साप्ताहिक समीक्षा - 4
(6 अगस्त 2007 से 12 अगस्त 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)
"साप्ताहिक समीक्षा' के इस अंक के आरंभ में हम सभी मित्रों को भारत के स्वतंत्रता दिवस की 60वीं वर्षगांठ की शुभकामनाएँ समर्पित करते हैं और कामना करते हैं कि हमारे मनों में स्वातंत्र्य चेतना की मशाल सदा जलती रहे और हमारी कलम हर तरह की गुलामी के खिलाफ मोर्चा लेने में समर्थ रहे।
यह सब लिखते समय स्तंभकार के मन में अभी हफ्ते भर पहले (शायद 9 अगस्त) की यह शर्मनाक घटना कौंध रही है कि मजलिस इत्तेहादुल मुसलमीन के विधायक और कार्यकर्त्ताओं ने लेखिका तसलीमा नसरीन के हैदराबाद में प्रवेश तक पर पाबंदी लगा दी तथा खुद प्रेस क्लब में उन पर हमला किया। हमारे विचार से भारत जैसे देश के लिए यह घटना अत्यंत लज्जाजनक है। इस तरह की घटनाएँ यह खतरनाक संकेत देती हैं कि समाज में असहिष्णु शक्तियों का जोर बढ़ रहा है और ये शक्तियाँ पूरे देश को अराजकता तथा कट्टरवादी तानाशाही की ओर धकेल रही हैं। इस समस्या का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यह भी है कि किसी राजनैतिक संगठन और प्रशासन में इन्हें नकेल डालने की इच्छाशक्ति नहीं बची है। वैचारिक सहिष्णुता भारतीय समाज की विशेषता समझी जाती रही है लेकिन अब कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि सारा समाज हिंसा के हिमायती संप्रदाय विशेष के पास गिरवी पड़ा है - फिर अभिव्यक्ति की आजादी की तो बात ही क्या !
अस्तु ....। इस संक्षिप्त सी सामयिक टिप्पणी के साथ हम इस सप्ताह की 15 कविताओं पर चर्चा आरंभ करते हैं ।
1. "अनकही दास्ताँ' (राजीव रंजन प्रसाद) में प्रेम की पीर का बखान किया गया है। कर्णप्रिय ध्वनियों का अच्छा संयोजन है। प्रेम के विषय में कोई "विजन' उभरे तो बात बने ! हिंदी में कबीर और मीरा से लेकर घनानंद और आधुनिक काल के रचनाकारों तक ने प्रेम की पीर का चित्रण किया है। सफल रचनाकार के लिए अपनी परंपरा को आत्मसात करना भी जरूरी होता है। टी.एस. इलियट का कथन है कि कवि को परंपरा का ज्ञान श्रमपूर्वक अर्जित करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि यह परंपरा विरासत में नहीं मिलती तथा परिवर्तनशील कवि के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने को पूरी जातीय और काव्य परंपरा से जोड़े।
2. "दर्द सजीले' (मोहिंदर कुमार) व्यक्ति के दोहरे आचरण की चर्चा से आरंभ होती है। दूसरे अंश में कवि ने भूख के विकराल स्वरूप और उसके परिणामों को मेले में करतब दिखाती बच्ची के चित्रण के सहारे दिखाया है। अगले अंशों में जूते पॉलिश करने वाले, बंदर का खेल दिखाने वाले तथा होटल में काम करने वाले बच्चों का उल्लेख है। कुल मिलाकर बालश्रमिकों के इन चित्रों से करुणा उपजाकर अंतिम अंशों में कवि पाठक को इन बच्चों के मानवाधिकार हनन पर सोचने को बाध्य करता है। "एक उजले चांद को जैसे विषाद का बादल घेर रहा है' में सादृश्य विधान आकर्षक है। "इक भीड़ .... करते हैं लोग' अंश में कवि का गुस्सा प्रकट हुआ है परंतु अंतिम पंक्ति पाठक के आक्रोश को कोई दिशा देने के बजाय हताशा में फुस्स हो जाती है - "चारो तरफ यही हवा है/इस रोग की कोई दवा है ?' (अर्थात कोई दवा नहीं है!) इन दो पंक्तियों के बिना कविता का प्रभाव भिन्न होता।
3 "पल-दो पल का साथ' (सीमा) की आरंभिक पंक्ति यद्यपि किसी प्रचलित फिल्मी गीत का स्मरण करती है परंतु इसकी पूर्ति आकर्षक उत्प्रेक्षाओं द्वारा की गई है। कविता का प्रथम अंश आह्लाद और कृतज्ञता को एक साथ प्रकट कर सका है जिसका स्वाभाविक अवरोह दूसरे अंश में दिखाई देता है। प्रेम पर शिकायतों वाली कविताओं की भीड़ में यह सहज धन्यवाद की कविता अलग दीख सकती है। अंतिम अंश में "हैं बनते मेरे जीवन की पूँजी' में "हैं' को आरंभ में लाने से न तो लय में सुधार आया है, न अर्थ में चमत्कार; अत: इसे "बनते हैं ....' के ही रूप में भी रखा जा सकता है और यदि "हैं' का लोप भी करना चाहें तो लय बेहतर होगी।
4. "मैं तुझको क्या यार कहूँ' (पंकज) में प्रथम तीन अंशों में प्रिय के प्रति संबोधनों की लड़ी पिरोई गई है और अंतिम अंश में लौकिक सौंदर्य और प्रिय के सौंदर्य में प्राथमिकता के द्वंद्व को उभारा गया है। छंद, लय और गति का निर्वाह अच्छा है।
5. "खार' (अनुपमा चौहान) में नैरेटर ने स्वयं को खार कहा है और प्रकारांतर से प्रेमी का धन्यवाद प्रकट किया है - क्योंकि वह अपात्र से प्रेम करता है, उसे सीने से लगाकर रखता है। स्वयं को खार (कांटा) कहने में एक प्रकार का आत्मदर्प भी झलकता है क्योंकि वह कठोर यथार्थ का प्रतीक है। दूसरी ओर भक्तों जैसी विनम्रता और आत्मन्यूनता भी झलकती है - "मो सम कौन कुटिल खल कामी'। प्रेमी के प्रति कृतज्ञता तो दोनों स्थितियों में है ही क्योंकि "वह मुझसे मुहब्बत करता है।'
6. "बाईस बरस' (निखिल आनंद गिरि) में वय:संधि जनित मानसिकता ध्वनित होती है। भावनात्मक और वैचारिक परिवर्तनों की ओर अच्छा इशारा है। अच्छी बात यह है कि नैरेटर अपने कल और आज से संतुष्ट है। लेकिन यह सोना और पारस का संबंध समझ के परे है! पारस लोहे को सोना बनाता है लेकिन सोने के लिए तो पारस अनुपयोगी पदार्थ भर है। क्या इसका यह अर्थ समझा जाए कि प्रेमिका पहले लोहा थी, मैं रूपी पारस ने उसे सोना बना दिया। यह बात प्रेमिका कहती तो अच्छी लगती, लेकिन यदि प्रेमी कहे तो बोझिल लगेगी। जो कहे कि मैं पारस हूँ, मैंने तुम्हें सोना बना दिया - वह प्रेम नहीं कर सकता। अहं और दंभ प्रेम के शत्रु हैं। वैसे यहाँ यह अर्थ नहीं है, बल्कि कुछ "यों' ही सोना और पारस का प्रयोग कर लिया गया है।
7. "एकांत की ख्वाहिशें' (गौरव सोलंकी) में अकेलेपन और आत्मनिर्वासन की त्रासदी को छोटी-छोटी भावपूर्ण घटनाओं की स्मृति के माध्यम से प्रभावशाली ढंग से उकेरा गया है। "तुम पर नहीं फबता' की आवृत्ति से हर अंश का प्रभाव क्रमश: सांद्र होता जाता है और कविता का अंतिम अंश विपथित होने के कारण पाठक के मन को एक ठेस-सी पहुँचाता है। प्रथम अंश में छिपकलियों का चिपकना सटीक है और आनेवाले विद्रूप का संकेत भी। कवि के मन में लोक के प्रति ललक है और सहज जीवन जीने की आकांक्षा। परंतु धोखे, विश्वासघात और छल ने नैरेटर को बेहद खिन्न और डिप्रेस कर दिया है। काश ! हर मनु को कोई श्रद्धा मिल पाती जो कहती - "हार बैठे जीवन का दाँव, जीतते जिसको मर कर वीर!'
8. "जीवन खुली किताब' (प्रमेंद्र प्रताप सिंह) में किताब के रूपक का आरंभ से अंत तक अच्छा निर्वाह किया गया है। जीवन के रहस्यों को समझने की यह इच्छा कवि को और भी अध्ययन-मनन-चिंतन तथा सार्थक सृजन की प्रेरणा देगी।
9. "मिलती कोई राह' (रंजू) में जग को झूठा छलावा और भटकाव कहा गया है। सच्चा प्यार न मिले तो जग झूठा लगता ही है। सादृश्य विधान और मिथक के प्रति रचनाकार की रुचि प्रशंसनीय है। नायक की प्रतीक्षा कविगण युगों से करते आए हैं - पर कोई नायक आकाश से उतरकर आता दीखता नहीं ! एक ही पंक्ति में "मौसम' और "ऋतु' का एक साथ प्रयोग अटपटा लगता है - मौसम बदहवास, ऋतु भी हुई मुँहजोर। द्रविड़ प्राणायाम करके दोनों में भेद स्थापित किया जा सकता है, लेकिन हैं तो परस्पर पर्याय ही : ऋतु = मौसम। मोर का न नाचना और पनघट का गीतों से न गूँजना रचनाकार को विचलित करता है जो अतीत प्रेम, लोक चेतना और प्रकृतिबोध का द्योतक है। प्रेम की मंजिल की खोज सदा-सदा की खोज है - "प्रेम को पंथ कराल महा, तलवार की धार पे धावनो है !'
10. "कहां गए पक्षी' (अजय यादव) में पर्यावरण-विमर्श ध्वनित हो रहा है। न लौट कर आने वाले पक्षी घर-गाँव छोड़कर परदेस गए लोगों के भी प्रतीक हैं। रंजू की तरह अजय यादव को भी मोर की याद आती है। दरअसल मोर हमारे सामूहिक अचेतन में बसा हुआ आद्यबिंब है जो आज सचमुच स्म़ृति-मात्र की वस्तु रह गया है। रचनाकार की जागरूकता ध्यान खींचती है। हाँ, "छोटी-बड़ी अनेक पक्षी' नहीं, "छोटे-बड़े अनेक पक्षी'।
11. "मेरी क्षणिकाएँ' (मनीष वंदेमातरम्) अच्छी है। दूसरी क्षणिका में "मोमबत्ती' पारंपरिक प्रतीक होते हुए भी कथन में ताजगी है। तीसरी में "बारिश की फसलें' अच्छा प्रयोग है - खीझ और गुस्से की व्यंजना खूब बन पड़ी है। अंतिम क्षणिका में दहेजपीड़िता की पीड़ा को ह़ृदयद्रावक अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। पहली व चौथी क्षणिकाएँ साधारण हैं।
12. "सावन' (विपुल) वय:संधि की हलचलों का गीत है। चातक, बूंदों का ताबूत, यादें जैसे अमरबेल, अधूरी बनी प्रेम की रेखा - प्रयोग कवित्व शक्ति के परिचायक हैं। भीगी प्रियतमा को देखने वाला दृश्बंध कोमल है लेकिन नैरेटर की इस कामना ने कि वह उनके तन पर ढलकने वाला नीर होता, वह चुटकुला याद दिला दिया कि किसी किशोरी के कपड़ों की माप लेते हुए दर्जी को देखकर उसका सहपाठी सड़क पर लोटपोट होकर चीखने लगा - काश ! मैं दर्जी हुआ होता। हाय ! - इस प्रकार के कथन प्रेमचित्रण में अपेक्षित औदात्य के मार्ग में बाधा बन कर अड़ जाते हैं।
13. "जरूर' (तुषार जोशी) में कविता कम और बयान अधिक है। फिर भी स्त्री-विमर्श के संदर्भ में कवि की पक्षधरता प्रशंसनीय है। अंतिम अंश में अंधकार और ज्योति के द्वंद्व-मिथक का प्रयोग सार्थक है।
14. "माता पिता और मातृभूमि' (विश्वदीपक तन्हा) में कवि की राष्ट्रीय चेतना के साथ-साथ ममता का भी चित्रण किया गया है। इस प्रकार की रचनाओं को विवरणात्मक कविता की कोटि में रखा जा सकता है।
15. "काश' (निखिल आनंद गिरि) में बालश्रमिकों की समस्या पर ध्यान केंद्रित किया गया है। सुविधापरस्त और असुविधाग्रस्त वर्गों के द्वंद्व में कथ्य ने अच्छा उभार पाया है। प्रतीकों का इस्तेमाल भी अच्छा है। इस कविता को मोहिंदर कुमार की कविता "दर्द सजीले' के साथ भी रखकर पढ़ा जा सकता है। दोनों ही कवि बालश्रमिकों के निरस्त हो चुके अधिकारों के प्रति चिंतित हैं तथा समाज की संवेदना को जगाना चाहते हैं। मोहिंदर जहाँ इस सामाजिक रोग की दवा न मिला पाने से हताश हो जाते हैं, वहीं निखिल आनंद गिरि अंत को खुला छोड़ देते हैं और संभावनाशीलता के साथ कविता को समाप्त करते हैं। एक और बात, दोनों में द्रष्टव्य है कि ये कविताएँ किसी प्रकार का सरलीकृत समाधान पाठक के ऊपर नहीं थोपतीं, बल्कि उसे सचेत और सक्रिय भर करना चाहती हैं।
अंतत: यह कहना उचित होगा कि ये कविताएँ आज के आम भारतीय युवा मानस की उथल-पुथल को अभिव्यक्त करने का यथाशक्ति प्रयास करती दिखाई देती है। यह रचनाकारों की सामाजिक संलग्नता का भी प्रमाण है। अस्तु ....
19 अगस्त 2007 को आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी (जन्म : 19 अगस्त, 1907) की शताब्दी संपन्न हो रही है। इस अवसर पर कवियों और पाठकों के विचारार्थ उनका यह कथन उद्धृत हैं - ""सर्वभूत का आत्यंतिक कल्याण साहित्य का चरम लक्ष्य है। जो साहित्य केवल कल्पना विलास है, जो केवल समय काटने के लिए लिखा जाता है, वह बड़ी चीज नहीं है। बड़ी चीज वह है जो मनुष्य को आहार-निद्रा आदि पशु-सामान्य धरातल से ऊपर उठाता है।' (हजारी प्रसाद द्विवेदी ग्रंथावली, खंड-10, पृष्ठ-31)।
आज इतना ही।
इति विदा पुनर्मिलनाय।
- डॉ. ऋषभदेव शर्मा
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12 कविताप्रेमियों का कहना है :
कविता और साप्ताहिक समीक्षा के लिए धन्यवाद। आपका कार्य प्रशंसनीय है।
""सर्वभूत का आत्यंतिक कल्याण साहित्य का चरम लक्ष्य है। जो साहित्य केवल कल्पना विलास है, जो केवल समय काटने के लिए लिखा जाता है, वह बड़ी चीज नहीं है। बड़ी चीज वह है जो मनुष्य को आहार-निद्रा आदि पशु-सामान्य धरातल से ऊपर उठाता है।'
kitni achhi baat yaad dilai aapne
saadhuvaad
आप की समीक्षा से मैं पूर्ण रूप से सहमत हूँ..
और मैं आलोक जी के शब्दों को दोहराना चाहूँगा..
बहुत अच्छा लगा कि हिन्द युग्म को ऐसे समीक्षक मिले हैं..
बहुत ही सराहनीय प्रयास है
मैं कायल हो गया हूँ
बहुत ही अच्छी साप्ताहिक समीक्षा की है आपने ...
सच में अब इसका इंतज़ार रहता है
शुक्रिया आपका ...
बहुत ही सुन्दर समीक्षा है। अपने आपको परखने का अच्छा माध्यम है।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद | ऐसे कई पहलू रहते हैं जिन पर हमारा ध्यान नही जा पाता पर आपकी समीक्षा के माध्यम से हम उन पर भी गौर कर पाते हैं |
आपकी हर टिप्पणी सटीक है | "सावन" के बारे में आपका कथन बिल्कुल सत्य है-"इस प्रकार के कथन प्रेमचित्रण में अपेक्षित औदात्य के मार्ग में बाधा बन कर अड़ जाते हैं।"
आगे से इसका ध्यान रखूँगा कि ऐसी अपरिपक्वता रचना में दृष्टिगोचर ना होने पाए |
सम्भव है कि इन समीक्षाओं का असर अभी हमारे कवियों पर न दिख रहा हो, लेकिन १-२ महीनों में बहुत चमत्कारिक परिवर्तन होने वाला है। ऐसा मेरा विश्वास है। ऋषभ जी आप हमारे स्तर के स्तम्भ हैं।
मुझे हिन्द युग्म की साप्ताहिक समीक्षा बहुत ही सटीक और प्रभावी लगती है ।
एक- एक वाक्य बहुत ही सही है तथा प्रेरणा से भरा है । मुझे समीक्षक का
कवि प्रसाद को याद करना बहुत ही अच्छा लगा । कामायनी का दृष्टिकोण
हर काल में प्रेरणा दायी है । कवि अधीकतर क्षणिक आवेग में अपने को
अभिव्यक्त कर देता है किन्तु समीक्षक बहुत बारीकी से देखता है । यदि सभी
कवि निराला की भाँति कवि कर्म पर ध्यान दें तो काव्य सचमुच उपयोगी
एवं युगान्तकारी बनेगा ।
सारगर्भित समीक्षा के लिए साधुवाद। द्विवेदी जी की बात याद दिलाना अत्यंत प्रसंगिक है। इस उद्धरण से मै शत प्रतिशत सहमत हुँ-
टी.एस. इलियट का कथन है कि कवि को परंपरा का ज्ञान श्रमपूर्वक अर्जित करना चाहिए। उन्होंने यह भी कहा है कि यह परंपरा विरासत में नहीं मिलती तथा परिवर्तनशील कवि के लिए यह आवश्यक है कि वह अपने को पूरी जातीय और काव्य परंपरा से जोड़े।
आदरणीय ऋषभदेवजी,
आपकी समीक्षा निश्चय ही हमें प्रगति पथ पर अग्रसर करेगी, सीखने की ललक के साथ जोशीले कवि और आप जैसे समीक्षक का होना बेहद आवश्यक है।
सारगर्भित समीक्षा के लिये धन्यवाद!
sameeksha ke liye dhnayaad....aap isi tarah hamen guide karte rahiye taaki ham sab apni lekhni sudhaar saken
ऋषभदेवजी,
बहुत आभार! परंपरा को निश्चित ही पकड कर चलना आवश्यक है।
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