मैं जो बहुत चुप रहता था,
सिमट कर बैठा रहता था कोनों में घंटों,
दीवारों को तका करता था
बेसबब,
या उनसे चिपककर पड़ा रहता था,
छत को देखता हुआ,
उन पर चिपकी हुई स्थिर सी छिपकलियों की तरह,
सोचा करता था,
एक दिन कोई गली
मेरे सामने आकर खुलेगी,
जिसमें तुम्हारा घर होगा,
पहला या आखिरी, कुछ भी,
और तुम आरती का दिया लेकर खड़ी होगी
एक दरवाजे पर,
मुस्कुराती हुई कहोगी
कि यूँ कोनों में घण्टों पड़े रहना,
या छतों को ताकना
तुम पर नहीं फबता,
तुम गीत गाते हुए,
खिलखिलाते हुए
बहुत सुन्दर लगते हो;
या सोचता था,
एक रेल आएगी धड़धड़ाती हुई,
तुम एक भारी सा बैग लिए उतरोगी
और बिना खटखटाए
मेरे इस बहुत सी दीवारों वाले घर में
आ जाओगी
और कहोगी
कि तुम बहुत दुबले हो गए हो,
कब से मेरे हाथ की खीर नहीं खाई ना,
ये भूखे प्यासे जागते रहना
तुम पर नहीं फबता,
तुम हर रात खाना खाकर
मेरे पल्लू से हाथ पोंछते हुए
बहुत सुन्दर लगते हो;
या सोचता था,
कभी आसमान फट जाएगा,
एक तेजस्वी सा फ़रिश्ता
मुझसे मिलने आएगा
और कहेगा,
ये सारी दुनिया और इसके सब लोग
मिथ्या हैं,
इनसे कुछ चाहना या उम्मीद रखना
छलावा है,
इस निर्दयी अनंत प्रतीक्षा का शिकार होना
तुम पर नहीं फबता,
तुम इन छलिया लोगों से ऊपर उठकर
पहले की तरह जीते हुए
बहुत सुन्दर लगते हो;
पर
कुछ भी नहीं होता,
मैं उसी कोने में
और सिमट कर बैठ जाता हूँ,
दीवारें धीरे धीरे बेरंग हो जाती हैं,
मैं विवश सा उन्हें ही ताकता रहता हूँ,
छतें धुंधली होने लगती हैं
या मेरी आँखें,
पता नहीं,
अब बस यही सोचता हूँ,
इस बार जब होली आएगी
तो किसी से कहूँगा
कि होलिका के साथ
मेरे सपनों को जला आए।
इस कविता को मेरी आवाज़ में यहाँ सुनें
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23 कविताप्रेमियों का कहना है :
गौरव जी,
मानव मन में उठनेवाले भावों को सुन्दर अभिव्यक्ति दी है आपने।आशा और निराशा का अच्छा समायोजन किया है।
ये सारी दुनिया और इसके सब लोग
मिथ्या हैं,
इनसे कुछ चाहना या उम्मीद रखना
छलावा है,
इस निर्दयी अनंत प्रतीक्षा का शिकार होना
तुम पर नहीं फबता,
तुम इन छलिया लोगों से ऊपर उठकर
पहले की तरह जीते हुए
बहुत सुन्दर लगते हो;
ये पंक्तियाँ दिल को छू गयीं।
अदभुत.........................
हैर बार की तरह एक और अदभुत रचना...........................
आप सामने होते तो आपके हाथ चूम लेता,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
भावो की अक नदी सी बहा दी जिसमे सभी पाठक निश्चय ही डूबने वाले है................... आप उन्हे बचा सकते है एक और ऐसी ही कविता लिख के..............
अब शायद आप समझ गाये होंगे की मै आपका इतना बड़ा प्रशंसक क्यूं हूँ...........
तो के है
"और बिना खटखटाए
मेरे इस बहुत सी दीवारों वाले घर में
आ जाओगी"
पाठक हृदय मे मे उतर जाने वाले तब ही निकलते है जब पाठक अंतरमन से दुख को महसूस करता हो...........
मै नही जनता की वह क्या है आपके अंदर है पैर मेरी दुआएं आप के साथ है
शुभ कामनाएँ
sundar rachna hai....likhte rahiye ...
सुंदर कविता है ......बधाई!!
एक दरवाजे पर,
मुस्कुराती हुई कहोगी
कि यूँ कोनों में घण्टों पड़े रहना,
या छतों को ताकना
तुम पर नहीं फबता,
तुम गीत गाते हुए,
खिलखिलाते हुए
बहुत सुन्दर लगते हो
गौरव जी,
बहुत पसंद आयी यह रचना मुझे। अभिव्यक्ति को जीवित करने की कला इसे ही कहते हैं। कविता क्षण की अनुभूती होती है और इसी लिये आशावादी और निराशावादी जैसी बातें इसके मूल कथ्य के साथ न्याय नहीं करेंगी इसे मैं पीयूष जी का ही शब्द देना चाहूँगा-अदभुत।
दीवारें धीरे धीरे बेरंग हो जाती हैं,
मैं विवश सा उन्हें ही ताकता रहता हूँ,
छतें धुंधली होने लगती हैं
या मेरी आँखें,
पता नहीं,
अब बस यही सोचता हूँ,
इस बार जब होली आएगी
तो किसी से कहूँगा
कि होलिका के साथ
मेरे सपनों को जला आए।
वाह!!!
*** राजीव रंजन प्रसाद
दिल को छू गयीं।
गौरव जी इतनी मासूम और प्यारी रचना के लिये बहुत बहुत बधाई...
रचना के भावों ने अन्दर तक छुआ है...
या सोचता था,
एक रेल आएगी धड़धड़ाती हुई,
तुम एक भारी सा बैग लिए उतरोगी
और बिना खटखटाए
मेरे इस बहुत सी दीवारों वाले घर में
आ जाओगी
और कहोगी
कि तुम बहुत दुबले हो गए हो,
कब से मेरे हाथ की खीर नहीं खाई ना,
ये भूखे प्यासे जागते रहना
तुम पर नहीं फबता,
तुम हर रात खाना खाकर
मेरे पल्लू से हाथ पोंछते हुए
बहुत सुन्दर लगते हो...
इन पंक्तिय़ों ने बहुत ज्यादा प्रभावित किया है..
पूरी रचना बेमिसाल है..
बहुत बहुत बधाई...
बहुत खूब !! हर भाव को मानो पाठक भी कवि के साथ जी लेता है । और शुरू से अंत तक बिना रूके पढ़ती गई । इतनी सरल भाषा कि अर्थ के बारे में सोचना न पडे़ और फिर भी इतने सशक्त भाव कि पढ़ने वाला बहता चला जाए ... यह बात बहुत अच्छी लगी । राजीव जी की बात से सहमत हूँ ।
लिखते रहिए । शुभकामनाएँ ।
गौरव जी,
रचना भाव भरी और शसक्त है परन्तु मेरे विचार से अनावश्यक रूप से लम्बी हो गयी है. कुछ पंक्तियां थोपी हुयी लगी जैसे दीवारो से चिपकना..
"या उनसे चिपककर पड़ा रहता था"
कविता का तीव्र कटाव भी उसके बहाव में बाधक है..जैसे आप उसकी गली और दरबाजे से सीधा अपने घर पर आ गये.
हाथ की खीर और दुबलेपन की जगह आप कोई और भावनात्मक पंक्ति जोडते तो अधिक सार्थक रहता.
तेजस्वी फ़रिश्ता और निराशा की बात मुझे नहीं जंची.
आशा है आप इसे अन्यथा नहीं लेंगे और इसे एक बडे भाई की छोटे भाई को सलाह भर मानेंगे.. जो हो सकता है गलत भी हो
गौरव जी,
वाह.....
सुन्दर अभिव्यक्ति ...
सशक्त भाव .......
बधाई!!
शुभ कामनाएँ
लिखते रहिए
बहुत सुन्दर रचना ,कोमल भावों की अभिव्यक्ति बहुत कुछ चित्रात्मक सी
'और तुम आरती का दिया लेकर खड़ी होगी'
'तुम एक भारी सा बैग लिए उतरोगी'
'मेरे पल्लू से हाथ पोंछते हुए'
अब ज्यादा नहीं वरना पूरी कविता सामने होगी ।
बधाई
गौरव जी,
आपकी हर कविता जबरदस्त होती है..
बहुत अच्छी रचना है..
धन्यवाद
पता नहीं,
अब बस यही सोचता हूँ,
इस बार जब होली आएगी
तो किसी से कहूँगा
कि होलिका के साथ
मेरे सपनों को जला आए।
बहुत ही सुलझी हुई कविता है। गहरा लिखते है आप।
-रचना सागर
गौरव
बहुत ही प्यारी और भावपूर्ण रचना है । दिल की अतृप्त कामनाओं की
इतनी सुन्दर तसवीर खींची है कि मैं मुग्ध हो गई हूँ । इतनी सुन्दर अभिव्यक्ति के
लिए बहुत- बहुत बधाई एवं आशीर्वाद । अनुभूति और अभिव्यक्ति का जो हुनर तम्हे
भगवान ने दिया है वह बहुत कम लोगों को मिलता है । अपनी कलम से ऐसा ही
आनन्द बरसाते रहो । सस्नेह
Kavita bahut bahut bahut aachi hai....kavi ki kalpana kahaan tak jaa sakti hai iska khoob andazaa lagta hai yahaan par...kuch vishesh panktiyaan
कि यूँ कोनों में घण्टों पड़े रहना,
या छतों को ताकना
तुम पर नहीं फबता,
तुम गीत गाते हुए,
खिलखिलाते हुए
बहुत सुन्दर लगते हो;
कभी आसमान फट जाएगा,
एक तेजस्वी सा फ़रिश्ता
मुझसे मिलने आएगा
और कहेगा,
ये सारी दुनिया और इसके सब लोग
मिथ्या हैं,
इनसे कुछ चाहना या उम्मीद रखना
छलावा है,
Har pankti me bhaav badal rahe hain..aacha prayog kiya hai aapne...Keep writing my good wishes are always with you...
Luv
Anu
How to say that I need yet another birth to be able to write such sensitive stuff....
All I write is
"OK, file it! Forget it!!"
"Damn, ignore this!!"
"Leave it, you respond too late!"
"Why the hell draft in HINDI if you can't get it right?"....
AND (what a pity!) GET PAID IN THOUSANDS
FOR ALL THIS BULLSHIT IN FILES.
SAD, BUT RTUE.
vidyut
गौरव जी,
आनन्दित हो गया मन, अभिव्यक्ति में काफी अपनापन सा है
गहरी भावों का सशक्त प्रस्तुतीकरण है यह...
आपकी गंभीर सोच को प्रतिबिम्बित करती यह कविता
"मेरे इस बहुत सी दीवारों वाले घर में"
"या सोचता था,
कभी आसमान फट जाएगा,
एक तेजस्वी सा फ़रिश्ता
मुझसे मिलने आएगा"
"इस निर्दयी अनंत प्रतीक्षा का शिकार होना
तुम पर नहीं फबता"
"दीवारें धीरे धीरे बेरंग हो जाती हैं,
मैं विवश सा उन्हें ही ताकता रहता हूँ"
और कविता का अंत सम्पूर्ण और प्रभाव डालने वाला है
"अब बस यही सोचता हूँ,
इस बार जब होली आएगी
तो किसी से कहूँगा
कि होलिका के साथ
मेरे सपनों को जला आए।"
अनुपम, अद्भुत,
आपमें भविष्य का एक विलक्षण कवि देख रहा था लेकिन पता नहीं था कि इतनी जल्दी मिल जायेगा
"लडकियाँ" जैसी गंभीर रचना के बाद आपकी इस लगातार दूसरी रचना से आपका गंभीर लेखन स्वतःस्पष्ट है
हार्दिक बधाई एवं शुभकामनायें
सस्नेह
गौरव शुक्ल
गौरव जी!
कविता सुंदर है पर फिर भी कुछ कमी रह गयी है जिसे आसानी से दूर किया जा सकता था. कविता में विचारों का बहाव अपने साथ बहाता अवश्य है, पर मन को बाँध नहीं पाता.
पहले दो दृष्टांतों में आपने जो चित्र उकेरा है वो किसी दूरावस्थित प्रेमिका के बजाय पत्नी के ज्यादा निकट है. ऐसी अवस्था में मेरा या तुम्हारा घर की जगह यदि हमारा घर का प्रयोग करते तो शायद बेहतर होता.
गौरव जी कमाल का लिखते हो आप। एकांत में हृदय में जो भाव और ख्यालात आते हैं , उन्हें शब्द देना नामुमकिन होता है, लेकिन आपने उन्हें बखूबी प्रस्तुत किया है। खुद को शिथिल मानना और फिर शिथिलता को पाँव देने के लिए प्रेमिका से मिलन( और मिलन भी ऎसा कि पूछो मत) या फिर वैराग्य की हीं चाह , एकांत के कई रूप दीखाती है। राजीव जी और गौरव शुक्ला जी ने सच हीं कहा है कि आप एक उम्दा( उम्दा क्या, काफी उम्दा) कवि हैं।
आप जिस तरह से साधारण बिंबों का प्रयोग करते हैं , दिल को छू जाता है। ( राजीव जी इसमें पारंगत हैं) । कविता का अंत मर्मस्पर्शी है-
अब बस यही सोचता हूँ,
इस बार जब होली आएगी
तो किसी से कहूँगा
कि होलिका के साथ
मेरे सपनों को जला आए।
बधाई स्वीकारें।
आधुनिक कविताओं को भावपूर्ण अंज़ाम देने की कला आपको आती है। बहुत सरल शब्दों में कविता बहती है और अंत में एक टीस देकर मन में समा जाती है।
khwaeshen.....chalawa k alawa ka v kuch de paye hen?....chalawa ke pal hi to insan ko aam se kuch khas bana dete hen...bhavukta ka sehra bandhkar insan kavi banjata he..... achi kavita he...holi me holika ke dahan ke samay mantra v padhne ko kahen.. asha akankshya ummid jesi sa v paryayvachi shabdon ko swaha karde....
bahut aacha likhe ho. mein to bas panktiyon ke saath bah gaya...
एकांत की ख़्वाहिशें...
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