है कि -

न देखो, सच है वो, उसने कभी कपड़े नहीं पहने।

राजीव जी,
आपने अपनी रचना की शुरूआत में हीं आग डाला है। पढकर कोई वहाँ रूका नहीं रह सकता, उसके साथ बढ हीं जाता है।समाज की कुरीतियों पर हर बार जिस तरह वार करते हैं वह आपको एक कालजय़ी रचनाकार बनाती है। आपके कई शब्द झकझोर कर रख देते हैं। मसलन-

है कम रस्सी, लटक जाओ, इसी फंदे में दो बहनें

कोई बच्ची की अस्मत रौंद कर गर्दन दबाता है
कोई उसका कलेजा फाड कर, बेखौफ खाता है
जिसे बोली नहीं आती, उसे जब वासना खाती
हया की आँख भर आती, दया इतिहास में दहने

मरा है भ्रूण ही में राम, यह नूतन कहानी है
जलाते दशरथों को हम, जमाने तेरे क्या कहने

हो नयी फिर सुबह, लाल हों कोंपलें, अंकुरें हों नयी
खेत ही खेत को चाहिये साथियों परबत ढ़हने

बस राजीव जी अजय जी की बात पर ध्यान दीजिएगा। अंतिम पंक्तियों में लय गया है। वैसे कविता अद्वितीय है।
बधाई स्वीकारें।

Sajeev का कहना है कि -

उफ़ कितना कड़वा है ये सच, राजीव जी रुँगटे खड़े हो गए, कालजयी रचना ..... बहुत बहुत बधाई

RAVI KANT का कहना है कि -

राजीव जी,
बधाई! अद्भुत काव्य-कौशल है आपमे। झकझोर देनेवाली रचना!

फटे ही पाँव बो आया, पसीना कुछ बिबाई में
दिवाकर स्वर्ण बरसाये, मिला पत्थर खुदाई में
टपकते लार के बच्चे,..., कलेजा है कढाई में
नहीं फटता मरा अंबर, बडी हिम्मत ख़ुदाई में

बहुत है कर्ज, मर जाओ, सुकूं की नींद तो आये
है कम रस्सी, लटक जाओ, इसी फंदे में दो बहनें
न देखो, सच है वो, उसने कभी कपड़े नहीं पहने।

स्शक्त अभिव्यक्ति।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

राजीव जी,

अंतिम अंतरे में जिस प्रकार की दीर्घस्वरी शब्द आपने इस्तेमाल किये हैं, उससे पूरे गीत में रूकावट पैदा हुई है। उसपर आप ध्यान दीजिए।

इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्द-युग्म के संग्रहालय को आपने एक और हीरा दिया है।

गौरव सोलंकी का कहना है कि -

जैसा कि सबने कहा है, अंतिम अंतरे ने कविता के प्रवाह को थोड़ा रोक दिया है।
बाकी सब तो अद्भुत है।

टपकते लार के बच्चे,..., कलेजा है कढाई में
नहीं फटता मरा अंबर, बडी हिम्मत ख़ुदाई में

बहुत है कर्ज, मर जाओ, सुकूं की नींद तो आये
है कम रस्सी, लटक जाओ, इसी फंदे में दो बहनें

पिता लतखोर है, माँ घर में पोते ही की आया है
हर एक रावण का घर है, राम मेरे कैसी माया है
गला भाई का रेंता है, अगर आल्हा सुनाया है
बहुत अचरज में है धरती, दनुज आदम का जाया है

भावप्रवण एवं आक्रोश से भरी कविता है। कवि ने कविता में अपना दिल डाल दिया है।

सुनीता शानू का कहना है कि -

राजिव जी एक बात कहूँ इस प्रकार की रचना आपके सिवा कोई भी नही सुना पायेगा जहाँ तक मुझे लगता है क्योंकि आपकी रचना को पढ़ने के लिये पूरे जोश होश और बुलन्द आवाज़ का होना भी जरूरी है तो लाजमी है कि आप ही जरा पोडकास्ट पर इसे प्रस्तुत करे ताकि हम इसे सुन कर और आनन्द ले सके...

शानू

Anupama का कहना है कि -

I don't know what to say im speechless....it scrapped me

गिरिराज जोशी का कहना है कि -

नमन राजीवजी,

कलम घसीटो..., सठिया गया है देश... की कड़ी में आपकी यह रचना सबसे ऊपर ठहरती है, पहली ही पंक्ति झकझोर देने वाली है।

सच को क्रांतिकारी रूप में सामने रखना आपकी विशेषता है, इस रचना में छंद कारीगरी का बहुत ही खूबसूरत इस्तेमाल किया है आपने...

इसे पॉडकॉस्ट कीजिये, आपकी आवाज़ में सुनकर बहुत आनन्द आयेगा।

बधाई स्वीकार करें!!!

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