ये कौन सा पंछी बैठा
मेरी डाली पर चुपके
दुख की सौंधी सी खुशबू
सूर घोल रहें हैं उसके
पहचान मिली गाने में
कुछ भूली हुई यादोँ की
कुछ सर्द सिसकियाँ पाईं
सहमें हुए सपनों की
ये कौन सा पंछी बैठा
और क्या था उसने गाया
मुझ में इक मौसम दुख का
मचला, फिर खिल खिल आया
तुषार जोशी, नागपुर
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18 कविताप्रेमियों का कहना है :
पहचान मिली गाने में
कुछ भूली हुई यादोँ की
कुछ सर्द सिसकियाँ पाईं
सहमें हुए सपनों की
देखन में छोटन लगे , घाव करें गंभीर
वाह तुषार जी बहुत ही प्रभावी और सुन्दर कविता है ।वो कहते हैं न कि "जिन्दगी बड़ी होनी चाहिये लंबी नहीं" , यही बात कविता के साथ भी लागू होती है ।
कुछ भूली हुई यादोँ की
कुछ सर्द सिसकियाँ पाईं
सुन्दर ...
ये कौन सा पंछी बैठा
और क्या था उसने गाया
मुझ में इक मौसम दुख का
मचला, फिर खिल खिल आया
तुषार जी बहुत ख़ूब ..बधाई!!
तुषार जी
अधिकतर पक्षी मधुर गीत गाते हैं । आपकी डाली पर ये कौन सा पक्षी बैठ गया ?
होता है । मन की जैसी भावना हो वैसा ही लगता है । कविता में कोई खास मज़ा नही
आया । सस्नेह
बहुत सुन्दर !
घुघूती बासूती
तुषार जी..
बहुत प्यारा लिखा है..
बधाई..
पहचान मिली गाने में
कुछ भूली हुई यादोँ की
कुछ सर्द सिसकियाँ पाईं
सहमें हुए सपनों की..
बहुत सुन्दर शब्द चयन किया है आप ने..
..
ये कौन सा पंछी बैठा
और क्या था उसने गाया
मुझ में इक मौसम दुख का
मचला, फिर खिल खिल आया..
मुझे लगा कि यहाँ पर आप ने रचना को थोडा हल्का लिया है..
बस थोडा सा प्रयास अगर और हो जाता तो रचना बेजोड होती..
फिर भी रचना बहुत कुछ कह गई है..
बधाई स्वीकार करें..
आभार...
तुषार जी सच सच कहूँ तो मज़ा नही आया | हो सकता है कि मैं आपसे ऐसा कह रहा हूँ क्योंकि मुझे आपे कुछ ज़्यादा की उम्मीद रहती है |
बड़ी-बड़ी बातों को सरल शब्दों में बिना किसी लाग लपेट के कह देना आपकी विशेषता रही है पर यह कविता आपकी उस विशेषता के साथ न्याय करती नही प्रतीत होती |
विपिन जी से मैं शत-प्रतिशत सहमत हूँ कि आपने कविता के अंत को थोड़ा हल्का बना दिया |
वैसे एक बात और कहना चाहूँगा ,आपने लिखा है "दुख की सौंधी सी ख़ुशबू" |
यह मुझे ज़रा समझ नही आया | क्या आप इसे स्पष्ट करेंगे ?
तुषार जी,
बुरा नहीं मानियेगा..पर मुझे कविता का केवल मध्य भाग ही जँचा..
"कुछ सर्द सिसकियाँ पाईं
सहमें हुए सपनों की"
ये पंक्ति बहुत अच्छी लगी...बाकि कुछ समझ नहीं आया..
धन्यवाद,
तपन शर्मा
अबके पहली बार मैने अपनी एक गंभीर रचना हिन्दयुग्म पर प्रकाशित की है। मुझे जो लगता था शायद वही हो रहा है। हिन्दयुग्म के पाठक अभी इस तरह की कविताओं के लिये तैयार नहीं है। अपनी ही कविता का रसग्रहण करके दिखाना अजीब लगता है। कविता लिखी ही इस वजह से गई है के जो लिखने को पाच छै पन्ने लग जाए उसे कुछ पक्तियों में लिख दो।
मै कुछ और इंतज़ार कर लूँ। शायद कुछ और लोग अपनी बात कह लें। सबके बाद मै अपनी बात कहूँगा।
आपका ~ तुषार जोशी, नागपुर
तुषार जी,
बहुत सुन्दर! हृदय को स्पंदित कर गयी आपकी कविता।
ये कौन सा पंछी बैठा
मेरी डाली पर चुपके
दुख की सौंधी सी खुशबू
सूर घोल रहें हैं उसके
मुझे ऐसी रचनाएँ पसंद हैं जहाँ अज्ञात के सहारे भावों को अभिव्यक्त किया जाता है और ’दुख की सौंधी सी खुशबू’ सुन्दर प्रयोग है। ऐस दुख जो प्रिय भी हो, बहुत खुब!
ये कौन सा पंछी बैठा
और क्या था उसने गाया
मुझ में इक मौसम दुख का
मचला, फिर खिल खिल आया
तुषार जी सच पूछिए तो ये पंछी हर किसी के डाली पर बैठता है और ऐसा ही गाता है। ये कविता पढ़कर बरबस पंत जी की "मौन निमन्त्रण" कविता याद आ रही है।
तुषार जी अच्छा होगा यदी आप अपनी रचना की स्वयं ही समिक्षा करें...कई बार एसा होता है कुछ बातें कवि मन को आहत कर जाती है...और कुछ बाते बेवजह पाठक को भी आहत कर जाती है...ये जरूरी नही कि जिस प्रयोजन से लिखा गया है सभी समझ पायें...
मुझे जो लग रहा है वह लिखना चाहूँगी,जिंदगी में सुख और दुख साथ-साथ ही आते है मगर दुखो का समावेश ज्यादा रहता है जैसे की दुख ही हमारे संगी साथी है...पंछी की सुरीली आवाज अक्सर हम अकेले में सुनते है और दुखी भी होते है तब भी बहुत प्यारी लगती हैजैसे की तपती धरती पर वर्षा की कुछ बूंदो से सौंधी सी खुशबू मन को भाती हैं उसी तरह यह दुख में डूबा सुर भी मन को मोह लेता है...कविता की सबसे खूबसूरत और अहम पक्तियाँ बेहद मन्मोहक है...बीते दिनो की यादों मे जब मन खो जाता है...बहुत सुन्दर वर्णन है...
पहचान मिली गाने में
कुछ भूली हुई यादोँ की
कुछ सर्द सिसकियाँ पाईं
सहमें हुए सपनों की
अगली पक्तियाँ जो मुझे समझ आ रही है जैसे की क्या उस पछीं ने गाया जिससे मै उसके सुरो में खो गया उसकी मधुर आवाज में खो गया और दुख आया और हसँते-हसँते चला भी गया...
आप ही बताईयेगा आपकी कविता जो मेरी समझ आई वह यही है आपकी क्या समिक्षा है इन्तजार रहेगा...
सुनीता जी ने बिल्कुल सही कहा। बेवजह ही कुछ बातें कवि को और कुछ बातें पाठक को आहत कर जाती हैं।
तुषार जी, आपकी एक बात पर आपत्ति करना चाहूँगा। आपने कहा कि- हिन्दयुग्म के पाठक अभी इस तरह की कविताओं के लिये तैयार नहीं है।
इसने मुझे भी एक पाठक के तौर पर आहत किया। आप जिस कविता को गंभीर कह रहे हैं, उसकी आलोचना करने पर उलटे पाठक को ही दोषी ठहरा रहे हैं। आप कहना चाह रहे हैं कि हिद-युग्म के पाठक इतने परिपक्व नहीं हैं कि आपकी कविता की गंभीरता को समझ पाएँ।
मैं तो इससे बिल्कुल सहमत नहीं हूँ। हमारे साथ बहुत चिंतनशील पाठक हैं, जिन्हें जो सच लगता है, वही कहते हैं।
हाँ, आपने बहुत मन से गंभीर कविता लिखी। लेकिन यदि आप पाठकों तक अपनी बात नहीं पहुँचा पाए तो यह कविता की ही असफलता हुई ना?
कविता यदि छोटी है तो पाठक चाहता है कि उसे कम शब्दों में बहुत सी बातें मिल जाएँ। यहाँ आपने प्रयास तो किया, लेकिन आप पूरे सफल नहीं हो पाए।
मुझ में इक मौसम दुख का
मचला, फिर खिल खिल आया
इसका अर्थ भी समझाइएगा।
कृपया मेरी आलोचना को तीर समझकर चोटिल न हों, इसे एक छोटे भाई की सलाह मानें।
तुषार जी,
हिन्दी-कविता-साहित्य में पाठक को कमज़ोर मानने की परम्परा नहीं है। मैं आज यह पहली बार किसी कवि से सुन रहा हूँ जिसे पाठक की क्षमताओं पर शक हो। कविता आपने क्या सोचकर लिखी थी, यह कभी महत्वपूर्ण नहीं है। एक आम पाठक उसकी क्या व्याख्या करता है वही उस कविता या किसी भी प्रकार की रचना का अंतिम सत्य है। (याद रखिए यह गणित या विज्ञान नहीं है जहाँ यदि विद्यार्थी को बात समझ में न आये तो उसकी समझ को कम आँका जाता है)। यदि कविता की व्याख्या या टीका आपको खुद लिखनी पड़ रही है तो याद रखिए आपकी कविता की भाव-संप्रेषणियता में कमी है।
एक कहानी सुनाता हूँ-
मैंने सुना है कि जयशंकर प्रसाद एक बार इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कुछ विशेष कार्य हेतु पधारे थे। उसी समय किसी कक्षा में कोई प्राध्यापक अपने छात्रों को उन्हीं की कविता पढ़ा रहे थे। एक विद्यार्थी ने कहा कि 'गुरुजी, जब जयशंकर प्रसाद यहाँ खुद उपस्थित हैं, तो उन्हीं से क्यों न इस कविता की व्याख्या सुनी जाय?"
प्रसाद आये मगर उन्होंने किसी भी टीका से मना कर दिया। उन्होंने कहा कि पता नहीं मैंने क्या सोचकर लिखा था, अब जो अर्थ आपलोग लगायेंगे वही इस रचना का सत्य होगा।
जैसे सम्भव है कि आपकी यह पंक्ति 'दुख की सौंधी सी खुशबू' आपकी अतीव आशावादिता का परिचायक हो, मगर कोई पाठक इसे गलत प्रयोग के अर्थ में भी देख सकता है।
मुझ में इक मौसम दुख का
मचला, फिर खिल खिल आय
इसका मैं अर्थ निकाल पा रहा हूँ कि पंछी ने अतीत की याद दिला दी, जिससे दुःख की एक लहर मन में उठी (मचला) और फ़िर नैरेटर रोने लगा या दुःख में डूब गया (खिल-खिल आया)।
कुछ भी हो, मैं कहूँगा कि पाठकों को अपना हितैषी मानें और आत्मावलोकन करें।
""ये कौन सा पंछी बैठा
और क्या था उसने गाया
मुझ में इक मौसम दुख का
मचला, फिर खिल खिल आया""
तुषार जी रचना अच्छी है.....मगर अधूरी लग रही है......भाव स्पष्ट नही हो रहा है......
तुषारजी,
कविता अच्छी लगी, मगर टिप्पणियाँ देखकर टिप्पणियों पर टिपियाना पड़ रहा है। मैं शैलेशजी से सहमत हूँ, कविता लिखना तभी साकार है जब अधिकाधिक लोग उसमें निहित भावों को ग्रहण कर सकें और यदि किसी कारणवश ऐसा नहीं हो पाता तो निश्चय ही यह रचयिता की कमजोरी है।
कवि अपने मनोभावों को कम शब्दों में पिरोना चाहता है मगर इसके लिये पाठक को पल्लवन करने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिये बल्कि कविता पढ़ते समय मस्तिष्क में पल्लवन स्वत: होना चाहिये।
Tushaar Ji,
Rachna jitni bhi likhi hai aachi likhi hai magar theek se baav ujaagar nahi ho paa rahe...ise poora kijiye
तुषार जी,
बिना चर्चा में पडे मैं आपकी क्षणिका की मुक्त कंठ से प्रसंशा करना चाहूँगा। इस क्षणिका के अनूठे पन नें बेहद प्रभावित किया है और बिम्ब ही बिम्ब में आप धीरे से अपनी बात कह गये हैं।
ये कौन सा पंछी बैठा
और क्या था उसने गाया
मुझ में इक मौसम दुख का
मचला, फिर खिल खिल आया
*** राजीव रंजन प्रसाद
मुझ में इक मौसम दुख का
मचला, फिर खिल खिल आया
बहुत खूब तुषार जी। रचना पसंद आई।
आखिरी पंक्तियां बेहद खूबसूरत्………'"दुख की सौंधी सी ख़ुशबू" …………वाह्………this is what we call a Gulzarian touch.
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