नमस्कार,
विलंब के लिए क्षमाप्रार्थी हूँ....प्रस्तुत है यह रचना...
सुबह जीता हूँ तो शाम तक मर जाता हूँ..
एक ही रोज़ कई हिस्सों में बिखर जाता हूँ...
जब भी चलता हूँ, तेरे दर को, कि सुकून मिले
लोग करते हैं ये सवाल, किधर जाता हूँ??
तेरी सूरत के सिवा सारा जहाँ ग़ैर लगे,
अब तो आलम है कि साए से भी डर जाता हूँ...
ये ना कहना तुम्हारे पास मैं नहीं होता,
सुख में-दुःख में तेरी पलकों पे बिखर जाता हूँ.....
ख़्वाब बिकते हैं, सुना है कि जन्नत है वहीँ,
माँ!! छुड़ाकर तेरा दामन मैं शहर जाता हूँ...
तुमसे शिकवा करूं, मेरी फितरत ही नही....
मैं वो शम्मा हूँ, जो शोलों में निखर जाता हूँ........
निखिल आनंद गिरि
९८६८०६२३३३
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
निखिल जी,
सुबह जीता हूँ तो शाम तक मर जाता हूँ..
एक ही रोज़ कई हिस्सों में बिखर जाता हूँ...
बहुत सुन्दर! मन का पीर शब्दों में उतर आया है।
ख़्वाब बिकते हैं, सुना है कि जन्नत है वहीँ,
माँ!! छुड़ाकर तेरा दामन मैं शहर जाता हूँ...
अत्यंत मार्मिक भाव हैं। बधाई।
बहुत खूब ,दिल छू लेने वाली ।
निखिल जी,
बहुत् परिपक्व रचना है, डूब कर लिखी हुई। महसूस करने वाली रचना है.....प्रत्येक पद मोती है। बहुत बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
निखिल जी
बहुत अच्छा लिखा है । जीवन की जटिलताओं को इतने सुन्दर शब्दों में बयान किया है ।
एक भावुक रचना के लिए बधाई ।
निखिल जी!
बहुत सुंदर रचना है. भाव और शब्द दोनों बहुत अच्छे लगे. बधाई!
तुमसे शिकवा करूं, मेरी फितरत ही नही....
मैं वो शम्मा हूँ, जो शोलों में निखर जाता हूँ....
shamma streeling hai , so "jaata hoon " suit nahi karta hai
baaki kavita acchi hai aur bhaav bhi .. thoda aur likha jaa sakta tha
:)
निखिल जी
सुन्दर भाव भरी रचना के लिये बधायी
एक सुंदर रचना के लिए बधाई निखिल जी
ख़्वाब बिकते हैं, सुना है कि जन्नत है वहीँ,
बहुत सुंदर पंक्ति है यह ..
तुमसे शिकवा करूं, मेरी फितरत ही नही....
बहुत अच्छे ...बधाई।
मित्रों,
प्रतिक्रिया के लिये धन्यवाद। आलोक जी, आपका कहना सही है।
तुमसे शिकवा करूं, मेरी फितरत ही नही....
मैं वो शम्मा हूँ, जो शोलों में निखर जाता हूँ....
इसकी जगह-
तुमसे शिकवा करुं, मेरी फितरत ही नहीं,
मैं तो शम्मा हूं, तूफां में निखर जाता हूं।।
ये कैसा रहेगा।
इतनी कम प्रतिक्रियाएं चिंता का विषय है।
निखिल जी,
मैं देरी से टिप्पणी कर रहा हूं, इसके लिए क्षमा करें।
रचना बहुत भावमयी और शिल्प की दृष्टि से भी सधी हुई है। दूसरे शेर को पढ़के ग़ालिब की याद आई, जाने किस शेर की?
खैर, आप कमाल लिख रहे हैं इन दिनों।
जब भी चलता हूँ, तेरे दर को, कि सुकून मिले
लोग करते हैं ये सवाल, किधर जाता हूँ??
ख़्वाब बिकते हैं, सुना है कि जन्नत है वहीँ,
माँ!! छुड़ाकर तेरा दामन मैं शहर जाता हूँ...
वाह, दो पंक्तियों में इतनी बात कहना वाकई बहुत मुश्किल है, जिसे आपने आसान कर दिया है।
बड़ी हीं खूबसूरत गज़ल है गिरि जी।
सुबह जीता हूँ तो शाम तक मर जाता हूँ..
एक ही रोज़ कई हिस्सों में बिखर जाता हूँ...
ख़्वाब बिकते हैं, सुना है कि जन्नत है वहीँ,
माँ!! छुड़ाकर तेरा दामन मैं शहर जाता हूँ...
मनोरम पंक्तियाँ हैं।
आपने अंतिम शेर में कुछ बदलाव लाने की जो बात कही है ,वो भी सही नहीं है। आलोक जी की शिकायत शम्मा शब्द से है अत: उसके रहते तो शिकायत दूर नहीं हो सकती ना :)
आपकी अगली रचना का इंतज़ार रहेगा।
khubsurat !!
गज़ल के व्याकरण को नजरंदाज कर दें तो यह एक बेहद उम्दा रचना है। आप बधाई के पात्र हैं।
निखिल जी,
आपने जो बदलाब किये हैं, मात्र उससे आलोक जी की चिंता नहीं खत्म होती। 'शम्मा' स्त्रीलिंग है, उसके अनुसार अगर 'मैं वो शम्मा हूँ, जो शोलों में निखर जाता हूँ' के पहले उपभाग में यदि शम्मा को नैरेटर का विशेषण मानें और आगे यही कर्ता तो 'निखर जाती हूँ' ठीक होगा।
लेकिन मुझे लगता है कि 'मैं' ही हर जगह कर्ता के रूप में विद्यमान है, इसलिए इसमें व्याकरण की गलती नहीं है। वैसे भी मैंने बहुत ऐसी पारम्परिक कविताएँ/ग़ज़लें पढ़ी जिसमें लय की खातिर व्याकरण में थोड़ा हेरफेर कर लिया जाता है।
आपकी ग़ज़ल पसंद आई।
shailesh jee,
jo cheez aapko nazar mein aayi, maine bhi waisaa hi dhyaan mein rakha tha....dar asal kabhi-kabhi paathak ek baar padhkar aisi galtiyaan dhoondh leta hai, jo baar-baar padhe jaane se galti nahi lagti........maine baad ki shuddhi bme "mai wo" ki jagah "mai to" bhi kiya hai....."TANHA KAVI" ji, mere khayal se aalok ko mere vyaakaran se shikaayat ti, jo shamaa ke rahte bhi door ki jaa sakt hai....waise maine jo likhaa hai, wo mujhe galat lagi nahi....
aage paathakon ki tipani sar aankhon par......
बहुत सुन्दर ....आभा
निखिल ....
बहुत बहुत स्नेह और शुभाशीष
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