नमस्कार...मुझे रविवार का दिन मिल गया है.....सो, अब आप से अक्सर इसी रोज़ मुलाक़ात होगी....प्रस्तुत है यह कविता........
दुःख का झूला,
सुख का झूला,
जिन्दगी देखे हैं मैंने ख़्वाब अक्सर,
दायरे के पार जाकर-
एक बचपन बेलिबास,
सुस्त चाल, पस्त उसका हौसला है,
और दूजा बाँध फीते स्कूल जाने को चला है....
इधर नन्ही-सी कली आँचल में छिपकर मुस्कुराती है,
उधर सुख का हाथ थामे ज़िन्दगी स्कूल जाती है...
माँ की गोदी से निकलकर,
खो गया बचपन...
बडे होकर....हमने सीखा-
कभी पत्ते फेंकना
और कभी पंक्चर बनाना,
हो न पाया माँ के साथ बैठ रिक्शे में कभी स्कूल जाना....
काश!! अपने भी नसीबा में हुई होतीं किताबें,
दोस्त, सखी-सहेली........
खैर...अपनी भी दुनिया अलबेली....
किस्मत अपनी, जब चाहा हमसे ही खेली.....
काश!!! कोई रास्ता गुलशन भरा हो,
अपने धुंधले ख़्वाब का भी रंग बदले,
सुख का पौधा फिर हरा हो...
रास्ता खुशियों भरा हो
और किस्मत मुस्कुराकर,
हाथ अपने एक दिन आगे बढाए,
काश!! दुःख भरा बचपन कभी स्कूल जाये,
काश!! ज़िन्दगी एक ही झूले में दोनों गीत गाये,
सुख भरे भी,
दुःख भरे भी,
काश..................
निखिल आनंद गिरि
९८६८०६२३३३
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
निखिल जी,
गंभीर कविता के लिए बधाई। बेबसी का सजीव चित्रण किया है।
काश!!! कोई रास्ता गुलशन भरा हो,
अपने धुंधले ख़्वाब का भी रंग बदले,
सुख का पौधा फिर हरा हो...
सुख की चाह मनुष्य की सहज अभीप्सा है।
सशक्त रचना ! आपने बड़ी सहजता से अपनी पीड़ा को पाठक-मन तक हस्तान्तरित कर दिया यह पंक्तियाँ विशेष पसंद आईं :--
"काश!!! कोई रास्ता गुलशन भरा हो,
अपने धुंधले ख़्वाब का भी रंग बदले,
सुख का पौधा फिर हरा हो...
रास्ता खुशियों भरा हो
और किस्मत मुस्कुराकर,
हाथ अपने एक दिन आगे बढाए,"
काश!!! कोई रास्ता गुलशन भरा हो,
अपने धुंधले ख़्वाब का भी रंग बदले,
सुख का पौधा फिर हरा हो...
रास्ता खुशियों भरा हो
और किस्मत मुस्कुराकर,
हाथ अपने एक दिन आगे बढाए,
बहुत ख़ूब लिखा है आपने ...यह पंक्तियाँ विशेष पसंद आईं!!
निखिल जी,
मैने पूरी कविता दो तीन बार पढी, लेकिन समझ नहीं पाया कि आप कहना क्या चाह रहे हैं.. शायद आप उस बालक का चित्रण करना चाह रहे हैं जो स्कूल नही जा पाया.. बीच मैं लगता है कि कवि अपनी हताशा बयान कर रहा है कि वह पढ नही पाया और अन्त में भाग्य के सहारे सब कुछ छोड कर सोच रहा है कि काश ऐसा होता.. कविता में भाव होते हुये भी बिखराव है और बहाव के अभाव में पाठक को बांध पाने में समर्थ नही है
गिरि जी..
कमाल लिखते हैं आप, बिम्बों की प्रयोग-शैली नें आनंदित कर दिया। मैं मोहिन्दर जी के ऑब्जरवेशन से भी सहमत हूँ कि एक बहुत अच्छा विचार पूरी तरह संप्रेषित नहीं हो सका।
*** राजीव रंजन प्रसाद
अच्छी कविता है। मुझे बिम्ब अस्पश्ट नहीं लगे।
kavita aachi hai magar kavi ke vichaar poori tarah ubhar nahi paaye hain...keep writing... good wishes
निखिल जी!
इस बार कुछ मजा नहीं आया. मोहिन्दर और राजीव जी की बातों का ध्यान रखियेगा. बेहतर की प्रतीक्षा रहेगी.
काश!! ज़िन्दगी एक ही झूले में दोनों गीत गाये,
सुख भरे भी,
दुःख भरे भी,
काश..................
यह पंक्ति दिल के बहुत करीब लगी... सुंदर रचना।
मित्रों,
यह कविता दरअसल पूरी तरह से कविता लिखने के लिए नही लिखी गयी थी .....यह एक ऑडियो-विजुअल प्रोजेक्ट (मतलब चित्रों को खींचकर बाद में शब्द डाले गए थे....) के लिए लेखन था, सो कविता कि दृष्टि से थोड़ी कम कासी होना ही जरूरी था, पाठक इसकी हर पंक्ति को किसी चित्र कि कल्पना कर पढ़ें तो शायद अलग आनंद आये.........अभी और भी प्रतिक्रियाओं का इंतज़ार है......
निखिल
निखिल जी
कविता पढी । समझ नहीं आ रहा क्या लिखूँ ।
अच्छी लगी ना बुरी । पता नहीं आप क्या कहना चाहते हैम । ये भी हो
सकता है कि मैं समझ ही ना पाई हूँ ।
कविता समझ से सचमुच परे है। निखिल जी से शिकायत है एवं उम्मीद है कि वे इसे अन्यथा में नहीं लेंगें। जब आप जानते हैं कि कविता परिपक्व नहीं है फिर इसे हिन्द युग्म में डालने का क्या मतलब है। कृपया युग्म में सिर्फ इसलिए ना लिखें कि लिखना है अथवा जिम्मेवारी के वोझ को उतारना है। वैसे मैं कवि की प्रतिभाऔं से परिचित हूं एवं उम्मीद करता हूं कि रविवार की छुट्टी के दिन युग्म नए रंग में हमें आनन्दित करेगा।
देख रहा हूँ लोग आजल बहुत अच्छा अच्छा लिख रहे हैं। कविता अच्छी है, इससे पहले भी जो आज लोगों ने लिखा है सब पढ़ा.. अच्छा लगा। मन प्रसन्न है।
कविता अच्छी है और सुंदर है............
परंतु कहीं कहीं भ्रमित करती है........
मुझे समझने के लिए दुबारा पढ़ना पड़ा........
दुःख का झूला,
सुख का झूला,
तथा
हो न पाया माँ के साथ बैठ रिक्शे में कभी स्कूल जाना....
काश!! अपने भी नसीबा में हुई होतीं किताबें,
दोस्त, सखी-सहेली........
खैर...अपनी भी दुनिया अलबेली....
किस्मत अपनी, जब चाहा हमसे ही खेली.....
ये पंक्तियाँ अदभुत प्रभाव वाली है
निखिल जी सही कह रहे है......... मै उनकी बात से सहमत हूँ............
थोड़ी कॉन्फ़ूज़िंग है पर भ्रम ,दुबारा पढ़ते साथ ही खो जाता है..........
निखिल जी को बधाइयाँ........... और बिंब वास्तव मे अच्छे है,,,,,,,,,,,,,,
निखिल जी कि टिप्पणी पड़ने के बाद तो कविता पड़ने का और अधिक आनंद मिला
कविता की शायद यह परेशानी रही है (यह तथ्य प्रथम दृष्तयाः अवलोकन में है) कि कभी आत्मकथात्मक हो जाती है कभी परकथात्मक। लेकिन कवि विडम्बनाओं को जिस प्रकार से रेखाकिंत करता है , उससे लगता है कि वो जमीन से जुड़ा हुआ है। लगभग ऐसे ही भाव मेरी एक कविता में भी हैं, मुझे पसंद नहीं आई थी, इसलिए कभी प्रकाशित नहीं किया, मगर आज टिप्पणी में लिख रहा हूँ (यह कविता एक तस्वीर को देखकर लिखी गई थी जिसमें एक माँ समुद्र किनारे अपने बच्चे के साथ लहरों का मज़ा ले रही थी) -
कमरे में यह तस्वीर लगा रखी है
और जानती हो माई!
जब भी इस तस्वीर को देखता हूँ
दिल में एक टीस सी उठती है
क्यों नहीं मिल पाया मुझे
समुद्र का किनारा
तुंद हवाओं का झोंका
माई की बाँहों में
सुकून के कुछ पल।
अब तो यह भी याद नहीं
आखिरी बार
तुम्हारी गोद में
कब साँस लिया था मैंने
क्योंकि
तुम्हारी छाती में दूध भी नहीं था।
पाँच साल का हुआ
तो
बाप की दारू का खर्चा
निकालने के लिए
हलवाई की दुकान पर
प्लेट धुलने लगा।
तुम्हारे पास भी वक़्त कहाँ था
मुझ
बच्चे को कुत्तों-बिल्लियों के सहारे
छोड़कर
निकल जाती थी
जीविका-पार्जन के लिए
क्योंकि तुम्हें पता था
कि पेट से निकले
इस अभागे के पास भी
एक पेट है।
फ़िर भी तस्वीरें कुछ तो कहती ही हैं
मैं भी सोचता हूँ कि
हमारे बच्चे
दूध को नहीं तरसा करेंगे
उनके पास इतना वक़्त भी होगा
कि
समुद्र का किनारा भी हो
और इस चित्र के समान दृश्य।
(रचनाकाल ३० जनवरी २००६ तद्नुसार विक्रम संवत् २०६२ माघ शुक्ल प्रतिपदा)
बाद में मैंने अनुभव किया की अप्रभावी अंत के कारण मेरी यह कविता बिलकुल बेकार है। फ़िर भी आपकी कविता से प्रेरणा पाकर यहाँ टिप्पणी में डाल रहा हूँ, क्षमा करेंगे।
शैलेश जी
निखिल जी की कविता तो समझ नहीं आई । आपकी पढ़कर एक मुहावरा याद आ गया ।
शायद आपने सुना हो - बहती गंगा में हाथ धोना --- आपने सुना है ना ?
खै़र ये कविता मुझे अच्छी लगी । जब निखिल जी की कविता प्रकाशित हो सकती
है तो यह तो दौड़ लगाएगी ।
निखिल आनन्द गिरि जी...
आप की रचना मुझे बहुत पसन्द आई....
दुःख का झूला,
सुख का झूला,
जिन्दगी देखे हैं मैंने ख़्वाब अक्सर,
दायरे के पार जाकर-
एक बचपन बेलिबास,
सुस्त चाल, पस्त उसका हौसला है,
और दूजा बाँध फीते स्कूल जाने को चला है....
इधर नन्ही-सी कली आँचल में छिपकर मुस्कुराती है,
उधर सुख का हाथ थामे ज़िन्दगी स्कूल जाती है...
वाह...
बहुत खूब मित्र...
कविता लिखने के समय कवि के मन और मष्तिश्क में जो चल रहा होता है वो कागज पर शब्दों के रूप में उतरता है...
बहुत बार ऐसा होता है कि कविता का पाठक उस स्तर पर नहीं पहुँच पाता जिस बौद्विक स्तर से कवि ने लिखा हो..
मैनें कविता को अपने हिसाब से पढा है..
काश!!! कोई रास्ता गुलशन भरा हो,
अपने धुंधले ख़्वाब का भी रंग बदले,
सुख का पौधा फिर हरा हो...
रास्ता खुशियों भरा हो
और किस्मत मुस्कुराकर,
हाथ अपने एक दिन आगे बढाए,
काश!! दुःख भरा बचपन कभी स्कूल जाये,
काश!! ज़िन्दगी एक ही झूले में दोनों गीत गाये,
सुख भरे भी,
दुःख भरे भी,
काश..................
ये भी बहुत सुन्दर लिखा गया है..
मैं कविता की लय की बात नहीं कहूँगा...क्युक उस लिहाज से कविता कमजोर रही है..
शब्द भी कहीं कहीं पर हल्के रह गये हैं...
किन्तु कविता का जो भाव है वो प्रशंसनीय है..
प्रयास बहुत अच्छा है..
ऐसे विषयों पर लिखने का सही समय चल रहा है..
बहुत बहुत आभार..
मित्रों,
नमस्कार...एक-एक कर सबसे बात करता हूँ....
सुनीलजी, आपसे शुरू करते हैं....ये बात बिल्कुल ही नहीं है की कविता सिर्फ अपना कोरम पूरा करने के लिए डाल दी....आप मेरी प्रतिभाओं से तो परिचित होने का दावा करते हैं मगर मेरी प्रतिबद्धता ज़्यादा मायने रखती है, उसे पहचानें..... बेनामीजी, पीयूष जीं आपको कविता अच्छी लगी,शुक्रिया.........
पीयूष जी, आपने एक काम अच्छा किया कि कविता दोबारा पढी और मेरे भाव समझ सके.....
विपिन जीं, आपने हिंदी-टंकण सीख लिया और इतनी बड़ी-बड़ी प्रतिक्रियाएँ भेज रहे हैं, शुक्रिया.....
शोभा जीं मेरी कविताओं से "फुंकी" हुई मालूम पड़ती हैं...(अगर मैं गलत नहीं तो आपने ही मेरी एक कविता को अपना स्वर दिया है....)....खैर, आपकी नाराजगी क्या है, मैं समझ नहीं पा रहा है...ना मैंने आपकी कवितायें पढी हैं कि आपको समझ सकूं और ना ही आपसे मिला , हो सके तो आप ही मेरा maargdarshan करें.....मुझे ख़ुशी होगी...........
निखिल
kash......maine kavita thodi pahle padhi hoti,khair, sach kahun to maine pahle pratikritayein padhi,shayad utne achchhe se bhaon ko nahi samajh pata. lekin kuchh ek sathiyon ki katu samikshaon ne mujhe tnmay hokar pdhane par majboor kar diya.aah.hmm. ab mai kah sakta hun ki maine kavita padhi aur mere Rooh me bhitar tak utar gayi. sunder..........
ek shikayat karni hai apne tamam sathiyon se ki kavita me rooh ka samavesh hota hai aru ummid ki jani chahiye ki aap rooh ke sath hi kavitaon ko padhein .koi kavita keval isliye buri ya aspastnahi ho jati kisi thode bade adami ya kavi ne usme khot nikal diya hai.pratikriyayein krambadh tarike se padhane se ye bat bilkul spast ho jati hai ki adhiktar prtikriyayein kahi na kahi kisi SAMIKSHA VISHESH se prerit hain.aisa karke aap apni mualikata ko bevajh nast karne ki koshish kar rahe/rahi hain.
dil aur dimag mein kuchh to fark hona hi chahiye.
sathiyon mai is kshetra me bada alpagya hun .gar kisi ko meri batein chubhi ho to mafi.
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)