यह कविता मैं उन सारे शहीदों और उनके माता-पिता को समर्पित करता हूँ , जिन्होंने देश की स्वतंत्रता की रक्षा में अपना सर्वस्य बलिदान दे दिया।
हर काल बने वे ढाल जहाँ
मौसम ने था करवाल चुना,
खुद बन बैठे जब वे अंगारे
सहमे शोलों ने ताल चुना,
निज ललने की रक्षा के लिए
खुद में भीषण भूचाल चुना,
पथ डिगे न, सो संबल के लिए
मात-पिता ने था पाताल चुना।
जिनने निदाघ, शिशिर का भी
ना बोध शिशु को होने दिया,
आह त्याग! देश पर मिटने को
हृदय काट, वही नौनिहाल चुना।
निर्मोही बन अंतिम पग पर
ममता अपनी जो वार चली,
अंतिम वाणी तक देश रहे-
कहने को स्वर विकराल चुना।
कभी शीश पिता का झुके नहीं,
नहीं राष्ट्र-दर्प हीं झुके कभी,
कर प्रण, मातृ को देने को
उस पुत्र ने है अपना भाल चुना।
धन्य यह राष्ट्र जहाँ हर सीने में
देश-प्रेम लहू बनकर दौड़े,
हरसू , हर दिल से यही चले-
किया पुण्य जो माँ ने लाल चुना।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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29 कविताप्रेमियों का कहना है :
तन्हा जी,
सशक्त कृति के लिए बधाई।भाव पक्ष सबल है एवं प्रवाह भी सुन्दर है।
कभी शीश पिता का झुके नहीं,
नहीं राष्ट्र-दर्प हीं झुके कभी,
कर प्रण, मातृ को देने को
उस पुत्र ने है अपना भाल चुना।
ईन पंक्तियों मे त्याग की मार्मिक अभिव्यञ्जना है।
तनहा जीं,
बड़ी ओजपूर्ण कविता है....कही-कही अंत में लय टूटती है....वैसे बहुत ही अच्छी कविता है...विचार भी उतने ही उत्तम.......पहले मुझे लगा आलोक शंकर को पढ़ रहा हूँ.....फिर नीचे आपका नाम दिखा....बधाई.......
निखिल
तन्हा जी
बहुत ही प्रासंगिक कविता लिखी है आपने ।
देश में राष्ट्रीयता की भावना की महती आवश्यकता है ।
बहुत-बहुत बधाई
badhiya kavita lagi...hindyugm par maine yah pahli kavitaa padhi hai........
rinku guptaa
समयानुकूल और अच्छा लिखा है । वैसे भी राष्ट्र भक्ति मौके की मोहताज हो गयी । १५ अगस्त ,२६ जनवरी तब ही थोडी सुगबुगाहट होती है ।
acchi kavita hai.
इक सफल रचना जो अपना संदेश पाठकों तक सही तरह से पहुँचा रही है .....
यह पंक्तियाँ अच्छी लगी :-
"कभी शीश पिता का झुके नहीं,
नहीं राष्ट्र-दर्प हीं झुके कभी,
कर प्रण, मातृ को देने को
उस पुत्र ने है अपना भाल चुना।"
परंतु मेरे मत से यदि अंतिम पंक्ति "उस पुत्र ने है अपना भाल चुना।" की जगह " उस पुत्र ने अपना भाल चुना" होती तो शायद प्रवाह ज़्यादा अच्छा होता इसी तरह "धन्य यह राष्ट्र जहाँ हर सीने में " इस पंक्ति में भी "यह" अनावश्यक सा प्रतीत हो रहा है |
प्रवाह आपकी कविता की जान है यदि इसमें और सुधार हो सकता तो शायद कविता और भी अच्छी बन पड़ती |
वैसे अभी भी एक संपूर्ण रचना है यह इसमें कोई दो राय नहीं !
निर्मोही बन अंतिम पग पर
ममता अपनी जो वार चली,
अंतिम वाणी तक देश रहे-
कहने को स्वर विकराल चुना।
बहुत सुंदर कविता लिखी है आपने तन्हा ज़ी
दीपक जी,
बलिदान भाव की सुन्दर कविता है परन्तु क्या निम्न की आप व्याख्या करेंगें कि आप क्या कहना चाह रहे हैं
१. "जिनने निदाघ, शिशिर का भी"
जिनने और निदाघ शब्द पर मेरी शंका है.
२. "पथ डिगे न, सो संबल के लिए
मात-पिता ने था पाताल चुना।" - इन दो पंक्तियों से आप का क्या आशय है?
पथ डिगे न, सो संबल के लिए
मात-पिता ने था पाताल चुना।
जिनने निदाघ, शिशिर का भी
ना बोध शिशु को होने दिया,
आह त्याग! देश पर मिटने को
हृदय काट, वही नौनिहाल चुना।
धन्य यह राष्ट्र जहाँ हर सीने में
देश-प्रेम लहू बनकर दौड़े,
हरसू , हर दिल से यही चले-
किया पुण्य जो माँ ने लाल चुना।
मेरें रोंगटे खडे हो गये, जिस ओजस्विता से आपने लिखा है उसे महसूस कर सका। बहुत अच्छी रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मोहिन्दर जी आपने जो दो पंक्तियाँ रेखांकित की हैं , वे मुझसे सबसे प्यारी हैं [:)]
१. जिनने== जिन्होंने
निदाघ == गर्मी
इस पंक्ति का अर्थ यह है कि माता-पिता अपने शिशु को गर्मी और ठेढ दोनों के दुष्प्रभाव से बचाकर रखते हैं। उसे इनका बोध भी नहीं होने देते।
२. माता-पिता अपने संतान का इतना ध्यान रखते हैं कि अगर संतान को जमीं (धरती) की जरूरत होती है तो उसे सहारा देने के लिए खुद पाताल स्वीकार कर लेते हैं। इसका आशय यह हुआ कि हर स्थिति में वे अपने लाल को खुश देखना चाहते हैं।
देश की साठवी स्वतंत्रता दिवस का आपने बखूबी स्वागत किया है। ओजस्वी कविता है।
दीपक जी,
आप अभियान्त्रिकी के छात्र हैं , और आपका कौशल सर्वत्र दिख रहा है काव्य-अभियांत्रिकी में भी आपका शिल्प अद्भुत है, आपका दोनों ही जगह उज्ज्वल भविष्य स्पष्ट देख पा रहा हूँ मैं
कविता बहुत सुन्दर है, बहुत ही सुन्दर शब्द चुने हैं आपने
ओज है कविता में, और समसामयिक है
बहुत हि अच्छा लिखा है दीपक जी
बधाई एवं शुभकामनायें
सस्नेह
गौरव शुक्ल
ekdum zabardast likha hai....
कभी शीश पिता का झुके नहीं,
नहीं राष्ट्र-दर्प हीं झुके कभी,
कर प्रण, मातृ को देने को
उस पुत्र ने है अपना भाल चुना।
waah kya baat kahi hai.....JAI HIND
धन्यवाद दीपक जी,
मुझे भी ऐसा ही लगा था परन्तु शंसय को रखना मैने उचित नहीं समझा और पूछ लिया..
सुन्दर कविता के लिये बधाई
बहुत सुन्दर। धारा प्रवाह को बडे ही वेग के साथ संभाला है। लय के साथ साथ भाव भी बडे सुन्दर बने हैं। आजादी के साठ साल बाद यह कविता जोश भरने के लिए काफी है।
विचार अच्छे हैं। किन्तु अगर आप छंद में बान्ध कर लिखना चाहते हैं तो कुछ छंदों के बारे में ज़रूर पढ़ें।
आपकी हर कविता अच्छी है किन्तु हर कविता में वही एक दोष बार बार नज़र आता है, जो कि मेरा विश्वास है थोडी सी कोशिश से दूर होगा और आप भीड़ से अलग नज़र आयेंगे।
"दीपक भाइ" आपका ज़वाब निह........
apne jo hindi ke shabdon ka prayog kiya hai......bahut hi sussajjit lag rahi hai aapki rachna......
u rock in ur own way deepak......
wish u all d best for future.........
मै सदा से ही गति का प्रशंसक रहा हूँ...........
आप कि कविता मे अदभुत गति और ओज है..........
परंतु कुछ शब्दो के कारण वह बाधित सी होती हुई प्रतीत हुई
उन शब्दो को या तो हटाया जा सकता था अथवा कुछ और ही लिखा जा सकता था......
तब भी बिंब अत्यंत सुंदर है............
"खुद बन बैठे जब वे अंगारे
सहमे शोलों ने ताल चुना"
इसके अतिरिक्त भी कविता अत्यंत सुंदर है बधाइयाँ
कविता बहुत प्रभावित करती है। कुछ चमत्कारिक प्रयोग पढ़ने को मिले-
सहमे शोलों ने ताल चुना
मात-पिता ने था पाताल चुना
यह कविता अपना असली प्रभाव तब छोड़ेगी जब इसे वीरता के स्वर के साथ सुनाया जाय।
तन्हा जी देरी से टिप्पणी के लिये क्षमा प्रार्थी हूँ ।
विषय श्रेष्ठ है और निर्वाह उत्तम ।
जो भरा नहीं है भावों से , बहती जिसमें रसधार नहीं
वह हृदय नहीं है , पत्थर है , जिसमें स्वदेश का प्यार नहीं ।
की याद आ गयी ।
आपकी कविता के ही स्वर में :
"देश पर निज प्राण के जो पुष्प न्यौछावर करे
जो कफ़न का ओढ़ चोला देश पर ही मिट मरे
उस तनय के जनक द्वय को नमन बारंबार है
जो गँवाकर प्राण करता देश का शृंगार है ।"
आलोक
वैसे यह मैं आपसे व्यक्तिगत रूप से भी कह चुका हूँ। कविता प्रभावी है और प्रेरक भी, लेकिन आपके अलावा किसी और ने लिखी होती तो मैं बहुत प्रशंसा भी करता।
आपके स्तर से हल्की सी कम रह गई है इस बार।
दीपक जी..बहुत बहुत बधाई..इतनी ओजपूर्ण कविता के लिये...
कविता की लय और भाव दोनो ही समान रूप से प्रभावशाली हैं..
कवि ने जो बात कहनी चाही है वो बात सीधे सीधे पाठक तक पहुँचती है..
सच बहुत कुछ सोचने को विवश कर देने वाली रचना के लिये कवि को बधाई..
बहुत खूब दीपक जी......
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