या दर-ए-महबूब हो या सीढ़ी हो दैर की
मरना भी नहीं कुबूल है राहों में गैर की
आज़ाद हो गये हैं हम साबित है बात ये
इन्सानियत भी आज हुयी जूती है पैर की
चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की
फ़ुरकत का हाल क्या कहूँ तुझसे मेरे हबीब
किस तरह बसर ये ज़िन्दगी तेरे बगैर की
आदमी तो मिला नहीं अब तक कोई हमें
हमने हजारों मर्तबा दुनिया की सैर की
दैर : मन्दिर
फ़ुरकत : विरह
हबीब : मित्र
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24 कविताप्रेमियों का कहना है :
अजय जी,
फ़िर से आपकी सुन्दर रचना पढ़ने को मिली,साधुवाद।
सारे शेर अनूठे हैं। काव्य पर आपकी पकड़ लाजवाब है।
चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की
बैर कोई जरूरी नही चाँद तक पहुँचना ऐसी उपलब्धि है जो साथ मिलकर ही पाई जा सकती है।
चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की
वाह! क्या बात है लुत्फ़ आ गया ये शेर पढ़कर
आदमी तो मिला नहीं अब तक कोई हमें
हमने हजारों मर्तबा दुनिया की सैर की
वाह अजय जी आप दिन ब दिन निखरते जा रहे हैं
अजय जी,
आपके शेरों में दम बढ़ता जा रहा है। दो शेर जो दिल को छू गयेः
चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की
आदमी तो मिला नहीं अब तक कोई हमें
हमने हजारों मर्तबा दुनिया की सैर की
तपन शर्मा
अजय जी,
बहुत सुन्दर गज़ल। बिलकुल नपी तुली, सही शब्द चयन। भावों पर आपकी पकड अच्छी है।
या दर-ए-महबूब हो या सीढ़ी हो दैर की
मरना भी नहीं कुबूल है राहों में गैर की
चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की
आदमी तो मिला नहीं अब तक कोई हमें
हमने हजारों मर्तबा दुनिया की सैर की
***राजीव रंजन प्रसाद
निहायत उम्दा गज़ल। हर शेर लाजवाद है।
आज़ाद हो गये हैं हम साबित है बात ये
इन्सानियत भी आज हुयी जूती है पैर की
wah wah wah kya baat hai ji gazal main bhi aajkal aap kafi kamaal kar rahe ho
aapka ye sher haasil e gazal raha
हबीब जी
बहुत सही लिखा है आपने । आज की यही स्थिति है । कवि दिनकर ने भी एक स्थान पर यही कहा था -
संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित। पर झाँक कर देखो दृगों में हैं सभी प्यासे थकित ---
बहुत खूब ।
अजय जी
अच्छा लिखा है ।
गज़ल अच्छी लगी अजय जी।
हाँ, पहले शेर के भाव पूरी तरह नहीं समझ पाया।
महबूब का दर गैर कैसे हो सकता है?
चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की
यह शेर बहुत नए अन्दाज़ में अपनी बात कहता है, यह विशेष अच्छा लगा।
चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की
बहुत सुंदर गज़ल है अजयजी ...बधाई
अजय जी यह अशार विशेष कर अच्छा लगा -
आज़ाद हो गये हैं हम साबित है बात ये
इन्सानियत भी आज हुयी जूती है पैर की
बाकी शेर कुछ अस्पष्ट से लगे मुझे, मुद्दे अच्छे उठाए हैं पर कहीँ कुछ कमी सी लगी प्रस्तुति में,
वैसे ये कोई शिक़ायत नही है अजय जी, आपकी रचनाओं का मैं हमेशा से कायल हूँ इस कारन शायद कुछ ज्यादा नही उम्मीद कर बैठता हूँ
गजलों के उस्ताद बनते जा रहे हैं आप अज़य जी। एक-एक शेर पुख्ता और मुकम्मल है। पहले शेर में महबुब की खुद्दारी पसंद आई। कुछ हट कर लिखा है आपने। इसी तरह चाँद वाली बात भी नई लगी। ऎसे हीं लिखते रहिए।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
वाह!
एक-एक शे'र लाजवाब है। ग़ज़ल में बेहतरीन भावों का समावेश है, मज़ा आ गया गुनगुनाकर।
बधाई अजयजी.
अजय जीं,
लाजवाब ग़ज़ल है........
"चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है,
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की"
ये तो कमाल का शेर है, बिल्कुल नया.....आपकी ये ग़ज़ल आपकी अब तक कि सबसे बढ़िया प्रस्तुति थी........
बहुत-बहुत बधाई........
निखिल
one request - please provide the meanings of difficult urdu words..
अच्छे शेर...रदीफ और क़ाफिये पर और काम करने की ज़रूरत है.
सर्वप्रथम गज़ल को पढ़ने और अपने अमूल्य विचारों से मुझे अवगत कराने के लिये सभी पाठकों और कवि-मित्रों को धन्यवाद!
@ गौरव जी और तन्हा जी: पहले शेर में मेरा अर्थ था कि आशिक महबूब के दर या मन्दिर की सीढ़ियों को छोड़कर कहीं किसी और स्थान पर या किसी और उद्देश्य के लिये मरना भी नहीं चाहता. महबूब के दर का गैर होना तो संभव ही नहीं. गैरियत या खुद्दारी के लिये खुदी का होना ज़रूरी है और मोहब्बत में वही नहीं रहती.
शेर के अर्थ को स्पष्ट न कर पाना भी एक दोष है और मैं इसे कुबूल करता हूँ.
@ सजीव जी: बाकी अशआर किस तरह अस्पष्ट हैं, यदि इसे बता दें तो मुझे उन्हें सुधारने में सरलता होगी.
@ कमलेश जी मुश्किल उर्दू शब्दों के अर्थ पहले ही दे दिये थे. फिर भी जो शब्द समझ न आया हो, उसे बतायें. मैं उसका अर्थ भी दे दूँगा.
@ अवनीश जी: रदीफ और काफ़िये में कमी को यदि कुछ स्पष्टता से बतायें तो मुझे खुशी होगी.
अजय जी गजल पसन्द आयी । दिनों दिन आपकी प्रतिभा निखरती जा रही है ।
bahut khoob ajay ji kya khoob kahaa aadami toh mila nahi ab tak koi haumein , humne hazaaron mertba duniya ki sair ki...
अजय जी..
बहुत खूब
मजा आ गया गजल पढ कर् ..
बिल्कुल सही..नपी तुली...भाव और शब्द चयन ने प्रभावित किया
गजल के कुछ शेरों में जो नयापन देखने को मिला उसके लिये
बहुत बहुत बधाई
आभार
अजय जी!!!!
बहुत ही उम्दा गज़ल लिखा है आपने...
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आज़ाद हो गये हैं हम साबित है बात ये
इन्सानियत भी आज हुयी जूती है पैर की
चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की
फ़ुरकत का हाल क्या कहूँ तुझसे मेरे हबीब
किस तरह बसर ये ज़िन्दगी तेरे बगैर की
आदमी तो मिला नहीं अब तक कोई हमें
हमने हजारों मर्तबा दुनिया की सैर की
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सच्चाई झलक रही है आपकी रचना मे......बहुत बढिया है........पसंद आया.....
अजय जी
अपने हिस्से की सारी तारीफ़े आप पहले ही पा चुके है
मेरे लिए तो कुछ बचा ही नही
ख़ैर आपकी जिन पंक्तियो ने मुझे प्रभावित किया
आज़ाद हो गये हैं हम साबित है बात ये
इन्सानियत भी आज हुयी जूती है पैर की
आदमी तो मिला नहीं अब तक कोई हमें
हमने हजारों मर्तबा दुनिया की सैर की
बेशक उम्दा रचना
अवनीश जी,
जैसाकि आपसे मेरी फ़ोन से भी बात हुई थी कि हमलोगों को कमेंट के ही माध्यम से ही काव्य-शास्त्र का ज्ञान बाँटना चाहिए। इस ग़ज़ल के माध्यम से आपने इस ग़ज़लकार को रदीफ़ और काफ़िया पर ध्यान देने की बात की है, आप इसपर ठीक से प्रकाश डालें। इस से लोगों को यह भी पता चलेगा कि रदीफ़ व काफ़िया आदि क्या है।
अजय जी,
कुछ शे'रों में बातें आपने इतने मस्त तरीके से कही है कि वो दिल के अंदर बैठ जाती हैं-
आज़ाद हो गये हैं हम साबित है बात ये
इन्सानियत भी आज हुयी जूती है पैर की
चाँद की ज़मीं पे भी इन्सान की पहुँच है
अब हद नहीं रही कोई आपस में बैर की
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