मेरे भीतर की मिटटी सूखी थी,
बरसों की सूखी ,
अब्र का कोई भी टुकड़ा,
उस पर नहीं बरसा था,
बिवाइयाँ फट गयी थी,
एक दिन - यूँ ही कुरेदा तो,
कुछ ख़्वाब मिले,
अश्कों से उन्हें गीला किया,
लोई बना कर उनकी,
वक़्त के चाक पर धर दी,
उँगलियों से तजुर्बों की,
आड़े-तिरछे रूप दे डाले,
ख्वाबों को शक्लें दे दी,
नाम दे डाले।
सूखी मिट्टी कुरेदता रहा मैं,
जाने क्या-क्या जोड़ता रहा मैं ।
------सजीव सारथी ---------
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
सजीव जी,
बहुत अच्छा लिखा है।
मेरे भीतर की मिटटी सूखी थी,
बरसों की सूखी ,
अब्र का कोई भी टुकडा,
उस पर नही बरसा था,
बहुत खूब!
बिवाइयां फट गयी थी,
एक दिन - यूं ही कुरेदा तो,
कुछ ख़्वाब मिले,
सुन्दर रचना के लिए बधाई।
"सुखी मिटटी कुरेदता रहा मैं,
जाने क्या क्या जोड़ता रहा मैं । "
Bahut badiya
जिंदगी के अरमानों को सूखी फटी मिट्टी में तब्दील होते देखने के भाव को अच्छी तरह उकेरा है तुमने सजीव.
बिवाइयां फट गयी थी,
एक दिन - यूं ही कुरेदा तो,
कुछ ख़्वाब मिले,
बहुत खूब!
पर कविता का अंत प्रभावशाली नहीं बन पड़ा है। लिखते रहें।
सजीव जी,
बहुत ही अच्छा लिखा है आपने।
एक दिन - यूं ही कुरेदा तो,
कुछ ख़्वाब मिले,
अश्कों से उन्हें गीला किया,
लोई बना कर उनकी,
वक़्त के चाक पर धर दी,
उँगलियों से तजुर्बों की,
आड़े-तिरछे रुप दे डाले,
ख्वाबों को शक्लें दे दी,
नाम दे डाले।
सुखी मिटटी कुरेदता रहा मैं,
जाने क्या क्या जोड़ता रहा मैं।
बिम्ब इतना सजीव है कि हर व्यक्ति अपने जीवन से इसे जोड सकता है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
सूखी मिट्टी कुरेदता रहा मैं,
जाने क्या-क्या जोड़ता रहा मैं ।
शून्य में कविता को छोड कर सोचने के बहुत से आयाम आपने पाठको को दिये हैं। कविता प्रसंशा की पात्र है।
सजीव जी!
बहुत ही सुंदर कविता है. मिट्टी का बिम्ब बहुत सुंदर और प्रभावी बन पड़ा है. बधाई!
सजीव जी
बहुत ही भावपूर्ण रचना है । आपके अन्दर की मिट्टी कभी भी सूखने ना पाए यही
कामना है । सस्नेह
सजीव जी,
ह्र्दय को स्पर्श करने वाली इस कविता की रचना के लिए बधाई स्वीकारें।
एक दिन - यूँ ही कुरेदा तो,
कुछ ख़्वाब मिले,
अश्कों से उन्हें गीला किया,
लोई बना कर उनकी,
वक़्त के चाक पर धर दी,
उँगलियों से तजुर्बों की,
आड़े-तिरछे रूप दे डाले,
ख्वाबों को शक्लें दे दी,
नाम दे डाले।
सूखी मिट्टी कुरेदता रहा मैं,
जाने क्या-क्या जोड़ता रहा मैं ।
वाह! एक सम्पूर्ण कविता की सब बातें हैं इसमें।
अब्र का कोई भी टुकड़ा,
उस पर नहीं बरसा था,
बिवाइयाँ फट गयी थी,
एक दिन - यूँ ही कुरेदा तो,
कुछ ख़्वाब मिले,
बहुत अच्छा चित्रण है.
सूखी मिट्टी कुरेदता रहा मैं,
जाने क्या-क्या जोड़ता रहा मैं ।
सजीव जी बहुत खूब बधाई।
सजीव जी
बहुत सुन्दर लिखा है॥थोड़े ही शब्दों में बहुत कुछ कहा है। वो ख्वाब जिन्हें आपने नाम दे डाले, भगवान से प्राथना है कि जल्दी पूरे हों ।
बहुत खूब!
संजीवजी,
एक बहुत ही खूबसूरत अतुकांत! लय, भाव, शब्द... सभी उत्तम!
बहुत-बहुत बधाई!!!
अच्छी कविता...लेकिन पढ्ते वक़्त गुलज़ार याद आते है...हो सके तो दूसरे कवियो के प्रभावो से बचिये..
.
शुभकामनाओ सहित
अवनीश गौतम
बहुत सुंदर रचना है सजीव जी। मिट्टी का बिंब लेकर आपने अपनी मन:स्थिति का जो रेखांकन किया है , काबिले-तारीफ है। हर एक शब्द कसे हुए हैं।
अश्कों से उन्हें गीला किया,
लोई बना कर उनकी,
वक़्त के चाक पर धर दी,
उँगलियों से तजुर्बों की,
आड़े-तिरछे रूप दे डाले,
ख्वाबों को शक्लें दे दी,
नाम दे डाले।
कविता का सही उदाहरण है यह।
बधाई स्वीकारें।
सजीव जी..
शब्द.. लय..भाव.. बिम्ब
सभी ने प्रभावित किया है..
शुरु से लेकर अन्त तक कविता पाठक को बाँधे रखने में सक्षम है..
बधाई स्वीकार कीजिये..
आभार
मेरे भीतर की मिटटी सूखी थी,
बरसों की सूखी ,
अब्र का कोई भी टुकड़ा,
उस पर नहीं बरसा था,
कुछ ख़्वाब मिले,
अश्कों से उन्हें गीला किया,
सूखी मिट्टी कुरेदता रहा मैं,
जाने क्या-क्या जोड़ता रहा मैं ।
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सजीव जी!!!!
आपने बहुत सही लिखा है....मनोदशा को जिस तरह से आपने मिट्टी से तुलना की है.....काबिले तारीफ़ है.......मुझे कोइ खामी नज़र नही आ रही है......बहुत ही उम्दा लगी आपकी यह रचना....
अच्छी कविता है।
बधाई।
Alpana Verma
यह कविता प्रभावित नहीं करती क्योंकि इसमें जीवन के क्रम को, अनुभव को, सपनों को मिट्टी की गति दी गई है और कुछ नहीं। फ़िर भी शिल्प की खासियत तो है ही।
आदमी क्या है खिलौना ही तो है।
कब मिले मिटटी में है किसको खबर।
मिटटी की याद दिलाने के लिए बधाई।
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