साप्ताहिक समीक्षा - 6
(20 अगस्त 2007 से 26 अगस्त 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)
मित्रो,
इस बार हमारे समक्ष विचारार्थ 12 कविताएँ हैं। अधिकतर कविताओं में सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक परिद़ृश्य पर तीव्र कटाक्ष किया गया है। विद्रूप की प्रधानता के बीच सुंदरता और कोमलता की तलाश भी कुछ कविताओं में ध्यान खींचती है। इससे कवि की अपने चतुर्दिक जगत के प्रति जागरूकता प्रमाणित होती है। हमारी द़ृष्टि में यह जागरूकता नई पीढ़ी की जागरूकता की भी प्रतीक है। और इसका अर्थ है कि जरूरत के वक्त जनांदोलन का रूप ले सकने वाली चेतना की चिंगारी बुझी नहीं है। आज जब हम या तो रणक्षेत्र, या फिर बाजार भर, बन कर रह गए हैं - कविता की प्रासंगिकता हमें मनुष्य, जीवित मनुष्य, बनाए रखने में मानी जा सकती है। यहाँ हम शमशेर बहादुर सिंह का एक कथनांश दुहराकर अपनी काव्य-चर्चा की ओर प्रस्थान करेंगे - "मैं इनसान से जुड़ता हूँ तो मेरे लिए फिलहाल इतना काफी है। मैं एक बहुत कामयाब कवि शायद नहीं बन पाया हूँ, लेकिन संभवत: एक जेनुइन कवि अपने आपको कह सकता हूँ।" (उदिता - अभिव्यक्ति का संघर्ष)।
हाँ तो दोस्तो, हम कह रहे थे कि इस सप्ताह हमारे सामने कुल बारह कविताएँ हैं......
1. "फुटपाथ वाले' (अनुराधा श्रीवास्तव) में असमय बूढ़े होते हुए उन बच्चों की त्रासदी को शब्दबद्ध किया गया है जो फुटपाथ पर रहते हैं और कूड़ा करकट बीनते हैं। इन बच्चों की मुद्राओं को चहकी, भिनभिनाई, मुँह बिचकाकर, सिर झुकाकर और सिर झुकाए बोला - जैसे शब्द साकार कर सके हैं। अंतिम सात-आठ पंक्तियाँ मार्मिक और करुणापूर्ण हैं। इन बच्चों के मानवाधिकारों के प्रति रचनाकारों की ही नहीं, सारे समाज की सजगता वांछित है।
2. "वामपंथी' (राजीव रंजन प्रसाद) में सरल-सहज शब्दों में समसामयिक राजनीति पर गहरा व्यंग्य किया गया है। वामपंथी/जामपंथी/शामपंथी का चयन रोचक है। मलूकदास की उक्ति को बाबा मार्क्स के लाल सलाम से जुड़कर नई ध्वनि मिल गई है। कम्यूनिस्टों की स्वार्थी राजनीति और रणनीति पर यह कविता सीधा हमला करती है। अंतिम अंश में प्रवाह तनिक टूटता है, अत: लय की दृष्टि से पुनर्विचार अपेक्षित है। मुहावरों और कहावतों का सटीक इस्तेमाल भाषा पर कवि के अधिकार का सूचक है।
3. 'ग़ज़ल' (अनुपमा चौहान) में गुजरते/सोचते की तुक छठे अंश के "गुनगुनाते' में बिगड़ गई है। परंपरागत विषय पर अच्छे शेर हैं। कथन-भंगिमा में कई स्थलों पर चमत्कार है जिसे ग़ज़ल की अपनी विशेषता माना जाता है - अपने आशियाने को क्या ढूँढ़ते/उसके घर के पते ही बदलते रहे। "दामन को अश्कों से निचोड़ते रहे' पर पुनर्विचार अपेक्षित है। कपड़े 'से' पानी ('को') निचोड़ा जाता है, कपड़े 'को' पानी 'से' नहीं निचोड़ते। हाँ, भिगो सकते हैं।
4. "स्वप्न की डोरी' (सीमा कुमार) में चित्रयोजना सुंदर है। पहले अंश में रात और भोर का द्वंद्व आकर्षक बन पड़ा है। यथार्थ की कड़कड़ाती धूप का निकलना भी सटीक है। दूसरे अंश में परिकल्पित सपनों की डोरी का विवरण आत्मा के स्वरूप के सद़ृश है। यह विवरण इस कविता को अर्थ विस्तार प्रदान करता है। डोरी और पतंग के रूपक को स्पष्ट करते हुए पहले और तीसरे अंश में डोरी को स्वप्न के साथ रखा गया है - स्वप्न की अद्भुत डोरी। इस डोरी से बंधी है पतंग - स्वर्णिम पतंग, आशा और उम्मीदों की। अत: आशाओं की पतंग को स्वप्न की डोरी से बांधना अभीष्ट कथ्य है। परंतु द्वितीय अंश में - स्वप्न की स्वर्णिम आभा वाली पतंग - प्रयोग से ऐसा लगता है कि डोरी से बंधी पतंग स्वप्न की पतंग है। ऐसे में डोरी और पतंग दोनों एक हो जाएंगे - डोरी भी सपनों की, पतंग भी सपनों की। अत: पुनर्विचार अपेक्षित है। अंतिम अंश में आँखों में तारों सा टिमटिमाने का बिंब आकर्षक है।
5. 'फूलों की अहमियत' (पंकज) में ज्यादातर शेर सूक्तिपरक हैं। दूसरे अंश में बम और मिसाइल के साथ फूल का द्वंद्वात्मक प्रयोग आकर्षक है। पांचवें अंश में खुशी और गम की विरोधी समांतरता भी सटीक बन पड़ी है। पूरी रचना 'अजीब'को उभारती है।
6. 'तेरह क्षणिकाएँ' (गौरव सोलंकी) मुख्यत: व्यंग्य प्रधान है। प्रेम की उपालंभ (झूठ, तमन्ना, बददुआ) से लेकर सायुज्य (मैं भी तो तुम ही हो गया था) तक की स्थितियाँ भी इनमें कम शब्दों में ध्वनित हो सकी हैं। "धूप' में रात के गहरी होने तथा अंधे सूरज के डूबने का कथन चमत्कार पूर्ण है। "मेरा शहर' में महानगरीय अकेलेपन की त्रासदी उभरकर सामने आ सकी है। लोकसंप़ृक्ति क्षणिकाओं को कारुणिक और मारक बना देती है।
7. 'यह जीवन यूँ ही चलेगा' (रंजना भाटिया) में पंजाब की प्रेम कथा पुनू-ससी का संदर्भ रचनाकार के लोक और परंपरा के प्रति प्रेम का द्योतक है। सरोकार की व्यापकता प्रशंसनीय है।
8. 'आंखें तब आँसू भर लातीं' (अजय यादव) गीत में शब्द चयन और प्रवाह का निर्वाह उत्तम है। हर बंध की प्रथम तीन तुकांत पंक्तियों के बाद चौथी पंक्ति निष्कर्ष या टिप्पणी की तरह प्रभावित करती है।
9. 'बुनियादी फर्क' (मनीष वंदेमातरम्) टेकनीक की द़ृष्टि से ध्यान खींचने वाली रचना है। औरत और आदमी के सपने का बयान करने वाले दो अंश तनिक से हेर-फेर के साथ वास्तव में एक ही दृश्य की पुनरावृत्ति करते हैं। परंतु यह तनिक सा हेर-फेर ही कविता को व्यंजनापूर्ण बनाता है। सपना टूटने पर औरत और आदमी की अलग-अलग प्रतिक्रिया उनके स्वभाव के बुनियादी फर्क को उभारने में सक्षम है।
10. 'बारिशों में भीगता शहर' (सजीव सारथी) गीत में रमणीयता है। कबीर की उक्ति है - सतगुरु हमसों रीझ कर, एकै कहा प्रसंग/बरसा बादल प्रेम का, भीज गया सब अंग। तुलसी भी कहते हैं - बिनती सुनि सानंद हेरि हँसि/करुणा - बारि भूमि भिजई है। सुरमई आकाश के आशीर्वाद की तरह बरसने और बूँदों की टप-टप स्वर लहरियों से भीनी-भीनी सौंधी-सौंधी ठंडक सी उतरने के बिंब वेधक हैं, अर्थ गर्भित भी।
11. 'पंख पसारो' (आलोक शंकर) में नई पीढ़ी के स्वप्नों और संकल्पों को उद्बोधित किया गया है - उत्तिष्ठ जाग्रत। उड़ान का रूपक सुंदर है। पंख पसारो, जोर लगाओ, डैने खोलो - में ऊर्जा मूर्तिमान हो सकी है। "एक दीप के बुझ जाने से' वाला अंश नीरज के गीत का स्मरण कराता है। जब तक/तब तक तथा यदि/तो के प्रयोग से रचना को तार्किक मुद्रा प्राप्त हो सकी है।
12. 'एक ही रोज़' (निखिल आनंद गिरि) में एकाकीपन और निर्वासन की त्रासदी भोगते आधुनिक मनुष्य की वेदना प्रकट हुई है। परायापन किस तरह व्यक्ति को आतंक और आशंका से भर देता है, यह भी द्रष्टव्य है। गाँवों और कस्बों से नगरों और महानगरों की ओर जाने की विवशता के साथ स्नेह-संबंधों का बँधाव इस रचना में द्वंद्व की स़ृष्टि करने में सफल रहा है। अपनी सारी जिम्मेदारियों से पल्ला झाड़कर दूसरों पर तानाकशी करने के जमाने में यह कथन सुकून पहुँचाता है - तुमसे शिकवा करूँ, मेरी फितरत ही नहीं !
अंतत: मलयालम कवि ए. अय्यप्पन की हमारी मित्र संतोष अलेक्स द्वारा अनूदित और 'समकालीन भारतीय साहित्य - 130' में प्रकाशित कविता 'फ़ासिस्ट' के माध्यम से हम 25 अगस्त 2007 (शनिवार) को हैदराबाद में भीषण बम विस्फोट में आतंकवाद की बलि चढ़े निर्दोष लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं -
"टूटे तारों के गिरने पर, पहाड़ों की चोटियाँ कट गईं, जले घर में थमी हुई आवाज़, गोलियों से मरे लोग, दुर्घटनाओं में खून बन बिखरे लोग, किसी भी मौत नेमुझे नहीं रुलाया। सपनों में मेरे टिड्डों के बारिश बन बिखरने पर भी नहीं रोया। पुष्पित वृक्षों के जड़ से उखड़ जाने पर मैं ठहाका मारकर हँस पड़ा।"
आज इतना ही।
इति विदा पुनर्मिलनाय।
- प्रो. ऋषभदेव शर्मा
31.08.2007
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13 कविताप्रेमियों का कहना है :
डा. शर्माजी ने कवि और कविता की प्रसन्गिकता को जनान्दोलन से जोडकर इन्सानियत से जुड्ने की बात शम्शेर के कथन से जेनाइन कवि बनने की बाअत कही है. ह्रिदय से निकलने वाली अभिव्यक्ति ही तो कविता होती है जो पाठक को प्रभवित करती है. सार्थक समीक्शा पर बधाई.
आदरणीय शर्मा जी,
शमशेर जी की बात बहुत अच्छी लगी। आपकी टिप्पणियों से कविताओं को समझना रोचक हो जाता है।
शर्मा जी,
सटीक मार्गदर्शन के लिये साधुवाद और धन्यवाद ।
आदरणीय ऋषभदेव जी,
आपने सत्य कहा कि वाम पंथी कविता में अंत में लय टूटती है। इस कारण ही इसका प्रभाव भी कम हुआ है।
आपसे सतत मार्गदर्शन की अपेक्षा है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
यह स्तंभ सबसे अधिक प्रेरक है। कहानी कलश को भी इस प्रकार के स्तंभ की आवश्यकता है।
डा.ऋषभदेव शर्मा जी!
आपकी समीक्षा हम सबके लिये प्रेरणास्रोत है. समीक्षा मे साथ-साथ महान साहित्यकारों के विचार और समसामयिक विषय इसे और भी उपयोगी बना देते हैं.
आफकी टिप्पणियाँ बहुत ही सार्थक एवं सटीक होती हैं । इनसे पाठकों तथा कवियों दोनो
को ही बहुत कुछ सीखने को मिलता है । शुभकामनाओं सहित
मैं इनसान से जुड़ता हूँ तो मेरे लिए फिलहाल इतना काफी है। मैं एक बहुत कामयाब कवि शायद नहीं बन पाया हूँ, लेकिन संभवत: एक जेनुइन कवि अपने आपको कह सकता हूँ।
ये पंक्तियाँ एक कवि की सम्पूर्ण परिभाषा हैं। शमशेर जी के इस कथन को हम तक पहुंचाने के लिए बहुत धन्यवाद ऋषभदेव जी।
आपकी समीक्षा हर बार की तरह बहुत सटीक और प्रेरणास्पद है।
ऋषभदेव जी,शमशेर जी की बात बहुत अच्छी लगी।
एक बार फ़िर से प्रेरणा दायक समीक्षा के लिए धन्यवाद
शुभकामनाओं सहित
रंजना
यह स्तम्भ शुरू कर के हिंद युग्म ने एक शानदार पहल की है , अब युग्म पर लिखने वाले कवियों के लिए यह एक अतिरिक्त लाभ जैसा है कि उनकी कविताओं को आप जैसा समिक्क्षक भी उपलब्ध हो गया है, आपकी सभी समीक्षाएं कविताओं को नए अंदाज़ में समझने का अवसर प्रदान करती है, वैसे मैं भी रचना जी के सुझाव से सहमत हूँ इस पर विचार किया जाना चाहिए...
आदरणीय ऋषभदेवजी,
आपका यह सटीक मार्गदर्शन निश्चय ही हमें एक सफ़ल भविष्य देगा, आपका बहुत-बहुत आभार।
- गिरिराज जोशी
Respected Sharmaji,
Thankyou so much for your support.
आपकी समीक्षा का यह लाभ हुआ है कि युग्म के कवि अपनी सोच, अपनी कविता में नये-नये आयाम जोड़ रहे हैं। अभी बहुत कुछ बदलने वाला है, बस आप अपना मार्गदर्शन देते रहिए।
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