राह नित्य की परन्तु आज कुछ नया नया था
झाड झँखाड भरे भूमिस्थल का भाग्य उदय हुआ था
इक तरफ चल रही थी भूमि-पूजन की तैयारी
दूजी ओर स्तह समतल कर रही मशीनें भारी
पँडाल में मेहमानों की भरमार थी
पट्टिका बीस मंजिल इमारत प्रचार की
दिन बीते निर्माण कार्य ने गति पकड ली
नींव मशीनों ने कुछ एक दिनों में खोद दी
सीमेंट, ईंट, रेत, रोडी के ढेर लगने लगे
टीन-टप्पड, टाट-पट्टी के छप्पर तनने लगे
इस्पात के सतम्भ कंकरीट से ढक ठोस बन गये
इमारत के ढाँचे की शक्ल में आकाश में तन गये
रात दिन इमारत के आस पास रोशनी की चकाचोंध थी
मगर टीन-टप्पड की झोंपडियाँ अँधेरों में थी
अँधेरा गरीबो और गरीबी के लिये है कीमती
यौवन, बुढापा अँधेरों में नहाता भी है
और नित्यक्रम अपने निपटाता भी है
सँगमरमर के ढेर तो इमारत के लिये थे
उनके हिस्से में तो कीचड भरा आहता ही है
दिन बीते, माह बीते, दो वर्ष होने को आये
पूर्ण हुई इमारत, हर एक के मन को भाये
फिर पँडाल सजा, फिर सफेदपोशों की भरमार
छत मिलेगी आज किसी को, किसी का छुटेगा घरबार
चप्पा चप्पा अपना था आज तलक, आज नहीं कोई सरोकार
सृजन पूरा होते ही सृजक खो बैठे अपना अधिकार
अपने ही हाथों अपना बसेरा ढाह रहे हैं
खट्टी, मीठी कितनी यादें ले कर
उठा पोटली अलग अलग दिशा में,
जाने सब कहाँ वो जा रहे हैं
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7 कविताप्रेमियों का कहना है :
मोहिन्दर जी
अच्छी कविता लिखी है । बहुत संवेदन शील कविता है । कहीं- कहीं शिल्प कुछ फीका
पड़ा है किन्तु भाव बहुत ही सु्न्दर हैं । बड़ी-बड़ी इमारतें बनाने वालों ने कभी इतना सोचा
होता तो यह दुनिया कुछ और ही होती । आपने समाज तक उनकी व्यथा लाकर एक
सेतु का कार्य किया है । आप निश्चय ही बधाई के पात्र हैं ।
मोहिन्दर जी!
भावगत दृष्टि से कविता बहुत सशक्त है, परंतु शिल्प में कुछ कमी रह गयी है. शायद बहुत ज़ल्दबाज़ी में लिखी गयी है यह कविता. आशा है कि अगली बार एक बहुत ही खूबसूरत रचना पढ़ने को मिलेगी.
मोहिन्दर जी,
चित्र खींचती हुई रचना है। शब्द भी चित्र के अनुकूल हैं, सोच सोच कर भरे गये सुन्दर रंग हैं। संवेदित करती रचना है, विषेश कर इन पंक्तियों का सौन्दर्य:
"टीन-टप्पड, टाट-पट्टी के छप्पर तनने लगे
इस्पात के सतम्भ कंकरीट से ढक ठोस बन गये
इमारत के ढाँचे की शक्ल में आकाश में तन गये
रात दिन इमारत के आस पास रोशनी की चकाचोंध थी
मगर टीन-टप्पड की झोंपडियाँ अँधेरों में थी
अँधेरा गरीबो और गरीबी के लिये है कीमती"
"सृजन पूरा होते ही सृजक खो बैठे अपना अधिकार
अपने ही हाथों अपना बसेरा ढाह रहे हैं
खट्टी, मीठी कितनी यादें ले कर
उठा पोटली अलग अलग दिशा में,
जाने सब कहाँ वो जा रहे हैं"
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत अच्छे भावों के साथ एक अच्छी रचना लगी मुझे आपकी मोहिंदर जी..
छत मिलेगी आज किसी को, किसी का छुटेगा घरबार
चप्पा चप्पा अपना था आज तलक, आज नहीं कोई सरोकार
सृजन पूरा होते ही सृजक खो बैठे अपना अधिकार
अपने ही हाथों अपना बसेरा ढाह रहे हैं
यह पंक्तियां बहुत ही सही लगी ...बधाई
मोहिन्दर जी,
अच्छी कविता के लिये बधाई। अच्चा चित्र उभारा है आपने।
सृजन पूरा होते ही सृजक खो बैठे अपना अधिकार
ये पंक्ति बहुत पसंद आई।
बहुत अच्छी कविता के लिये बधाई।
मोहिंदर जी,
आप कितने गंभीर लेखक हैं, इस कविता से पता चलता है। हाँ, यह सत्य है कि कविता के शिल्प पर आपने कुछ भी ध्यान नहीं दिया है। लेकिन इस सोच के पीछे छिपी आपकी महान आत्मा हमें दिखाई देती है। आपने एक-एक पंक्ति में अपनी संवेदना ज़ाहिर की है। ऐसे लोग जो दूसरों का घर बसाते हैं और खुद बेघर होते हैं, उनका दर्द कोई समझे न समझे, आपने खूब समझा है। नमन है आपको
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