सोमवार को प्रायः यूनिकवि की ही कविता प्रकाशित होती रही है। चूँकि अब पाठकों की संख्या बढ़ी है, इस लिहाज़ से रोज़ाना कविताओं की संख्या भी एक से अधिक अपेक्षित है। यह वार यूनिकवि के लिए सुरक्षित है, अतः एक और कविता के रूप में हम प्रतियोगिता में ही आई ७ वें स्थान की कविता 'नाम' लेकर आये हैं। आनंद लीजिए।
कविता- नाम
कवयिता- पीयूष पण्डया, भोपाल
-अम्मा......
-क्या है? खुल्ले पैसे नहीं हैं.
-खुल्ला काम तो होगा.
घर में तमाम तो होगा
आपको आराम तो होगा.
-अच्छा ! काम करेगा?
तो फिर नाम बता,
अपना धाम बता,
अपना राम बता.
- मुसलमान, नारूल्ला.
-अरे!
ये कोई नाम है भला?
तुझे शर्म नहीं आती.
धर्म और जाती,
मर्म और माटी ,
कर्म और ख्याति से हम हिंदू है.
और,
ये हिंदू मोहल्ला है,
यहाँ धर्म का बहुत हॉहल्ला है.
मै तुझे काम नहीं दे सकती,
समाज से मुह नहीं मोड़ सकती,
और ,
अगर काम चाहिए तो
नाम बदलना होगा.
-जैसा आप कहें.
-तो तू यहीं रहे ,
और नाम हो तेरा नीरुलाल.
(चमक उठा उसका भाल).
--हा हा हा,हो हो.
-अरे! हंसता क्यूं है रे?
-अम्मा...... मेरा असली नाम यही है,
नारूल्ला पिछले मालिक ने रखा था।
रिज़ल्ट-कार्ड
प्रथम चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक- ७, १०, ७
औसत अंक- ८
स्थान- दूसरा
द्वितीय चरण के ज़ज़मेंट में मिले अंक-
८॰५, ८॰५, ८॰७५, ७॰८, ५, ८ (पिछले चरण का औसत)
औसत अंक- ७॰४४८८८
स्थान- तीसरा
तृतीय चरण के ज़ज़ की टिप्पणी-
सामाजिक चेतना की दृष्टि से रचना आकर्षक है परंतु कथ्य किसी लघुकथा से लिया गया लगता है। तुक के प्रति अतिरिक्त मोह दिखाई देता है।
अंक- ३॰९
स्थान- सातवाँ
पुरस्कार- सुनील डोगरा ज़ालिम की ओर से उन्हीं की पसंद की पुस्तकें।
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
पीयूष जी,
आपने बडा गंभीर मुद्दा उठाया है किंतु तुकबंदी के अतिमोह में रचना के मूलभाव को हल्का कर दिया। किंतु आपमें बेहद क्षमतायें यह यह आपकी कविता सिद्ध करती है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
पीयूष जी,
जैसा कि राजीव जी ने कहा, तुक बंदी की अति हो गई है..और अति किसी की भी अच्छी नहीं होती। मुद्दा काफ़ी गंभीर है। मैंने इस तरह की कथा कभी नहीं सुनी थी इसीलिये कविता का अंत मेरे दिल को छुआ।
धन्यवाद
तपन शर्मा
यथार्थ का अच्छा चित्रण है।
पीयूष जी
बहुत ही सुन्दर रचना है । इस देश की दुखती रग को छुआ है आपने ।
सच में जाति- पाति और धर्म सम्प्रदाय में बँट कर हमने बहुत कुछ खोया है ।
दुख की बात है कि आज भी हम इस संकीर्णता से मुक्त नहीं हो पाए हैं ।
आज जब भारत अपनी स्वतंत्रता की ६०वीं वर्षगाँठ मना रहा है यह कविता
विचार के लिए पुनः प्रेरित करती है । साधुवाद
ह्म्म कविता सच्ची है... सच मे ऐसा होता रहता है... मुझे याद है कोलकाता मे मेरे पडोसी ने भी ऐसे ही नौकर रखा था...।
पर हाँ एक बात तो साफ है कि अब कम से कम ऐसी भावना नही रही कि हिन्दु मुस्लिम के हाथ का खाना नही खायेंगे, तभी तो नाम बदलकर रखने की बात की है... यह अलग बात है कि अभी समाज के सामने कहने से कतरा रहे हैं।
पीयूष जी,
आपने एक ज्वलंत समाजिक मुद्दे पर लेखनी चलाई है इसके लिए साधुवाद। तुकबंदी की तरफ़ झुकाव होने के बवजूद रचना अपना संदेश देने मे सफल रही है।
सोचने को विवश करती है यह कविता !
वैसे एक राज़ की बात बताऊं तो ख़ुद पीयूष जी को भी नही पता था की यह कविता इतनी गंभीर है | इसे लिखने के बाद इसे एक बहुत ही सहज और सामान्य सा हास्य व्यंग समझ रहे थे |
वैसे यह कवि की शैली नही है वी बड़े दर्दीले और अलंकारों,छंदों का भरपूर प्रयोग करने वाले कवि हैं और यह बात आगे शायद स्पष्ट हो जाएगी |
वैसे पीयूष जी, मैं इस बात से बड़ा अचंभीत हूँ कि आपने इससे बेहतर कविताएँ होने के बाद भी यह कविता चुनी !
कविता अच्छी है निस्संदेह ! परंतु आपका मित्र होने के नाते मैं जनता हूँ की आप इससे बेहतर दे सकते हैं | आशा करता हूँ की मुझे आगे से वही पीयुषज्ी देखने को मिलेंगे जिन्हे मैं जानता हूँ .......
मेरे हिसाब से ये एक अच्छी रचना है। तुकान्त है तो क्या हुआ इसमें बुरा क्या है यह नहीं समझा। गति, यति, गेयता सब अच्छी है और जो एक अच्छी कविता का आचरण होना चाहिये इस कविता का वैसा ही है।
समीक्षकों की प्रतिक्रिया का इंतेज़ार रहेगा।
सभी टिप्पानिकर्ताओं को धन्यवाद कि उन्होने इस कविता के लिए समय दिया तथा टिप्पणी की....................
आप लोग ग़लत समझ रहे है ..........कविता मे तुक की अधिकता नही है आप देख सकते है कि कहीं भी बिना अर्थ के मैने कहीं भी प्रयोग नही किया है............ अन्यथा मुझे इतने अंक भी ना मिल पाते जीतने (प्रथम चरण मे 8 तथा द्वितीय मे 7.4) अभी मिल पाए
कविता इसलिए अच्छी नही है क्यूँकी वो कथात्मक है,उसमे बिंब नही है,अलंकार नही है ...........
कविता केवल अंत मे अचंभीत करती है...........उसके कारण ही मुझे पहले तथा दूसरे चरण मे इतने no. मिल पाए \
कविता आनंदित नही करती.................
और विपुल जी आप मेरी पोल खोलने आए है क्या यहाँ???????
हा हा हा
मुझे कविता में एक ही परेशानी लगी। प्रवाह को बनाये रखने के चक्कर में यह व्यंग्य जैसी हो गई है। जबकि मेरा मानना है कि केवल इस बिडम्वना पर लेखनी अगर सहज रूप से ही चल जाये तो सभी व्यंग्य फ़ेल हो जायेंगे।
पीयूष जी,
आपकी आगामी कविता का इंतज़ार है।
दुनिया क्या कहेगी । मूल डर ये रहता है । अच्छा लिखा है ।
पीयुष कवि्ता का भाव मुझे अच्छा लगा ।
और प्रस्तुति भी । बस राजीव जी की बात पर ध्यान दें ।
नए ढंग की कविता पढ़ी...काफी अच्छी लगी।
कविता प्रयोग करती है, चौंकाती है। आपमें बहुत संभावनाएं हैं, आगे भी पढ़ना चाहूँगा।
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