काव्य-पल्लवन सामूहिक कविता-लेखन
विषय - संवेदना
विषय-चयन - गौरव शुक्ल
पेंटिंग - अजय कुमार
अंक - छ:
माह - अगस्त 2007
इस माह के काव्य-पल्लवन का विषय चुनने के लिए सभी को आमंत्रित किया गया था परन्तु कुल तीन ही विषय प्राप्त हुए। श्री गौरव शुक्ल जी का चुना हुआ विषय "संवेदना" उपयुक्त जान कर इसी पर रचनाएँ आमंत्रित की गईं। काव्य-पल्लवन के लिए रचनाओं की प्राप्ति प्रगति पर है। जून माह में पाँच, जुलाई माह में बीस और अगस्त माह में २२ रचनाएँ प्राप्त हुईं। चूँकि इस बार माह का आखिरी वृहस्पतिवार माह की अन्तिम तिथि से केवल एक दिन पहले आया है, निश्चय ही सभी को काव्य-पल्लवन की रचनाओं की बेसब्री से प्रतीक्षा होगी।
पिछले २ महीनों से हम काव्य-पल्लवन के साथ कविताओं पर ही बनीं पेंटिंग नहीं प्रकाशित कर पा रहे थे। इस बार हमारी टीम ने एक पेंटर को खोज निकाला है। इस बार कुछ कविताओं पर पेंटर अजय कुमार ने पेंटिंगे बनाई है। चूँकि कविताओं की संख्या ज्यादा थी, इसलिए अजय के लिए सब पर बनाना मुश्किल हुआ। ऐसे में उन्होंने कुछ कविताओं पर अपना कैनवास खींचा है।
जामिया मिलिया इस्लामिया विस्वविद्यालय से फ़ाइन-आर्ट में स्नातक कर चुके चित्रकार अजय कुमार अंतरजाल पर कम ही सक्रिय हैं। मगर जल्द ही हिन्द-युग्म उनकी कला को दुनिया के सामने परोसकर उनकी सक्रियता को बढ़ा देगा। वर्तमान में जामिया मिलिया इस्लामिया विश्वविद्यालय से ही ग्राफ़िक्स और एनीमेशन में परास्तानक डिप्लोमा कर रहे अजय कुमार अपनी रचनात्मकता का इस्तेमाल कला के सभी क्षेत्रों में करना चाहते हैं और अपने विचारों से दुनिया को रूबरू कराना चाहते हैं। आइए इनका स्वागत करते हैं।
इसी के साथ सब से आग्रह है कि विषय चुनने में रुचि दिखायें ताकि रुचिकर विषय का चयन किया जा सके।
<--: पृष्ठ पर ऊपर से नीचे की ओर जाकर सभी कविताओं को एक साथ पढ़ा जा सकता है। या नीचे दिये गये कवियों की सूची में किसी कवि के नाम पर क्लिक करके संबंधित कवि की कविता और उसके साथ अजय कुमार की पेंटिंग (यदि उपलब्ध है तो) देखी जा सकती हैं। पेंटिंग को उसके मूल आकार में देखने के लिए पेंटिंग पर क्लिक करें :-->
***प्रतिभागी कवि***
। कवि कुलवंत सिंह । ऋषिकेश खोड़के 'रूह' । श्रीकांत मिश्र 'कांत' । रामेन्दु मानव । शोभा महेन्द्रू । कुमार आशीष । रचना सागर । रंजना भाटिया । महेन्द्र मिश्रा । तुषार जोशी । तपन शर्मा । सुलभ जायसवाल । अनुराधा श्रीवास्तव । मोहिन्दर कुमार । शैलेश भारतवासी । संतोष कुमार सिंह । निखिल आनंद गिरि । प्रवीण सलूजा । प्रतिष्ठा शर्मा । राजीव रंजन प्रसाद । विश्व दीपक 'तन्हा' । सजीव सारथी ।
~~~अपने विचार, अपनी टिप्पणी दीजिए~~~
किसी अनिष्ट की
आशंका से भयकंपित !
मुट्ठी में बंद किए -
एक कागज का टुकड़ा;
लंबे-लंबे डग भरता
कोई दीन-हीन फटेहाल,
चला जा रहा था -
’मेडिकल स्टोर’ की ओर ।
मैने देखा !
तभी पुलिसमैन एक
कहीं से आया,
पहचान कर शिकार को
लपका उसकी ओर ।
बोला - "अबे उल्लू !
लंबे-लंबे डग भरता है
जो नियमों के प्रतिकूल है ।
पथ शीघ्र तय करता है !
अगर कहीं कुचला गया
किसी सवारी के नीचे,
तो क्रिया-कर्म तेरा
कौन करेगा ?
यह अपराध है,
कानून का उलंघन है।
मै तेरा ’चालान’ कर दूंगा ।
"’चालान’ शब्द सुनकर,
दुखिया ने हाथ जोड़ दिए,
पुलिसमैन के पांव पकड़ लिए।
कातर स्वर में बोला -
"मेरी बूढ़ी माँ बीमार है,
सख्त बीमार है ।
उसका एक मात्र सहारा,
यह पुत्र, यह अभागा,
दवा लेने जा रहा है।
हाथ जोड़ता हूँ, पाँव पड़ता हूँ,
मुझे छोड़ दे, तेरा उपकार होगा।"
"बचना चाहता है ?
अच्छा चल छोड़ दूंगा !
मेरी दाईं हथेली पर
खुजली हो रही है,
उसको शांत कर दे ।
मेरा आशय समझा या समझाउँ तुझे !
"तरेर कर आँखे पुलिसमैन बोला ।
"समझ गया माई - बाप"
मुट्ठी जोर से भींच कर बोला,
"लेकिन एक ही पचास का नोट है"
मुट्ठी खोल कर दिखाते हुए बोला,
अगर आपको दे दिया,
तो ..तो.. दवा कहाँ से आयेगी ?
मेरी माँ मुझसे न छिन जायेगी ?
जिसे दवा की सख्त जरूरत है!"
कहते हुए वह कांप रहा था,
"आज छोड़ दे मेरे भाई, मेरे खुदा!
फिर कभी ले लेना -
पचास के बदले सौ ।
पाँव पड़ता हूँ तेरे !
"लेकिन वह पुलिसमैन
उसकी बात कहाँ सुन रहा था ?
वह तो जा चुका था -
अपने हाथ की खुजली शांत करके,
उस दीन-हीन फटेहाल से
पचास का नोट छीन के ।
किसी अन्य शिकार की टोह में -
मैने देखा !
कवि कुलवंत सिंह
आधारभूत कारण है संवेदक मेरी वेदना,
इसलिये प्रकट कर सके तुम संवेदना
वो पीड़ा मेरी अथक, थी जो अकथ,
फिर भी तुम पर हो गई सहज प्रकट
तुम्हारे मन मे उतरे, वो दुख थे मेरे,
विरह मेरा था वो जो तुमको घेरे
जानता हूँ मैं कि कठिन था संवेदक,
यूँ मेरे विषाद की भित्ति को भेदना
ये दया जो मन मे तुम्हारे सर उठाये,
शब्द जो बारंबार तुम्हारे अधरों पर आये
अश्रूपुष्प आज जो तुम्हारे कपोलों पर है
गंगोत्री उनकी मेरे नयनों पर है
वो झंझावत जो झकझोरे है तुमको,
असंभव है उसमें बस खड़े रहना
बरसे, भीगा जाये, मेघ दुख के काले,
पीड़ा के शूल, हृदय को भेद डाले
दूर क्षितिज नैराश्य मात्र दर्शाये,
काँपे कोमल मन, तब थरथराये
अवसाद मेरा सागर, तुम किनारे,
कहो संभव है ज्वार से बचना ?
ऋषिकेश खोङके "रुह"
रेलवे प्लेटफार्म पर
चीखती चिल्लाती
ट्रेन आकर रुकती है.
सीटी का शोर
खोमचे वालों की पुकार
कुलियों की दौड़ में
' हाय मेरा हाथ '
एक मद्धिम सी
आवाज उभरती है।
अन्दर जगह पाने को आतुर
भागमभाग भीड क़ा रेला
कुचल जाते है सारे अरमान
ट्रेन जब चलती है।
अवाक् खड़े लोग जब
भीख का कटोरा नहीं...
डायरी और थैला
बिखरे हुये बाल
खिचड़ी-सी दाढ़ी
चीथडे कपड़ों में
रक्त-रंजित रेल की पटरी पर
एक लाश मिलती है।
हाय ! हाय! करता समुदाय
संवेदना युक्त चेहरे
अपनों का स्मरण,
आता है कितनों को
जब …..
लावारिश लाश
पुलिस का सिपाही
हाथ मे डंडा
होठों पर गालियाँ
कचरे की गाड़ी में अधोगति होती है।
मैं देखता रह जाता हूँ चुपचाप
कानों में फिर
मद्धिम सी आवाज उभरती है।
रेलवे प्लेटफार्म पर चीखती चिल्लाती
ट्रेन आकर रुकती है।
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
चोट लगे जब और किसी को दर्द हमें भी होता है
होते देख अत्याचार दिल बेबस हो रोता है
किसी के रोने पर जब आँखें अपनी नम हो जाती है
किसी के गम से जब भावना हमारी सम हो जाती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
किसी पर होता ज़ुल्म देख, जब मुट्ठी अपनी बँध जाती है
बहता देख खून किसी का, आँखें मुंद सी जाती हैं
इंसाफ ना मिल पाने पर जब, दांत हमारे पिसते हैं
दूजे पर लगे घाव और अंग हमारे रिसते हैं
कुछ न कर पाने की लाचारी से जब आत्मा पसीजती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
जब रिक्शा चालक को बोझ खींचना हमें अखरता है
जब कंधे से खिंचता बोझ देख अंदर कुछ बिखरता है
जब भूखा देख किसी को आँतें अपनी कुमल्हाती हैं
किसी के सुखे होंठ देख कलियाँ मन की मुरझाती हैं
जब कुछ कर गुज़र जाने की भावना पनपती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है
जब बिटिया घर की नहीं मोहल्ले की हो जाती है
जब अम्मा सभी की दादी-नानी कहलाती है
जब बिटिया की विदाई का आलम सबको रूलाता है
जब अम्मा के जाने पर कोई कुछ नहीं पकाता है
जब किसी को कुछ हो जाने पर सबकी आँखे जगती हैं
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
जब दो दर्दों का पावन संगम प्रयाग कहलाता है
जब प्यार, प्रेम के तोड़ निवाले, सब को भर पेट खिलाता है
जब होली, ईद, दीवाली धर्म नहीं, इंसान मनाया करते हैं
जब पड़ौसी गुझिया पपड़ी और हम सेंवई खाने जाया करते हैं
भावनाओं की नदी प्रीत लहरों से उफनती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
रामेन्दू मानव
स्वतंत्र भारत के नागरिकों
मेरी संवेदना तुम सबके प्रति है।
क्योंकि ------
तुम केवल बाहर से स्वतंत्र हो
भीतर से तो आज भी
गुलामी के उसी बन्धन में
जी रहे हो --
सोचो तो- इतने उत्सव,
इतने आयोजन-
क्यों कर रहे हो?
गुलामी ही तुम्हारी नियति है।
इसीलिए -
मेरी संवेदना तुम्हारे प्रति है।
तुम गाँधी, सुभाष और
तिलक की बात करते हो?
अपने अन्तर से पूछो
क्या उनका आचरण धरते हो?
देश की खातिर क्या
कभी कुछ किया है?
फिर इन बलिदानियों का
नाम क्यों लिया है?
ये तो आडम्बर की
घोर परिणिति है।
इसीलिए-
मेरी संवेदना तुम सब के प्रति है।
आज़ादी के लिए ही
उन्होने जानें गँवाई
किन्तु तुमने आज़ादी
इतने सस्ते में लुटाई?
स्वार्थ संकीर्णता में फँस कर
सारी ज़िन्दगी बिताई?
कभी धन, कभी प्रतिष्ठा
कभी पद, कभी स्वार्थ
के गुलाम बने रहे ।
भोगों के पीछे भागने की तो
आज हो चुकी अति है।
इसीलिए ---
मेरी संवेदना तुम सबके प्रति है।
देश प्रेम और राष्ट्रीय आस्मिता की
कोरी बातें मत करो।
ये सब अर्थ हीन हैं।
यदि सत्य होती तो-
भगत सिंह और सुभाष
देश छोड़ विदेश जाने का
ख्वाब क्यों सजाते?
सुख-आराम की लालसा में
क्यों इतने तिलमिलाते?
देश के कर्णाधार क्यों
देश को ही खा जाते?
साम्प्रदायिकता का काला
ज़हर क्यों फैलाते?
क्यों सबकी ऐसी मति है?
इसीलिए--
मेरी संवेदना -
तुम सब के प्रति है।
किसी दिन तुम सच में
आज़ाद हो जाओ।
अपना देश, अपना घर
अपना आँगन सजाओ।
भारत की सुन्दर छवि बनाओ
वन्दे मातरम् की सच्ची
भावना ले आओ।
भारत से स्वार्थ को
दूर भगाओ।
तन-मन और मन से
समर्पित हो जाओ।
प्रेम की गंगा में
डुबकी लगाओ।
रोती हुई आँखों को
हास दे जाओ।
फिर ध्वज फहराने की
पूर्ण अनुमति है।
वरना---
मेरी संवेदना
तुम सबके प्रति है।
इन सब के प्रति है।
शोभा महेन्द्रू
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
हिचकियों से बँधी दास्ताँ
थी न जाने कहाँ से शुरू
और हम थे समेटे हुए
दोनों हाथों में बस आबरू
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
वो सफर जिसने तन्हा किया
उस अंधेरी घनी रात में
साथ में फिर न हम जी सके
हाथ लेकर के भी हाथ में
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
जब दरख्तों से छनती हुई
धूप में दर्द को बांच कर
तुम चुके, इक परिन्दा उड़ा
जाने किस बात को सोच कर
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
आशीष दूबे
आज की इस भागमभाग में
दुनिया के समंदर में
वेदनाओं के भँवर में
संवेदनाओं के लिये वक्त कहाँ?
आज संवेदना उठती है मन में
बसती है दिल में
और दिमाग में सिमट जाती है
जिस तेजी से हम बढ़ रहे हैं
खुद ही खुद को छल रहे हैं
एक दिन ऐसा भी आयेगा जब
हमसे पूछा जायेगा
कि बताओ संवेदना कौन है?
किसी की बहन है, बीवी है
नानी है सहेली है
ये कैसी पहेली है?
आखिर कौन है संवेदना?
रिश्ता क्या है इससे मेरा?
तब हम न बता पायेंगे
कि संवेदना दिल की आवाज़ है
इंसान की इंसानियत है
जानवर और हमारे बीच का फर्क है
माँ की ममता और बाप के दिल का प्यार है
छूने से छू लेने का अहसास है संवेदना है
और कलम हाथ में ले कर
यह साधिकार कथन है कि
संवेदना पहचान है साहित्य की भी
इस लिये संवेदित हूँ
कि खो न जाये कहीं।
रचना सागर
दिल के रागों ने
थमी हुई श्वासों ने
जगा दी है एक संवेदना।
नाचने लगा है मन मयूरी सा
खिलने लगे है कही रंग
इस सूनी ज़िंदगी के केनवास पर
और सपने लेने लगे है जैसे आकार कई
चटकने लगी है फिर से कली कोई
दिल की बंजर ज़मीन पर
नयी चेतना के एहसास से
एक ख़ुशबू से
दर्द की बर्फ़
पिघलने लगी है।
बीत गयी लगता है
कोई दर्द की रात अंधियार॥
एक उम्मीद एक आशा
दिल में उगते सूरज सी
चमकने लगी है।
जुगनु से जगमग
करने लगे हैं रैन…
एक अमृत सी धारा
दिल में बहने लगी है
पी के विष बना था
जीवन नीलकंठ सा
संवेदनाओं की ज़मीन पर
एक फ़सल प्यार की उगने लगी है!!
रंजना भाटिया
विचारों और भावनाओं का संगम
है दिलों की संवेदना
है संवेदना एक ज्योति समान
है दिलों की अंतरात्मा
जो दिलों को सुख-दुख का
आभास कराती
जो अंधकार को दूर कर
नव प्रकाश का उजियारा करती
संस्कृति के बीज संवेदना
से पनपते
दया भाव के बीज पनपते
काश अगर संवेदना न होती
श्मशान सा जग न्यारा होता
विचारो और भावनाओं का संगम
है संवेदना दिलों का संगम
महेंद्र मिश्रा
मेरे जिगर में
संवेदना कभी रहती थी
कई दिनों से कहीं
चली गई है शायद
देखा नहीं उसे
कई दिनों से
चेहरा भी याद नहीं पड़ता उसका
सुबह अखबार पढ़ते समय
वो उदास हो जाती थी
राह चलते नंगे बच्चों को
भीख डालने को कहती थी
रिश्वत नहीं देने देती थी
बातबात पर कुछ करना चहिये
की रट लगाए रहती थी
अब मेरे अंदर स्वार्थ, लाचारी
बेवफ़ाई और नये जमाने की शराफत
इतने ज्यादा भर गए हैं
के बेचारी के लिये कोई
जगह ही ना बची होगी
क्या करती, एक दिन उठकर चली गई
उसकी याद आती है, कभी कभी...
तुषार जोशी
यहाँ इंसान के हाथों ही,
इंसानियत की हत्या है होती,
जब समक्ष समाज के एक औरत,
अपनी अस्मत है खोती॥
यहाँ मनुष्य जाति की भीड़ में,
’इंसान' खोता नज़र आता है।
बुजुर्गों को धक्के देकर, अपने ही घर से,
जब बाहर खदेड़ा जाता है॥
न पड़ोसी को जानते हैं,
न रिश्ते नातों को पहचानते हैं
मज़दूरों के घर छीन कर,
अपना महल बनाना जानते हैं॥
हर तरफ़ धोखे और फ़रेब की
धूल दिखाई देती है
यहाँ दोस्तों के बीच में भी,
एक लकीर दिखाई देती है
वेदों की इस धरती पर,
अब मानता कोई 'वेद' ना,
ढूँढ़ने पर भी न मिले,
हाय! कहाँ गई संवेदना!!
तपन शर्मा
हर सुबह देखता हूँ भीड़ को भीड़ में दौड़ लगाते हुए
हर तरफ छाई है तत्परता भीड़ में खो जाने की ।
और फिर अहसास होता है मुझे अपनों को पाने का
दिल से आवाज़ आती है रह-रह कर
जिसको देखा नहीं उसको छुआ है अक्सर।
हर शाम देखता हूँ जुगनुओं को अंधेरों से गले लगाते हुए
हर तरफ छाई है नीरवता खुद से बगावत करने की ।
और फिर अहसास होता है मुझे अपनों मे खो जाने का
कभी जाग कर तो कभी सो कर
जिसको देखा नहीं उसको छुआ है अक्सर।
कि देखता हूँ सूरज को पश्चिम में ढलते हुए
एक दिन में सौ सौ कहानी गढ़ते हुए।
और फिर अहसास होता है मुझे इस दुनिया में आने का
कभी रो कर तो कभी हंस कर
जिसको देखा नहीं उसको छुआ है अक्सर ।
सुलभ जायसवाल
मै इतना भावशून्य भी नहीं
चुप हूँ इसका अर्थ ये नहीं
कि संवेदनाएँ मर चुकी
चाहता हूँ चिल्ला -चिल्ला कर रोष प्रकट करना
पर फिर कुछ सोच कर खुद को मौन पाता हूँ
नक्कार खाने में तूती की आवाज कौन सुन पायेगा
किसके लिये? कब तक करूँ अपनी संवेदना का इज़हार
उनके लिये --जो चन्द हलाहल के घूंटों के लिये करते है खून का सौदा
या उनके लिये --जो करवाते है वारिस की चाह में भ्रूण हत्या
या उनके लिये --जो चन्द रूपयों की खातिर जला देते हैं बहुओं को
या उनके लिये -- जो सत्ता के लोभ में करते है देश का सौदा
बोलो ये सब देख कर बने रह सकते हो संवेदनशील
रोज टीवी पर देखकर गैंगरेप की खबरें
क्या तुम बलात्कार का दंश महसूस कर सकते हो
किसी की पीड़ा को सरेआम नीलाम होते देख
क्या तुम अब भी संवेदना की बातें करते हो
संवेदनाएँ बेची जा रही हैं--
और ये सब देख कर-सुनकर
मैं हतप्रभ , दिकभ्रमित सा --
अब असंवेदनशील बनता जा रहा हूँ-
हाँ अब ये कहने में कतई दुख नहीं
मैं बाजारीकरण का हिस्सा बनता जा रहा हूँ
रोज-रोज मर कर अब जीना सीख चुका हूँ-
क्योंकि अब मैं असंवेदनशील बन चुका हूँ ।
अनुराधा श्रीवास्तव
कालान्तर से बाहुबल ही करता रहा
जीवन मरण का फ़ैसला
था भुजाओ में बल जिसकी
वही इस धरा पर स्थापित रहा
छवि जंगल राज की है क्यूं धुमिल भला
शिकारी अगर अपने लिये शिकार करने चला
देख लो युगों से इतिहास दर्ज है पुस्तकों पर
ताज शोभा बना है शक्तिशाली के मस्तकों पर
तलवार जिसके हाथ में, बना वो सर्वगुण सम्पन्न
निरीह तो सदियों से मेमने बन होते रहे गुम
आवश्यकता है, दर्प को दर्पण दिखलाने की
गिरे हुये को हाथ दे कर फ़िर से उठाने की
स्वयं के चेहरा छुपाने में भला क्या धरा है
शाब्दिक आश्वासनों से हुआ किसका भला है
झूठी सांत्वनाओं से भरे कमण्डल
कोरी संवेदनओं के लेकर बण्डल
देख शोषण किसी का चुप रह जाना
और चटपटी खबर सा उसको फैलाना
नहीं संवेदना है यह... है भीषण भीरूता
संवेदना समझो है मन की विकलांगता
यदि रखा इसे मन मे मात्र "पीड़" सा
और बन कर रहे हिस्सा इक भीड़ का
भावुकता छोड, संवेदना को लो शस्त्र बना
एक तीव्र बाण सा, अपने लक्ष्य को चीरता
मोहिन्दर कुमार
सूरज का दिखना
हमेशा
दिन नहीं होता
कल
शुरू ही हुआ था
सूरज दिखना
वीरेंद्र
तंग गली में
भाग रहा था जल्दी-जल्दी
कहाँ जा रहा होगा
डॉक्टर का घर छोड़कर!
आग लगे मोबाइल को
बज उठा
उठाया जल्दी
मगर बीबी की टेंशन से
बंद हो चुके कान
नहीं सुन सके
बाइक का हॉर्न
उतरा सवार
धर दबोचा
मारने लगा
लातों-घूसों
जूतों से
आस-पास खड़ी भीड़
शायद
हार्दिक संवेदना व्यक्त कर रही थी
तभी कुछ बोल नहीं रही थी
भीड़ के दिल में कितनी आग थी
वो बाहर कैसे दिखती!
वीरेन्द्र
जब लगभग मर चुका
छोड़ चला गया
वो बाइक सवार
इस भीड़ के सहारे
जो ऐसा देख-देख ऊब चुकी थी
लोग भी
अपने-अपने काम में लग गये
करते भी क्या
फ़र्ज़ निभा चुके थे।
२ घंटे बाद
गुजरा एक रिक्शा चालक
नब्ज़ टटोला
शायद बच सकता था
क्योंकि उसे दिन की पहचान थी
मगर डॉक्टर की नहीं
डॉक्टर ने
लेने से मना कर दिया
हो गया उसे भी यकीन
दिन जैसी वो रात थी
अब सड़क पर पड़ी
एक लावारिश लाश थी।
शैलेश भारतवासी
वह झोंपड़ी में बैठा;
आलू भून रहा था।
उदर की भूख मिटानी थी उसको;
भीड़ आई; झोंपड़ी में आग लगाई
आलू की तरह
भून दिया खुद को।।
कुछ साँस बाकी थी
इसलिए पुलिस ने उसे
अस्पताल पहुँचा दिया।
अस्पताल पहुँचते ही उसने
दम तोड़ दिया।।
उसकी माँ अस्पताल जाने को गिड़गिड़ाई
सभी से मिन्नतें कीं
किसी ने अस्पताल नहीं पहुँचाई।
क्यों कि उसके पल्लू में नहीं थी
एक भी पाई।।
उसके हृदय की व्यथा
इंसान ने नहीं
भगवान ने नहीं
शैतान ने सुन ली।
अस्पताल जाने की व्यवस्था
मुफ्त कर दी।।
शैतान ने एक गोली चलाई।
बुढ़िया को लगी
बुढ़िया लड़खड़ाई।।
थोड़ी देर में ही पुलिस ने
बेचारी अस्पताल पहुँचाई।
इसमें उसकी
एक भी दमड़ी
काम नहीं आई।।
अस्पताल में जाकर उसने
डाक्टरों को तंग नहीं किया।
उसका तो सिर्फ
बेटा देखने को
तड़प रहा था हिया।।
इसलिये उसे बेटे की लाश के पास
ले जाया गया।
श्वेत चादर में ढका
लाडले का चेहरा दिखाया गया।।
देख कर चेहरा
खूब जोर से रोई; फिर हँसी।
अंत में यूँ कहके
बुढ़िया भी चल बसी।।
ओ धर्म के जनूनिओं
अब मेरी झोंपड़ी की जगह राख है।
लेकिन पूरी तरह पवित्र और साफ है।।
वहाँ मन्दिर बनाओ
मस्जिद बनाओ
या बनाओ गुरुद्वारा।
हम तो चाहे जहाँ रह लेंगे
क्योंकि
सम्पूर्ण भारत है हमारा।
सम्पूर्ण भारत है हमारा।
सन्तोष कुमार सिंह
सुबह-सुबह जब आंख खुली तो
एक घोंसला उजड़ चुका था....
स्मृतियों के गीले अवशेष बचे थे
तिनका-तिनका बिखर चुका था....
सूरज कि अलसाई किरणें
दीवारों से जा टकराईं
पहली बार.....
मायूसी ने कमरे में पाँव पसारे
हंसी उड़ाई.....
पहली बार....
लगा कि जैसे घड़ी की सुईयां
उग आयी हैं बदन में मेरे
बिस्तर से दरवाज़े तक का सफ़र
लगा कि ख़त्म न होगा...
सुबह का पहला पहर
लगा कि ख़त्म न होगा....
रात एक ही प्लेट में दोनों
खाना खाकर, सुस्ताये थे...
देर रात तक बिना बात के
ख़ूब हँसे थे, चिल्लाये थे....
काश !! रात कल ख़त्म न होती.....
अभी किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी है...
मैंने सोचा-तुम ही होगे...
आनन-फानन में बिस्तर से नीचे उतरा
हाथ मेज से टकराए हैं...
खाली प्लेट नीचे चकनाचूर पड़ी है
दरवाज़े पर कोई दस्तक अब भी खड़ी है.....
मैं बेचैन हुआ जाता हूँ
बिस्तर से दरवाज़े तक का लम्बा रस्ता तय करता हूँ....
कोई नहीं है ...........
एक हँसी का टुकडा शायद तैर रहा है
दूर कहीं पर ....
आंखों में गीली मायूसी उभर रही है....
एक नदी मेरे कमरे में पसर रही है.....
और मैं
संवेदना का पुल बनाकर
इस नदी से बच रहा हूँ
और आंखों के समंदर से तुम्हारा
अक्स फिर से रच रहा हूँ..........
निखिल आनंद गिरि
उस रोज गुजर रहा था, एक रास्ते से मैं
थी बहुत जल्दी, हो रहा था इंतज़ार कहीं
था मग्न उसी लग्न में के कहीं चूक न जाऊं
गिर पड़ा किसी वाधा से..... अचानक
नज़र पड़ी तो एक बुड्ढी रोड पर पड़ी थी
उसकी ही बीमार देह से मुझे ठोकर लगी थी
देख कर हैरान था और गुस्से से था मैं लाल,
कर दिये खराब कपड़े, बिगड़ गयी थी चाल
क्या जाने कहां मर गई मेरी संवेदना
अपनी ही धुन में था, गया भूल मैं पूछना
कि मर गयी या मरने के इंतज़ार में वो पड़ी थी
मुझे तो बस अपने ही काम की पड़ी थी
दूर खडी मुझ पर इंसानियत हँस रही थी
उस ओर बुढ़िया, इस ओर संवेदना मर रही थी
प्रवीन सलूजा
कहने को बहुत कुछ है, अपनी कहानी में,
लफ्ज़ों में बयां कर दे, ऐसी नज़्म नहीं होती !
आँखो को इंतज़ार की आदत सी हो गई है,
दहलीज़ पर कोई दस्तक, बज़्म नहीं होती !
जमाना कहता है, हर रात की सुबह होती है,
ये बेकस रात, मगर अब, खत्म नहीं होती !
महबूब की मेंहदी फीकी पड़ सकती है,
बचपन की शरारत, कम नहीं होती !
पत्थर हो चुकी संवेदना हमारी,
ये आँखें अब नम नहीं होती ! !
प्रतिष्ठा शर्मा
तुम संवेदित नहीं होते?
मेरे मन ने मुझे झकझोरना चाहा
वह बच्चा जिसे भीख न देने की मंशा से
अपनी गाड़ी का काँच मैंने चढ़ा लिया था
अब भी गिड़गिड़ा रहा था।
उसके पैर में पट्टियाँ लगी थीं
लंगड़ा कर चलते हुए
अपने भूखे होने का ईशारा करता हुआ
ट्रैफिक पर हरी बत्ती होने तक
चुभती हुई निगाहों से, मुझे देखता ही रहा।
मैं मन के सवाल से आहत था
मेरे स्वाभिमान की नज़रें झुकी हुई थीं
और बहुत देर तक, मेरी आत्मा का अनबोला रहा मुझसे।
बाज़ार से लौटते हुए फिर वही चौक
फिर वही बच्चा...
पेड़ की छाँव में खड़ा बीड़ी पीता हुआ
मेरी निगाह से बेपरवाह।
आखिरी कश की राहत के बाद
उसके सधे कदम फिर मुड़ गये
चेहरे पर फिर छा गयी मुर्दानी
और फिर वह हाँथ फैलाये, मेरे ही सामने था।
मन बगलें झाँक रहा था
स्वाभिमान ने एक गहरी साँस ली
लेकिन आत्मा मेरे कंधे पर हाथ रख सिसक उठी
बोझिल कदमों ने गाड़ी बढ़ा ली..
राजीव रंजन प्रसाद
कल तक -
जब भी मुंडेर पर
बड़बोले कौए
राग अलापते थे ,
निठल्ली सोई जिंदगी
मौत की खबर सुन
जाग जाती थी।
हाथ खुद-ब-खुद चल पड़ते थे
जमीं की ओर,
एक टुकड़ा दे मारती थी
किसी की मौत को,
और जी जाती थी जिंदगी।
ऐसे ही
प्रकृति और
प्रकृति की वेदना भी
कौओं की तरह ही
बिसरा दी जाती थीं
मानो जिंदगी के रास्ते में आती हों वो।
लेकिन आज जब
खुद
मुंडेरों पर ऊंघ रही है जिंदगी
तड़पती -बिलखती,
छीन लिया है
आसमान ने जमीं इससे,
डूबो दिया है पानी में
जमीं के हर वो हिस्से को
जो भरता था
दंभ इसमें।
तो यही
नासमझ जिंदगी
बिलख रही है,
मुंडेर से कोस रही है बाढ़ को।
शायद जिंदगी
जानती नहीं कि
जिस संवेदना की राह देख रही है वो
उसे कौओं की ही बददुआ लग गई है,
आसमाँ को फाड़ कर निकल गए कौओं की।
इसी कारण
अब चारों ओर
बस मौत और वेदना है,
संवेदना कहीं नहीं।
विश्व दीपक 'तन्हा'
टूटने को है संवेदनाओं का बाँध,
इसे मत रोको, ढह जाने दो,
संचित सभी व्यथाओं को,
चिंताओं और कुंठाओं को,
टूटी सभी आशाओं को,
पीड़ा के प्रवाहों को,
उन्मुक्त हो अब बह जाने दो,
निरंतर उठते विचारों को,
सपनों और विकारों को,
अभिलाषाओं के मनुहारों को,
इच्छाओं के प्रहारों को,
प्रत्यक्ष हो सब, कह जाने दो ,
मन की हर अभिव्यक्ति को शब्दों मे ढल जाने दो,
कोरे हैं ये रूप इन्हें , कोरे ही रह जाने दो।
सजीव सारथी
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22 कविताप्रेमियों का कहना है :
सभी प्रतिभागियों की कवितायें अलग-अलग विचारों,भावनाऒं को उकेरने में सफल रही । कुछ कविताऒं कि चित्रात्मकता मार्मिकता उत्पन्न करती है। अजय जी के चित्र अच्छे लगे ।
Sabhi kaviyon ko meri taraf se shubh kaamnaayen...is edition ko kamiyaab banaane me aap sabka sahyog mila...aur ek behtareen banne ke liye hamaari ek aur koshish kamiyaab hoti nazar aa rahi hai...
सर्व प्रथम तो अजय कुमार जी का साधुवाद कि पेंटिंग्स बहुत अच्छी है। मेरा सुझाव है कि युग्म के पास स्मिता जी, अजय जी एवं मनोज जी के रूप में तीन पेंटर हैं अत: कार्य-विभाजन कर किया जाये जिससे पल्लवन की सभी रचनाओं पर पेंटिंग उपलब्ध हो सके।
कुलवंत जी
--------
”वह तो जा चुका था -
अपने हाथ की खुजली शांत करके,
उस दीन-हीन फटेहाल से
पचास का नोट छीन के ।
किसी अन्य शिकार की टोह में -
मैने देखा !”
बहुत मर्मस्पर्शी कविता है। सटीक भाषा और मर चुकी संवेदना पर सशक्त प्रस्तुति।
रिशिकेश खोडके “रूह”
----------------
बरसे, भीगा जाये, मेघ दुख के काले,
पीड़ा के शूल, हृदय को भेद डाले
दूर क्षितिज नैराश्य मात्र दर्शाये,
काँपे कोमल मन, तब थरथराये
अवसाद मेरा सागर, तुम किनारे,
कहो संभव है ज्वार से बचना ?
सचमुच संभव नहीं ज्वार से बचना। अच्छी रचना।
श्रीकान्त मिश्र 'कान्त'
----------------
“मैं देखता रह जाता हूँ चुपचाप
कानों में फिर
मद्धिम सी आवाज उभरती है।
रेलवे प्लेटफार्म पर चीखती चिल्लाती
ट्रेन आकर रुकती है।“
प्रस्तुतिकरण सशक्त है। चित्र खीच दिया है आपने। कविता का अंत संवेदित करता है।
रामेन्दू मानव
-----------
संवेदना की सटीक परिभाषा गढी है रामेन्दु जी आपनें। जिस जगह आपने कविता के माध्यम से पाठक को पहुचाया है वहीं मानवता का विशाल मंदिर है। काश उस मंदिर में पैर रखने की जगह न हो।
“किसी के रोने पर जब आँखें अपनी नम हो जाती है”
”किसी पर होता ज़ुल्म देख, जब मुट्ठी अपनी बँध जाती है”
”कुछ न कर पाने की लाचारी से जब आत्मा पसीजती है”
”किसी के सुखे होंठ देख कलियाँ मन की मुरझाती हैं”
”जब दो दर्दों का पावन संगम प्रयाग कहलाता है
जब प्यार, प्रेम के तोड़ निवाले, सब को भर पेट खिलाता है”
वाह!!!
शोभा महेन्द्रू
---------
“स्वतंत्र भारत के नागरिकों
मेरी संवेदना तुम सबके प्रति है।“
आप सत्य कह रही हैं शोभा जी स्वतंत्र भारत के नागरिकों पर संवेदना लाजिमि है। उनके निकम्मेपन पर करारी चोट की है आपने।
आशीष दूबे
-----------
“आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी”
संवेदन शून्यता को कोमलता से उकेरा है आपनें। आपका दर्द पाठक तक पहुँचता है।
रचना सागर
--------
संवेदनाओं को ले कर अच्छे प्रश्न उठाये हैं आपने।
”आज संवेदना उठती है मन में
बसती है दिल में
और दिमाग में सिमट जाती है”
“एक दिन ऐसा भी आयेगा जब
हमसे पूछा जायेगा
कि बताओ संवेदना कौन है?”
“यह साधिकार कथन है कि
संवेदना पहचान है साहित्य की भी
इस लिये संवेदित हूँ
कि खो न जाये कहीं।“
आप सत्य कह रहे हैं कि संवेदना के खो जाने का खतरा बढ गया है। साहित्यकारों को भी आपने बखूबी कटघरे में खडा किया है।
रंजना भाटिया
----------
”संवेदनाओं की ज़मीन पर
एक फ़सल प्यार की उगने लगी है!!”
संवेदनाओं का बडा दिलकश पहलू आपने प्रस्तुत किया है रंजना जी। अच्छी कविता।
महेंद्र मिश्रा
---------
”काश अगर संवेदना न होती
श्मशान सा जग न्यारा होता
विचारो और भावनाओं का संगम
है संवेदना दिलों का संगम”
सुन्दरता से आपने संवेदना को पारिभाषित किया है। अच्छी रचना।
तुषार जोशी
--------
”अब मेरे अंदर स्वार्थ, लाचारी
बेवफ़ाई और नये जमाने की शराफत
इतने ज्यादा भर गए हैं
के बेचारी के लिये कोई
जगह ही ना बची होगी
क्या करती, एक दिन उठकर चली गई
उसकी याद आती है, कभी कभी...”
सीधे शब्दों में गहरा घाव कर दिया आपने तुषार जी। संवेदित हो गया मैं, पढते ही....
तपन शर्मा
----------
वेदों की इस धरती पर,
अब मानता कोई 'वेद' ना,
ढूँढ़ने पर भी न मिले,
हाय! कहाँ गई संवेदना!!
तपन जी आपको संवेदना कहीं मिले तो बताईयेगा।
सुलभ जायसवाल
-----------
“कि देखता हूँ सूरज को पश्चिम में ढलते हुए
एक दिन में सौ सौ कहानी गढ़ते हुए।
और फिर अहसास होता है मुझे इस दुनिया में आने का
कभी रो कर तो कभी हंस कर
जिसको देखा नहीं उसको छुआ है अक्सर”
वाह!!!
बहुत ही उत्कृष्ट रचना सुलभ जी। आपने संवेदित तो किया ही साथ ही प्यास भी जगा दी कि आपको और पढा जाये।
मोहिन्दर कुमार
--------------
“तलवार जिसके हाथ में, बना वो सर्वगुण सम्पन्न
निरीह तो सदियों से मेमने बन होते रहे गुम”
”शाब्दिक आश्वासनों से हुआ किसका भला है”
”देख शोषण किसी का चुप रह जाना
और चटपटी खबर सा उसको फैलाना
नहीं संवेदना है यह... है भीषण भीरूता”
बहुत गंभीर सोच प्रस्तुत की है आपने मोहिन्दर जी।
”संवेदना समझो है मन की विकलांगता
यदि रखा इसे मन मे मात्र "पीड़" सा”
संवेदना की आज के समय में यही सही परिभाषा है।
शैलेश भारतवासी
-------------
“सूरज का दिखना
हमेशा
दिन नहीं होता
कल
शुरू ही हुआ था
सूरज दिखना”
आपने आरंभ बहुत सुन्दर किया अपनी कविता का। कविता में स्थापित की गयी घटना निश्चित संवेदित करती है। शिल्प की दृश्टि से कविता दूसरे पैरा से कमजोर हो जाती है। यद्यपि भावों को ले कर कोई शिकायत नहीं।
सन्तोष कुमार सिंह
---------------
कथ्य आपका संवेदित करता है, शिल्प कमजोर है।
निखिल आनंद गिरि
----------------
“संवेदना का पुल बनाकर
इस नदी से बच रहा हूँ
और आंखों के समंदर से तुम्हारा
अक्स फिर से रच रहा हूँ..........”
बेहतरीन कविता। बहुत बधाई निखिल जी।
प्रवीन सलूजा
---------
दूर खडी मुझ पर इंसानियत हँस रही थी
उस ओर बुढ़िया, इस ओर संवेदना मर रही थी
बहुत अच्छा प्रयास। उत्कृश्ट सोच।
प्रतिष्ठा शर्मा
----------
पत्थर हो चुकी संवेदना हमारी,
ये आँखें अब नम नहीं होती ! !
इस गज़ल के साथ अच्छी विविधता प्रदान की आपने काव्य पल्लवन में। बधाई।
विश्व दीपक 'तन्हा'
--------------
“शायद जिंदगी
जानती नहीं कि
जिस संवेदना की राह देख रही है वो
उसे कौओं की ही बददुआ लग गई है,
आसमाँ को फाड़ कर निकल गए कौओं की।
इसी कारण
अब चारों ओर
बस मौत और वेदना है,
संवेदना कहीं नहीं।“
अपेक्षा के अनुरुप एक श्रेष्ठ रचना। बहुत बधाई तनहा जी।
सजीव सारथी
-------------
टूटने को है संवेदनाओं का बाँध,
इसे मत रोको, ढह जाने दो,
आपसे इसी प्रकार की रचना की अपेक्षा थी। इससे सुन्दर पल्लवन के इस अंक का उपसंहार नहीं हो सकता था।
--------------------
सभी कवियों को इस अंक की बहुत बधाई।
*** राजीव रंजन प्रसाद
काव्य पल्लवन तो एक गुलदस्ते के समान है। संवेदना के इतने पहलू तो मैने सोचे भी न थे। सभी कवियों को बधाई।
प्रिय अनुराधा जी,
हम आपके अत्यंत आभारी हैं कि आपने हमारी गलतियों की तरफ़ ध्यान दिलवाया। पिछली बार के काव्य-पल्लवन में भी हमसे विपिन चौहान 'मन' की कविता छूट गई थी, उन्होंने हमें तुरंत बताया जिससे हम यह सत्यापित कर पायें कि उनकी कविता में वास्तव में आई थी या नहीं। कई बार गैरपरिचित व्यक्तियों के मेल बल्क या स्पैम मेल फोल्डर में चले जाते हैं। हम सभी का ध्यान रखते हैं, लेकिन आदमी तो आदमी है, गलतियाँ कर जाता है। अनुराधा जी की यह कविता जिसे अभी इस पल्लवन में उसके भेजे गये समय के अनुसार जोड़ा गया है, ,मोहिन्दर जी को ११ अगस्त को ही प्राप्त हो गई थी, लेकिन गलती से छूट गई। हमें इसका अत्यंत खेद है।
सभी पाठकों से अनुरोध है कि वो हमारी गलतियों की तरफ हमारा ध्यान आकृष्ट करायें ताकि असंतोष की स्थिति न बने।
संवेदना विषय पर इतनी अधिक विविध मुखी कविताएँ पढ़ कर मज़ा आ रहा है । अभी तो सभी बहुत अच्छी
लग रही हैं । आराम से दो-दो प्रतिदिन पढ़ूँगी ।
पहली कविता-------- कुलवन्त सिंअ जी की है । यह बहुत संवेदन शील यथार्थ वादी कविता है ।
आज जनतंत्र में आं आदमी किस प्रकार शोषण और हिंसा का शिकार हो रहा है इसकी मार्मिक
कथा है । कवि ने पाठकों में संवेदना जागृत की है ।
२ ऋषिकेश जी की - गज़ब की कविता है । भाषा थोड़ी कठिन अवश्य है किन्तु भाव संप्रेषित करने में सक्षम है ।
कवि को बहुत- बहुत बधाई ।
"अब असंवेदनशील बनता जा रहा हूँ-
हाँ अब ये कहने में कतई दुख नहीं
मैं बाजारीकरण का हिस्सा बनता जा रहा हूँ
रोज-रोज मर कर अब जीना सीख चुका हूँ-
क्योंकि अब मैं असंवेदनशील बन चुका हूँ "
अनुराधा जी, आपकी कविता छूट जाती तो बडा नुकसान हो जाता। जितना ताल ठोक कर आपने असंवेदन शील होने की घोषणा की है, संवेदना पर इतनी कविताओं में भी यह पक्ष छूट गया था। आपकी एक एक पंक्ति अक्षरक्ष: सत्य है। बहुत सुन्दर रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
संवेदना हृदय-स्पर्श कर गयी। सभी कवियों को बधाई। संवेदना के हर पहलू को छूता काव्य-पल्लवन का यह अंक सुन्दर बन पड़ा है।
जुगनु से जगमग
करने लगे हैं रैन…
एक अमृत सी धारा
दिल में बहने लगी है
पी के विष बना था
जीवन नीलकंठ सा
संवेदनाओं की ज़मीन पर
एक फ़सल प्यार की उगने लगी है!!
रंजना जी की ये पंक्तियाँ बहुत अच्छी लगी।
सर्वप्रथम तो बधाई सभी मित्र कवियों को जिन्होंने काव्य पल्लवन के माध्यम से इतनी सुंदर रचनावों का संकलन उपलब्ध करवाया , विशेष आभार अजय जी को जिन्होंने कम समय में कुछ बेहद ही प्रभावी चित्र बनाये , कवितावों की ही तरह उनके चित्र भी सोच को अन्दोलित करने वाले लगे.
कुलवंत जी की कविता उनके संग्रह "निकुंज" से ली गई है, जो संदर्भ के लिहाज से तो सटीक बैठती है पर कुछ नया अगर लिखा होता तो कुछ और बात होती.
रिश्केश जी की कविता भावपूर्ण है .... गहरी संवेदनाओं से भरी विशेषकर ये पक्तियाँ
बरसे, भीगा जाये, मेघ दुख के काले,
पीड़ा के शूल, हृदय को भेद डाले
दूर क्षितिज नैराश्य मात्र दर्शाये,
काँपे कोमल मन, तब थरथराये
अवसाद मेरा सागर, तुम किनारे,
कहो संभव है ज्वार से बचना ?
वाह अति सुंदर
एक द्रश्य रुपी वर्णन द्वारा संवेदना को ukerne की कोशिश की है श्रीकांत जी ने, शैलेश जी ने, संतोष जी ने और राजीव जी ने, सभी वर्णन बेहद मार्मिक है मगर मेरे हिसाब से श्रीकांत जी बाजी मार ले गए हैं, उनका वर्णन इतना जिवंत है कि आँख भर आती है, वैसे शैलेश जी की कविता की शुरुवात ज़बर्दस्त है
सूरज का दिखना
हमेशा
दिन नहीं होता
कल
शुरू ही हुआ था
सूरज दिखना
वैसे ही राजीव जी भी संवेदनाओं को छू जाते है जब लिखते हैं -
अपने भूखे होने का ईशारा करता हुआ
ट्रैफिक पर हरी बत्ती होने तक
चुभती हुई निगाहों से, मुझे देखता ही रहा।
मैं मन के सवाल से आहत था
मेरे स्वाभिमान की नज़रें झुकी हुई थीं
और बहुत देर तक, मेरी आत्मा का अनबोला रहा मुझसे।
संवेदना को परिभाषित करती कविताओं में बस रामेंद्रू मानव ही प्रभावित कर पाते हैं, उनके गीत का एक एक पैरा पढने लायक है सभी इतने सुंदर हैं की किसी एक का चुनाव करना मुश्किल है फिर भी ये पक्तियाँ मुझे विशेष प्रभावी लगी -
जब रिक्शा चालक को बोझ खींचना हमें अखरता है
जब कंधे से खिंचता बोझ देख अंदर कुछ बिखरता है
जब भूखा देख किसी को आँतें अपनी कुमल्हाती हैं
किसी के सुखे होंठ देख कलियाँ मन की मुरझाती हैं
जब कुछ कर गुज़र जाने की भावना पनपती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है
सचमुच इन्हे पढ़ कर ऐसा लगता है जैसे आईने के रूबरू खड़े हो.
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
और
जिसको देखा नहीं उसको छुआ है अक्सर।
में कवियों ने संवेदना को अलग अंदाज़ में चित्रित किया है,
खोयी संवेदना को दुंदते कवियों मे से मात्र तुषार जी ही प्रभावित कर पाते हैं
रचना जी और शोभा जी चिरपरिचित फॉर्म में नज़र आते हैं,
अनुराधा जी और मोहिंदर जी ने कमाल की रचनाएं दी हैं, संवेदनाओं में तूफ़ान उठाती सी, बधाई ,
विशेष बधाई निखिल जी को जिनकी कविता जितनी सुंदर है उतना ही मर्म से भरा चित्र खीचा है अजय जी ने उनके लिए, वाह क्या लाजवाब पंक्तियाँ है जनाब -
रात एक ही प्लेट में दोनों
खाना खाकर, सुस्ताये थे...
देर रात तक बिना बात के
ख़ूब हँसे थे, चिल्लाये थे....
काश !! रात कल ख़त्म न होती.....
तनहा जी के बारे में क्या कहूँ जो चित्र खीचा है, इतना मार्मिक है, और इतना जीवंत, की दिल दहल जता है विशेषकर अंत -
शायद जिंदगी
जानती नहीं कि
जिस संवेदना की राह देख रही है वो
उसे कौओं की ही बददुआ लग गई है,
आसमाँ को फाड़ कर निकल गए कौओं की।
इसी कारण
अब चारों ओर
बस मौत और वेदना है,
संवेदना कहीं नहीं।
कुल मिला कर एक संग्रह्निये अंक है ये ..... हिंद युग्म को बधाई
एक बात और कुछ नाम इनमे शामिल नही है अजय यादव, सुनीता शानू, गिरिराज जोशी, क्यों इस पल्लवन का हिस्सा नहीं हैं, क्या मैं जान सकता हूँ, मेरे विचार से युग्म के सभी सदस्यों को काव्य पल्लवन के हर अंक का हिस्सा होना ही चाहिऐ
बहुत ही सुंदर सबने लिखा है ...संवेदना के हर रूप ने दिल को छू लिया अजय जी का बहुत बहुत धन्यवाद
सभी चित्र बहुत ही सुंदर बने हैं .. सभी को इस अंक की बहुत बधाई।
काव्य पल्लवन के इस अंक के लिए बधाई, शैलेश।
अभी तो सिर्फ पेंटिंग्स देखी हैं जो बहुत सुंदर लगीं।
मेरा मत है कि एक साथ इतनी कविताओं पर एक ही पोस्ट पर चर्चा नहीं होनी चाहिए। आप कविता का शीर्षक और कवि के नाम से एक लिंक देते जिस पर क्लिक करने से एक अलग पोस्ट खुलती तो बेहतर होता। हर कविता पर व्यक्त विचार एक जगह पढ़ना और अपने भावों को वहाँ समाहित करना ज्यादा सहज है। ये तो आप मानेंगे कि ये सारी गंभीर किस्म की कविताएँ हैं और एक बार में शायद ही कोई पाठक इन्हें पूरा पढ़ना चाहेगा।
मनीष जी,
आपने सराहा हमारा उत्साह बढ़ा। जहाँ तक हर एक कविता की अलग पोस्ट बनाने की बात है तो उससे एग्रीगेटर पर एक साथ २० से अधिक पोस्ट दिखाई पड़ेंगी, इससे सभी को असुविधा होगी। वैसे हमने कवियों के नाम पर क्लिक करके सीधे उनकी कविता और संबंधित पेंटिंग पर जम्प करने का विकल्प दिया है। लगता है आपने यह अंक ध्यान से नहीं देखा।
मैं आपकी सलाह तकनीकी टीम को फ़ारवर्ड कर रहा हूँ।
काव्य-पल्लवन का यह अंक बहुत ही सुंदर है। कुछ कविताएँ रुलाती हैं, कुछ सोचने पर विवश करती हैं तो कुछ झकझोरती हैं। युग्म की प्रारम्भिक पेंटर स्मिता जी की व्यस्तता के कारण हम पिछली दो बार पेंटिंग नहीं प्रकाशित कर पाये थे। इस बार अजय हमारे लिए उम्मीद की किरण है। हम उनका इस परिवार में हार्दिक स्वागत करते हैं।
बात कविताओं की कर ली जाय। जैसा कि सजीव जी से पता चला कि कवि कुलवंत जी की यह कविता 'निकुंज' में प्रकाशित है। ऐसे में कुलवंत जी को सतर्क रहना चाहिए। जबकि वो सामर्थ्यवान कवि हैं, वो इसी विषय पर नया भी लिख सकते थे। वैसे उनकी यह कविता भी कम नहीं है। बिलकुल विषयानुकूल है। बधाई।
ऋषिकेश जी निम्न पंक्तियाँ अत्यंत प्रभावित करती हैं-
अवसाद मेरा सागर, तुम किनारे,
कहो संभव है ज्वार से बचना ?
श्रीकांत मिश्र जी,
आप बात को बहुत ही सहज मगर सुंदर ढंग से कहते हैं। यह आपकी विशेष विशेषता है। आजकल के मशीनी समुदाय में खोती जा रही संवेदनशीलता ही शायद इस कविता का कारण बनी है।
विषय को जिस प्रकार रामेन्दू मानव जी ने खोला है वो किसी अन्य कविता में नहीं दिखता। जब इस शीर्षक की उद्घोषणा हुई थी, तब हमारी एक पाठिका अनिता कुमार ने मुझसे 'संवेदना' शब्द का अर्थ पूछा था। मुझे जितना पता था, मैंने बता दिया था। लेकिन वो संतुष्ट नहीं हुई थीं। काश! उस समय यह कविता मेरे हाथ लग जाती।
शेष कविताओं पर कमेंट आगे॰॰॰॰॰
काव्य पल्लवन के सभी मित्र कवियों को सुंदर रचनाओं का संकलन उपलब्ध करवाने के लिये बधाई | संवेदना विषय पर बेहद संवेदनशील कविताये हमे रस्वादन के लिये उपलब्ध हूई है | अजय जी को प्रभावी चित्रों के लिये आभार
सभी मर्मस्पर्शी रचनायें है ,संवेदना का ज्वार उत्पन्न करती है
काव्य-पल्लवन का यह अंक बहुत हीं लाजवाब है। २२ कवियों की रचनाएँ अगर एक हीं विषय पर एक साथ मिले तो पाठ्क को और क्या चाहिए। संवेदना शब्द अपने आप में हीं कुतूहल पैदा करने में पर्याप्त है। किसी के साथ संवेदना रखने का मतलब होता है किसी की वेदना को समझना, उसे महसूस करना । हर एक कवि ने अपनी तरह से इस शब्द की व्याख्या की है।
कुछ पंक्तियाँ जो मुझे विशेषकर पसंद आईं->
रूह जी की
दूर क्षितिज नैराश्य मात्र दर्शाये,
काँपे कोमल मन, तब थरथराये
अवसाद मेरा सागर, तुम किनारे,
कहो संभव है ज्वार से बचना ?
मानव जी की
भावनाओं की नदी प्रीत लहरों से उफनती है
तभी संवेदना उपजती है यही संवेदना होती है।
शोभा जी की
देश प्रेम और राष्ट्रीय आस्मिता की
कोरी बातें मत करो।
ये सब अर्थ हीन हैं।
रचना जी की
और कलम हाथ में ले कर
यह साधिकार कथन है कि
संवेदना पहचान है साहित्य की भी
इस लिये संवेदित हूँ
कि खो न जाये कहीं।
रंजू जी की
संवेदनाओं की ज़मीन पर
एक फ़सल प्यार की उगने लगी है!!
अभी इतना हीं । शेष अगली टिप्पनी में-
विश्व दीपक 'तन्हा'
निखिल आनन्द गिरी और प्रतिश्ठा शर्मा की रचनाये अच्छी बन पडी है. बाकी रचनाये ठीक ठाक है...मेहनत की जरूरत लगती है...इसका मतलब यह नही निखिल आनन्द गिरी और प्रतिश्ठा शर्मा को मेहनत की ज़रूरत नही है.
कविता एक बडी ज़िम्मेदारी है जिसे हर कवि को समझना ही होगा..
शुभकामनाओ सहित
अवनीश गौतम
priya gaurav,
aap samay-samay par naye-naye prayog karte rahte hain.badhai!
kavita se samvedna nikaal dein to shesh kaya rah jayega?isliye yeh saaree kavitaayen maramsparshee hain.sab kavion ko badhayee.
-Ashok Lav
अच्छी रचनाऐं सभी को बधाई
शोभा जी,
आपकी कविता जैसे विचार मैं भी रखता हूँ। सच में, भारत की असली आज़ादी अभी बाकी है। आज भी हमें अपरोक्ष रूप से पश्चिम नियंत्रित कर रहा है। आपकी कविता में प्रवाह सुंदर है और विषयानुकूल भी।
कुमार आशीष जी की कविता भी प्रभावी है। यह पंक्तियाँ बहुत प्रभावी हैं-
आह किसकी थी जिसको कि हम
कर गये भीड़ में अनसुनी
जब दरख्तों से छनती हुई
धूप में दर्द को बांच कर
तुम चुके, इक परिन्दा उड़ा
जाने किस बात को सोच कर
बदलते परिवेश पर अपनी संवेदना व्यक्त करते हुए रचना सागर ने एक अच्छी कविता लिखने की कोशिश की है। लेकिन अंत को बनावटी बनाने से बचा जा सकता था।
कुछ लोगों ने संवेदना की शब्दकोशीय अर्थों से अलग व्याख्या की है, उसमें से एक रंजना भी हैं। संवेदना को भी सुंदर बनाने के लिए धन्यवाद।
शेष फ़िर कभी-
काव्य प्रतियोगिता में शामिल होने वाले कवियों की संख्याओं ने निश्चय ही इस प्रतियोगिता के महत्व को बढा दिया है। एक विषय पर इतनी कविताएं एक साथ पढना और साथ में सुन्दर पेन्टिंग का भी होना मन को खुश करता है। सभी रचनाकारों और आर्टिस्ट महोदय को बहुत बहुत बधाई।
निखिल जी क्या संवेदना है.कुलवंत जी श्रीकांत जी आप सभी ने भी कहर बरपाने में कोई कमी नहीं छोड़ी.
आनंदित भाव से
आलोक सिंह "साहिल"
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