जबतक अम्बर की ऊँचाई सिमट न आये इन पंखों में
तबतक मत बाँधो वितान अपनी उड़ान का , पंख पसारो
कोई सीमा नहीं बनी है ब्रह्मांडों के किसी भुवन में
सीमा तो निर्मित होती है विहगों के अपने ही मन में
सीमा होती यदि उड़ान की , तो फ़िर स्वर्ग बना क्यों बोलो
कुछ भी बाहर नहीं पहुँच के, जोर लगाओ, डैने खोलो
दीख रहा है जो आँखों को धुँधला सा , वह पास पड़ा है
जो सूरज चुँधियाता था आँखों को , देखो बुझा पड़ा है
एक दीप के बुझ जाने से तारे नहीं खत्म होते हैं
थोड़ा पंखों के जलने से , सपने नहीं भस्म होते हैं
यदि कल्पना पहुँच सकती है किसी लोक के किसी सुमन पर
तो निश्चय ही मिल सकता है एक पुष्प वह इसी भुवन पर
यदि सपनों की पहुँच कहीं है ,तो वह पहुँच तुम्हारी भी है
कभी जीत की चाह जीव की,बाधाओं से कहीं रुकी है?
जबतक तारों की उजियाली , सिमट न जाये इन कदमों में
तबतक उनको चुन चुनकर झोली भर डालो, पंख पसारो
जबतक अम्बर की ऊँचाई सिमट न आये इन पंखों में
तबतक मत बाँधो वितान अपनी उड़ान का , पंख पसारो
-आलोक शंकर
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
12 कविताप्रेमियों का कहना है :
आलोक जी
बहुत ही आशावादी कविता है। कवि का काम ही आशा जगाना होता है और आपने तो पंखों
को उड़ने की शक्ति प्रदान कर दी है । मनुष्य को कभी भी अपनी परिस्थतियों से हार नहीं
माननी चाहिए । प्रसाद जी ने शायद इसीलिए कहा था-
पृकृति के यौवन का श्रृंगार करेंगें कभी ना बासी फूल ।
मिलेंगें वेच जाकर अति शीघ्र आहः उत्सुक है उनको धूल ।
एक आशावादी रचना के लिए बधाई ।
जबतक अम्बर की ऊँचाई सिमट न आये इन पंखों में
तबतक मत बाँधो वितान अपनी उड़ान का , पंख पसारो
आलोक जी कविता बहुत अच्छी है ।खासतौर पर ये दो पंक्तियां सक्षम है घोर निराशावादी को भी आशावादी बनाने में-
यदि सपनों की पहुँच कहीं है ,तो वह पहुँच तुम्हारी भी है
कभी जीत की चाह जीव की,बाधाओं से कहीं रुकी है?
आलोक जी,
बहुत सुन्दर रचना है। मैं नैराश्य पर बहुलता में काव्य-सृजन देखकर चिंतित था, आपकी कविता इस लिहाज से भी प्रशंसा के योग्य है। कविता में प्रवाह भी उत्तम है।
एक दीप के बुझ जाने से तारे नहीं खत्म होते हैं
थोड़ा पंखों के जलने से , सपने नहीं भस्म होते हैं
बहुत पसंद आई।
पंख पसारो
alok ji aapki udaan wakai kabil-e-tarif hai visheshkar ye paktiyan -
एक दीप के बुझ जाने से तारे नहीं खत्म होते हैं
थोड़ा पंखों के जलने से , सपने नहीं भस्म होते हैं
bahut bahut badhai
आलोक जी!
कविता सुंदर है मगर लय कहीं कहीं अवरुद्ध हो रही है. अन्य लोगों के लिये शायद यह रचना भी दूर की कौड़ी हो सकती है, परंतु आपके स्तर को देखते हुये यह उतनी अच्छी नहीं कही जा सकती. हाँ भाव बहुत ही सुंदर हैं और पाठक को पूरी तरह प्रभावित करने में सक्षम भी.
और बेहतर की प्रतीक्षा में-
अजय यादव
आलोक जी,
आपने हिन्दी का परचम कस कर थाम रखा है..और इस तरह थाम रखा है कि उम्मीद बढ गयी है, कविता इतनी आसानी से मर नहीं सकती।
शिल्प की कसावट और भावों की गहरायी जैसे आपकी रचनाओं की परिभाषा है। हर पंक्ति उत्कृष्ट...और आशावादी विचारों की उर्जा प्रदान करने के लिये आभार।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आलोक,
अच्छे विचार हैं।
आशाएँ जगाने वाला कवि सर्वश्रेष्ठ कवि होता है।
आपने इस कविता में अनेक आशाएँ जगाई हैं, आलोक जी। इतने अच्छे काव्य को उपलब्ध करवाने के लिए बहुत धन्यवाद।
एक दीप के बुझ जाने से तारे नहीं खत्म होते हैं..
इसे पढ़ कर 'जीवन नहीं मरा करता है' की स्मृति ताज़ा हो गई।
आशावादी कविता लिखकर आप काव्य-कर्मी का धर्म निभा रहे हैं। कितनी बड़ी बात कह दी है आपने इन पंक्तियों में!
एक दीप के बुझ जाने से तारे नहीं खत्म होते हैं
थोड़ा पंखों के जलने से , सपने नहीं भस्म होते हैं
आपका भाषाज्ञान तारीफ के काबिल है, यह बात आपकी अन्य कविताओं की तरह इस आशावादी कविता में भी साबित होती है।
आलोक जी
बहुत खूब ..बहुत खूब..बहुत खूब..
आप हर बार अपनी रचना की प्रशंषा के लिये मुझे दुविधा में दाल देते हैं..
हर बार मुझे परेशानी होती है प्रशंशा के लिये शब्द चयन में..
इस बार मैं शाब्दिक प्रशंशा नहीं कर पाऊँगा
बहुत शानदार क्रति है आप की
आभार
सबसे पहले तो हिन्दी केइस आलोक को इस नाखादा आलोक का नमस्कार.
सर जी, आपने तो गकाब ही कर दिया, इतनी प्यारी और आशावादी कविता पढ़कर मन प्रफुल्लित हो गया.
बहुत बहुत साधुवाद
आलोक सिंह "साहिल"
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)