ख़्वाब
उन्हें कहो,
आसमान के ख़्वाब न देखें,
कोई उनके ख़्वाबों तक पहुँचने के लिए,
रोज सूरज से उलझ कर
जल जाया करता है।
डर
उसे बदनामियों का डर था,
मुझे नाकामियों का,
वो बदनाम न हो,
इसलिए मैं नाकाम हो गया,
अब भी पूछते हो
कि मैं डरा-डरा क्यों रहता हूँ?
झूठ
झूठ की इस दुनिया में
रोज़ करोड़ों झूठ बोले जाते हैं,
कह दे ना,
कि मुझ बिन तू भी अधूरी है,
एक झूठ और सही।
मुर्दनी
मुर्दनी सी छाई है
इस पूरे शहर में,
रिश्वतें दो
कि तुम्हें ज़िन्दा कहूँ।
श्रद्धांजलि
कभी किसी अख़बार के
श्रद्धांजलि के कॉलम में
मेरा नाम नहीं छपता,
जो रोज मरते हैं,
क्या उनकी तेरहवीं का रिवाज नहीं है?
पतन
गर्म चाय ने
पैर पर गिरकर
मुझे जला दिया,
मुझे जलाने को
तुम भी तो बहुत गिरे थे!
प्यास
तुझे पाकर भी वैसा ही था,
अकेला,
अधूरा,
प्यासा,
कमी तुझमें थी
या कुछ लोग
प्यास के लिए ही जन्म लेते हैं?
गवाही
मेरे सब गवाह
मेरी ओर से बोले,
बस मैंने
उसकी ओर से गवाही दी
और हार गया।
बेलिबास
तेरा नंगा चेहरा
अब और नहीं सहा जाता,
अगली दफा बेलिबास हो
तो पहले मेरी आँखें फोड़ देना।
डर
अब तो आ जाओ,
ये दुनिया
बहुत अँधेरी हो चुकी है,
अब तो डर नहीं होगा
कि कोई देख लेगा।
लापता
मैं लापता हूँ,
उसके शहर में एक मुनादी करवाओ,
वह मुझे लौटा देगा,
वो बेवफ़ा है
पर चोर नहीं।
शादियाँ
शादियाँ
बहुत दर्दनाक होती हैं,
तुम सब
जाने कैसे,
नाच लेते हो,
गा लेते हो...
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
26 कविताप्रेमियों का कहना है :
अच्छी क्षणिकाएं हैं।बधाई।
bahut hi achhi hain aap ki chanikayen......aur haan wo sradhanjali waali mujhe bahut achhi lagi......waise saari ek se badhkar ek thi........
bahut gahri baatein kah gaye hain aap in kuch panktiyon mein......
kahi kahi to bilul hriday tak pahch gayi hain ye panktiyan.......
aise hi likhte rahiye...
meri subhkamnayen....
anurag...
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"तुम्हारे क्षण मेरे लिये बरसों की यादे" हैं.
kaafi achch likhi hain especially yeh wali
मुर्दनी सी छाई है
इस पूरे शहर में,
रिश्वतें दो
कि तुम्हें ज़िन्दा कहूँ।
गौरव जी,
आपकी क्षणिकाओं पर बहुत बहुत बधाई. आप एक अच्छे कवि के रूप में विकास कर रहे हैं. मैंने बड़े कहे जाने वाले कवियों की क्षणिकायें भी पढ़ी हैं, पर वे सफल नहीं हुए, यह तो कहा ही जा सकता है, क्योंकि यह विधा अभी उतना सम्मान नहीं पा सकी है जिसके यह योग्य है.
आपकी कुछ क्षणिकाओं पर विस्तार से टिप्पणी करना चाहूँगा. शायद आपको इससे कोई लाभ हो. बीच बीच में पोस्ट भी करता जाऊँगा, नहीं तो बिज़ली चले जाने से सब उड़ जाता है.
इस बार ये बहुत अच्छी लगीं -
ख़्वाब
उन्हें कहो,
आसमान के ख़्वाब न देखें,
कोई उनके ख़्वाबों तक पहुँचने के लिए,
रोज सूरज से उलझ कर
जल जाया करता है।
डर
उसे बदनामियों का डर था,
मुझे नाकामियों का,
वो बदनाम न हो,
इसलिए मैं नाकाम हो गया,
अब भी पूछते हो
कि मैं डरा-डरा क्यों रहता हूँ?
झूठ
झूठ की इस दुनिया में
रोज़ करोड़ों झूठ बोले जाते हैं,
कह दे ना,
कि मुझ बिन तू भी अधूरी है,
एक झूठ और सही।
मुर्दनी
मुर्दनी सी छाई है
इस पूरे शहर में,
रिश्वतें दो
कि तुम्हें ज़िन्दा कहूँ।
श्रद्धांजलि
कभी किसी अख़बार के
श्रद्धांजलि के कॉलम में
मेरा नाम नहीं छपता,
जो रोज मरते हैं,
क्या उनकी तेरहवीं का रिवाज नहीं है?
पतन
गर्म चाय ने
पैर पर गिरकर
मुझे जला दिया,
मुझे जलाने को
तुम भी तो बहुत गिरे थे!
प्यास
तुझे पाकर भी वैसा ही था,
अकेला,
अधूरा,
प्यासा,
कमी तुझमें थी
या कुछ लोग
प्यास के लिए ही जन्म लेते हैं?
गवाही
मेरे सब गवाह
मेरी ओर से बोले,
बस मैंने
उसकी ओर से गवाही दी
और हार गया।
बेलिबास
तेरा नंगा चेहरा
अब और नहीं सहा जाता,
अगली दफा बेलिबास हो
तो पहले मेरी आँखें फोड़ देना।
डर
अब तो आ जाओ,
ये दुनिया
बहुत अँधेरी हो चुकी है,
अब तो डर नहीं होगा
कि कोई देख लेगा।
आप कहेंगे,. यह तो सारे ही उतार् डीं. पर सभी अच्छी थीं.
अंतिम दो में ज़रा कम मज़ा आया. वे बहुत स्पष्ट नहीं हो पाईं. वैसे इस विधा में अपनी बात कहने के लिये स्थान इतना कम मिलता है कि अपनी बात पूरी कहना मुश्किल है, पर यही तो कवि की चतुराई भी है, और यही तो उसके शब्दों एवम् भावों की पकड़ का सबूत भी है.
एक बात और है. आप अलग अलग समय पर लिखी गयी क्षणिकाओं का विषय के अनुसार वर्गीकरण कर के इनके एक स्वतंत्र प्रकाशन के विषय में भी सोचें. प्रायः दो सौ क्षणिकायें एक पुस्तक के रूप में बहुत अच्छी लगेंगी.
भाव की तीव्रता आपकी रचनओं में अत्यंत प्रबल है, जो पाठक को हृदय तक स्पर्श कर लेती है. यही आपकी सफ़लता का मर्म है.
ईश्वर आपको यशस्वी एवम् मनस्वी बनाए. माँ सरस्वती आपपर अपनी कृपा ऐसे ही बरसाती रहें. यह नयी विधा आपके सशक्त हस्ताक्षरों से पहचानी जाये, इसी शुभाशंसा सहित
आपका
शिशिर
गौरव जी,
मै आपकी लेखनी का कायल हो चुका हुँ.सारी क्षणिकाएँ लाजवाब हैं.
उन्हें कहो,
आसमान के ख़्वाब न देखें,
कोई उनके ख़्वाबों तक पहुँचने के लिए,
रोज सूरज से उलझ कर
जल जाया करता है।
कभी किसी अख़बार के
श्रद्धांजलि के कॉलम में
मेरा नाम नहीं छपता,
जो रोज मरते हैं,
क्या उनकी तेरहवीं का रिवाज नहीं है?
ये विशेष पसंद आए.
झूठ
झूठ की इस दुनिया में
रोज़ करोड़ों झूठ बोले जाते हैं,
कह दे ना,
कि मुझ बिन तू भी अधूरी है,
एक झूठ और सही।
बहुत ख़ूब लिखा है गौरव ..
डर
अब तो आ जाओ,
ये दुनिया
बहुत अँधेरी हो चुकी है,
अब तो डर नहीं होगा
कि कोई देख लेगा।
कमाल का लिखते हैं आप ..सीधा दिल में उतर जाती है आपकी लिखी पंक्तियां
ढेर सारी शुभकामनाओं के साथ
गौरव क्षणिकायें बहुत ही अच्छी हैं । मुकम्मल ,एक-दो बार नहीं कई बार पढा और हर बार आन्नद आया ।किसी एक का जिक्र कैसे करुं ।
तुम कामयाब रहे । बधाई ।
गौरव जी,
अब आपसे अपेक्षायें बढ़ती ही जा रही हैं। हर कोई आपकी इस विधा का कायल है.. जो क्षणिका मेरे दिल तक सब से ज्यादा पहुँचीः
कभी किसी अख़बार के
श्रद्धांजलि के कॉलम में
मेरा नाम नहीं छपता,
जो रोज मरते हैं,
क्या उनकी तेरहवीं का रिवाज नहीं है?
आप ऐसे ही लिखते रहें..ये कम शब्दों वाली कवितायें ज्यादा असर करती हैं..
कोई उनके ख़्वाबों तक पहुँचने के लिए,
रोज सूरज से उलझ कर
जल जाया करता है।
वो बदनाम न हो,
इसलिए मैं नाकाम हो गया,
एक झूठ और सही।
रिश्वतें दो
कि तुम्हें ज़िन्दा कहूँ।
जो रोज मरते हैं,
क्या उनकी तेरहवीं का रिवाज नहीं है?
मुझे जलाने को
तुम भी तो बहुत गिरे थे!
या कुछ लोग
प्यास के लिए ही जन्म लेते हैं?
बस मैंने
उसकी ओर से गवाही दी
और हार गया।
अगली दफा बेलिबास हो
तो पहले मेरी आँखें फोड़ देना।
ये दुनिया
बहुत अँधेरी हो चुकी है,
अब तो डर नहीं होगा
कि कोई देख लेगा।
वो बेवफ़ा है
पर चोर नहीं।
शादियाँ
बहुत दर्दनाक होती हैं,
तुम सब
जाने कैसे,
नाच लेते हो,
गा लेते हो...
गौरव..जो तुम इन दिनों लिख रहे हो वह कभी नहीं मिटेगा। बहुत गहरा है और बहुत गंभीर घाव कर रही हैं तुम्हारी क्षणिकायें।
*** राजीव रंजन प्रसाद
गौरव भाई,
सारी क्षनिकाएं बहुत अच्छी हैं, मुझे इन मे से डर और झूठ वाली बहुत पसंद आई.
...... वो बदनाम न हो,
इसलिए मैं नाकाम हो गया,
अब भी पूछते हो
कि मैं डरा-डरा क्यों रहता हूँ?........ बहुत खूब!
हर बार की तरह इस बार भी आपकी रचनाओं से मई प्रभावित हुआ, आपकी अगली रचना के इंतज़ार मे,
राजेश!
उन्हें कहो,
आसमान के ख़्वाब न देखें,
कोई उनके ख़्वाबों तक पहुँचने के लिए,
रोज सूरज से उलझ कर
जल जाया करता है।
उसे बदनामियों का डर था,
मुझे नाकामियों का,
वो बदनाम न हो,
इसलिए मैं नाकाम हो गया,
अब भी पूछते हो
कि मैं डरा-डरा क्यों रहता हूँ?
झूठ की इस दुनिया में
रोज़ करोड़ों झूठ बोले जाते हैं,
कह दे ना,
कि मुझ बिन तू भी अधूरी है,
एक झूठ और सही।
कभी किसी अख़बार के
श्रद्धांजलि के कॉलम में
मेरा नाम नहीं छपता,
जो रोज मरते हैं,
क्या उनकी तेरहवीं का रिवाज नहीं है?
तुझे पाकर भी वैसा ही था,
अकेला,
अधूरा,
प्यासा,
कमी तुझमें थी
या कुछ लोग
प्यास के लिए ही जन्म लेते हैं?
अब तो आ जाओ,
ये दुनिया
बहुत अँधेरी हो चुकी है,
अब तो डर नहीं होगा
कि कोई देख लेगा।
yeh sabhi kshanikaayen bahut vajan dar hai...jab dil me bhaavon ka samandar hichkole khata hai...aur dard apni parakashta par hot ahai to aisi panktiyaan banti hain...aapko bhadhaaiyaan....sundar likha hai
युग्म पर क्षणिका महोत्सव तब तक चलता रहे जब तक इस प्रकार की सारगर्भित और स्तरीय क्षणिकायें पाठकों को मिलती रहें, यह कामना है।
Kuchh bahut achhe kuchh Kshanik.
Shubhkamnayein.
Siddhartha
kaafi accha likha hai....aise hi likhte rahiye
meri shubkamnayen.......
एक कूप में एक सिंधु को भरना कोई तुमसे सीखे
इंसानों की दुखती रगें कतरना कोई तुमसे सीखे
गौरव जी!
क्षणिकायें सुंदर हैं. बधाई!
its really nice. unpredectable
गौरव जी,
मैं शिशिर जी से सहमत हूँ। मैंने भी नामी कहे जानेवाले रचनाकारों की क्षणिकाएँ पढ़ी हैं, मगर उनमें वो बात नहीं है, जो आपकी क्षणिकाओं में दीखती हैं। आपका जब तक इस विधा से मन न भरें तब तक इसे साधिए। जानते हैं , क्षणिकाओं की शक्ति बहुत से कवियों ने इतनी पहचानी ही नहीं, जितनी इसमें है। आप ज़रुर इसे तारेंगे। मुझे लगता है कि जब हज़ार-दो हज़ार हो जायेंगी तो मैं प्रकाशकों की कुर्सियाँ हिलाऊँगा।
aap ke lagbhag saree chhanikaonme.. me 1 hi charitra ko samajh paee jo apne dhangse apni sarhad ko khojne k koshish me tarsa he...bus itna kahungi us charitra ko.... sansbhar akashme ghutne ka sadiyon ka abhyas..jeevan ka pravah ..kya nahi he ye aatm daah..??????
dard ko cheerne ki kala aap jante hen....sneh
sunita
bahoot khoob
bhahoot khoob
aaj ka din ach chha bitega
bahut achchha lekin shradhangli behad achchhi hai or patan bhi
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