मरघट के लिए जो मर गए वो मर कर भी शर्मिंदा हैं,
हाकिम गए, हकिम गए , नासूर तो अब भी जिंदा है।
इस घट से उस घट तक देखो,
पर्वत से तलछट तक देखो-
सब चुप हैं, क्या है अमन यही,
ना-ना, मुर्दों का जमघट है।
सिलवट पर खुदी है कायरता,
यह बेदर्दों का जमघट है।
हँसते तो लगते जोकर ये , गिन-गिन कर अश्क बहाते है,
जिस जतन से इनको वतन मिला,उसे बेचकर रतन कमाते हैं,
दो गज़ में तुमको चैन मिला, एक इंच पर ये लड़ जाते हैं,
आज के ये जांबाज तो बस, इतिहास पर गाज गिराते हैं।
सरताज हैं ये, सब इनका है,
जग का मालिक रब, इनका है,
सत्ता जिनका , वर्दी जिनकी,
वही नेता आज, जन-जन का है।
ये जीकर भी इंसान नहीं, दिल होकर भी ईमान नहीं,
जम जाए रवि, देख इनकी छवि, रो पड़े देख भगवान नहीं,
अल्लाह क्या इन पर गुमां करे, सच को है खुदा-हाफिज इनका,
जो अपनी जां हैं बेच चले, कोई इनसे बड़ा शैतान नहीं ।
वे जख्म हरे ना हो जाएँ,
गैरों से जो उपहार मिला,
कालापानी बनी बेमानी-
जब मौत को है विस्तार मिला।
सुधरेंगे क्या, नहीं इनमें हया , उम्मीद रखें अब हम किनसे,
सदियों में तेरा नाम गया, इतिहास बनेगा बस अब इनसे।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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9 कविताप्रेमियों का कहना है :
देखरही हूँ कि हिन्द युग्म के कवि सप्रयास उर्दू गज़ल लिख रहे हैं जिसके
कारण मज़ा नहीं आरहा । कविता हिन्दी में हो या उर्दू में सहज अभिव्यक्ति
होनी चाहिए । भावपक्ष काफी निर्बल दिखाई दे रहा है । मैं हिन्द युग्म के
कवियों से अनुरोध करती हूँ कि कविता जबरदस्ती ना लिखें । दो तीन दिन
से काव्यानन्द बिल्कुल नहीं मिल रहा । शुभकामनाओं सहित
तन्हा जी,
कविता को यदि परिस्थितिजन्य माना जाए तब भी ’उम्मीद रखें अब हम किनसे’ इतनी भी निराशावादिता क्योंं? अँधेरे से लड़ने से लाखगुना बेहतर है दिया जलाना। कवियों के द्वारा बहुलता मे नैराश्य भाव पर कविता लिखने से मै हतप्रभ हुँ।
तन्हा जी आपने कविता के माध्यम से देश की हालत पर करारा प्रहार किया है...कविता जोश और होश का परिचायक है...समझिये मज़ा आ गया...एक कवि ही कर सकता है एसा प्रहार...हम लकीर के फ़कीर नही आज देश को फ़िर जगाने की जरूरत है एसी कविता ही मन पर गहरा आघात करती है...आज एसे ही लोग है जो बिक गये है...जो खुद बिक गये है वो देश को क्या बचायेंगे...मै निराशा वादी नही हूँ मगर देश की दुर्दशा पर दुख होता है...हम कलम घिसने के सिवा कर भी क्या सकते है मगर इसे कम भी न समझना क्यों कि यही आपका हथियार भी है...आपने शायद मेरी एक कविता की कुछ पक्तियाँ पढी होगी...
कलम दिवानी क्या करे,
कोई हमे समझायें,
बिन स्याही के भी देखों,
कैसन चलती जाये।
कैसन चलती जाय गुरुवर,
एसी मारे मार,
ढोल की पोल भी खोल दे,
अंटाचीत भी लाये।
यही हाल है कलम से सच्चाई छुप नही सकती...
बहुत-बहुत बधाई देश के लिये आपको जज्बा देख कर...
स्वतंत्रता दिवस पर बधाई
सुनीता(शानू)
तन्हाजी,
अभी कुछ देर पहले ही निखिलजी की कविता पढ़ी थी, वहाँ जो मैने टिप्पणी दी, वही आपके लिये भी है, यहाँ पेस्ट कर रहा हूँ -
समाज का चेहरा समाज के सामने लाना, उसकी कमियों को इंगित करना भी एक सृजनधर्मी का ही कार्य है, ऐसे में मैं आपकी इस कविता की प्रशंसा करता हूँ।
कमियों को दूर करने का सुझाव देना और कमियों को उजागर करना दोनों अपने आप में सम्पूर्ण कार्य है, इसलिये एक काम भी किया जाना महत्वपूर्ण है।
देश की समस्याओं को सामने लाना उन्हें सुलझाने की तरफ़ उठाया गया ही एक कदम है क्योंकि कुछ चीजें हमारे सामने होते हुए भी हम नकार जाते है जिन्हें बार-बार सामने लाकर खड़ा करना आवश्यक है, प्रयत्न करते जाईये, सामूहिक क्रांति ही बदलाव ला सकती है।
बधाई स्वीकार करें।
waah tanhaji man baag baag ho gaya....kya likha hai.......gajab dhaya hai.....
गिरिराज जी
आप मानते हैं कि कवि का कार्य केवल देश की
समस्याओं को उजागर करना ही है ? इस दृष्टि से
तो कवि मात्र निन्दक हो गया । उसकी सकारात्मक
सोच का तो कहीं कोई स्थान ही नहीं रहा । एक कवि
सृष्टा होता है । वह समाज का नेतृत्व करता है । इसलिए
उसे समाज में आशावादिता को भी जिन्दा रखना होगा ।
अगर कवि समाज की विकृतियों को ही दिखाता रहा तो
अच्छाई के प्रति विश्वास ही समाप्त हो जाएगा । मैं जानती
हूँ कि आप ऐसा कभी नहीं चाहेंगें
मात्र यथार्थ काफी नहीं । मैं केवल इतना चाहती हूँ
कि समाज को तटस्थ दृष्ट से देखो । आपने शायद हार की
जीत कहानी पढ़ी हो । फिर कवि का उद्देश्य केवल तालियाँ
नहीं होना चाहिए । देश में यदि निराशा है तो कहीं आशा भी
होगी । मैं बस यही चाहती हूँ कि कवि उसे भी देखे ।
शुभकामनाओं सहित
"मरघट के लिए जो मर गए वो मर कर भी शर्मिंदा हैं,
हाकिम गए, हकिम गए , नासूर तो अब भी जिंदा है।"
पहली दो पंक्तियाँ पढ्ने तक मैने कवि का नाम नहीं पढा था। किंतु तत्क्षण ही लगा कि यह तनहा जी का ही कथ्य हो सकता है।
पंक्तिया की ओजस्विता आपकी क्षमताओं का चित्र खींचती है। निराशा और आशा जैसे भाव कविता में प्रस्तुत जरूर होते हैं किंतु जगाने का अपना अपना तरीका इसे माना जा सकता है। अंधेरा दिखाने का अर्थ यह है कि कवि उजाले की तलाश में जुगनू ढूंढ रहा है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आज के नेताओं या खुद को जाबांज़ कहने वाले कायरों की सच्चाई को बखूबी चित्रित किया है आपने। पढ़कर मन के अंदर गुस्सा पनपता है लेकिन आग नहीं बन पाता।
इस बार आप अपने चरम पर नहीं आ पाए।
शायद यह आपकी पुरानी कविता है।
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