किसी नरपति के तनय को बेर शबरी का खिलाना
या किसी हनुमान का पर्वत उठा औषधि खिलाना
रास से राधा किशन के झूमता मदमस्त मधुबन
प्रेम का पर्याय जीवन
धूप में तपती धरा को रोज थोड़ा नम बनाती
रेत की नीरस त्वचा पर ,हर घड़ी चुंबन लुटाती
आप मिटकर रस लुटाती लहर का अभिप्राय जीवन
प्रेम का पर्याय जीवन
निर्झरों का बह निकलना, दो किनारों को मिलाना
राह रोके पत्थरों को रोज सीने से लगाना
या लपेटे साँप तन पर सुरभि देना यथा चंदन
प्रेम का पर्याय जीवन
हरी पत्ती की सतह पर , रजकणों को धो मिटाती
ओस की इक बूँद और उस बूँद का अभिप्राय जीवन
प्रेम का पर्याय जीवन
-आलोक शंकर
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14 कविताप्रेमियों का कहना है :
आलोक जी,
आपने जो प्रेम के उदाहरण दिये, मुझे वो बहुत अच्छे लगे।
"हरी पत्ती की सतह पर , रजकणों को धो मिटाती
ओस की इक बूँद और उस बूँद का अभिप्राय जीवन"
धन्यवाद,
तपन शर्मा
आलोक जी..
क्या बात है..
आप ने तो मुझे अपना प्रशंशक बना लिया..
बहुत प्यारी रचना लगी है मित्र..
बहुत बहुत बधाई..
आप से और भी बहुत सी अपेक्षायें हैं..
उत्क्रष्ट रचना
वाह...
आलोक जी आपके सारी कविताओं में एक प्रवाह होता है ,एक लय होती है|जो हमे कविता से अलग नही होने देती,बाँधे रखती है और भावों को और भी अधिक खोल कर सामने लाती है|और यह कविता भी इसका अपवाद नही है|आपने प्रेम के जो उदाहरण चुने वह भी एकदम सटीक और ह्रदय स्पर्शी है|
सुंदर रचना के लिए बधाई..
निर्झरों का बह निकलना, दो किनारों को मिलाना
राह रोके पत्थरों को रोज सीने से लगाना
या लपेटे साँप तन पर सुरभि देना यथा चंदन
प्रेम का पर्याय जीवन
बहुत सुंदर लिखा है दिल को छू गयी यह पंक्तियाँ
प्रेम का पर्याय जीवन ...:)
आलोक जी
आपने सही कहा । प्रेम ही जीवन का आधार है ।
वह इस सृष्टि के कण-कण में व्याप्त है और सबको जीवन
दे रहा है । यह धरती, आकाश सब एक इसी के कारण चल
रहे हैं । आपने इस अनोखी शक्ति को पहचाना - बधाई
आलोक जीं,
आपकी कवितायें मेरे लिए प्रेरणादायी हैं............ना सिर्फ लय और गति कि दृष्टि से, अपितु भावों का प्रवाह भी उत्तम.........आप सचमुच युग्म परिवार के "दिनकर" हैं..............आपसे बहुत कुछ सीखना है............वाह-वाह........उम्मीद करता हूँ आपसे जल्द ही मुलाक़ात होगी..........
आपका अनन्य प्रशंसक,
निखिल आनंद गिरि...
किसी नरपति के तनय को बेर शबरी का खिलाना
या किसी हनुमान का पर्वत उठा औषधि खिलाना
आलोक जी, दूसरी पंक्ति में आप "खिलाना" हीं लिखना चाहते थे या फिर "हीं लाना"। थोड़ा एक बार और देख लीजिएगा ,क्योंकि "खिलाना" की पुनरावृति हो रही है।
बाकी क्या कहूँ, आपके शिल्प की कसावट का तो मैं बहुत बड़ा प्रशंसक हूँ। भाव-पक्ष में भी आप कोई कमी नहीं छोड़ते। आपने युग्म पर दिनकर और गुप्त को जीवित रखा है। बस ऎसे हीं प्रेम-सुधा लुटाते रहें।
आपकी अगली रचना के इंतजार में-
विश्व दीपक 'तन्हा'
आलोक जी,
प्रेम की मुखर अभिव्यक्ति के लिये कोटिशः साधुवाद।
एक एक पंक्ति अद्भुत है-
हरी पत्ती की सतह पर , रजकणों को धो मिटाती
ओस की इक बूँद और उस बूँद का अभिप्राय जीवन
ये पंक्ति विशेष पसंद आयी।
जितना सुन्दर प्रेम होता है उतनी ही सुन्दर अभिव्यक्ति आलोकजी..
बधाई!!!
prem bina jeevan vyarth hai.....prem ka prarya jeevan.....sundar rachna.....bhadhaai sweekaaren
आपके सारे पर्याय मन हरा कर गये। बिम्ब अनूठे हैं, सुन्दर हैं और स्पर्श करते हैं। शिल्प आलंकारिक है और करीने से बुना हुआ है। आलोक आपकी प्रतिभा का कोई पर्याय नहीं..
*** राजीव रंजन प्रसाद
दो बार 'खिलाना' कहीं आप जल्दी में तो नहीं लिख गये! वैसे पूरी कविता में अनूठे बिम्ब हैं। आपने पुनः सिद्ध लिया कि 'प्रेम का पर्याय है जीवन'।
बिंब अच्छे है...
और सभी तारीफ़ कर रहे है तो कविता अच्छी होगी ही पर...
पता नही मुझे ही क्यूं लग रहा है की आप के भाव पूरी तरह से कविता मै उतर नही पा रहे....
आप जैसे महान कवि को यह कहना छोटा मुह बड़ी बात होगी पर लगा तो बोल दिया
पर इस बात मे कोई दो राय नही की बिंब सुंदर है.....
डा. रमा द्विवेदी said....
आलोक जी,
प्रेम तो शाश्वत सत्य है इसके बिना जो जीवन जीते हैं वे जीते कहां है तिल-तिल कर मरते हैं...चिर-परिचित भाव को नवीन बिंबों से सजा-संवार कर कविता में प्रेषित करने के लिए बधाई स्वीकारें ....पर ’खिलाना’ शब्द को दोहराएं नहीं ...कविता का सौन्दर्य दुगणित हो जायेगा।
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