बदल गयी है सभी प्रथाएं
बदली बदली सी सभी निगाहें
उगने लगी है अब अन्याय की खेती
मुट्ठी में बस रह गयी है रेती
पर यह जीवन तब भी चलेगा
लिखा वक़्त का कैसा टलेगा
खो गये सब गीत बारहमासी
ख़्यालों में रह गये अब पुनू -ससी
अर्थ खो रही हैं सब बातें
सरगम के स्वर अब ना रिझाते
पर यह जीवन कैसे रुकेगा
लिखा वक़्त का हो के रहेगा
लोकतंत्र बीमार यहाँ है
जनमानस सहमा खड़ा है
मूक चेतना ठिठुर गयी है
चिरपरिचित भी अनजान मिलेगा
पर यह जीवन यूँ ही चलेगा
हर रंग में ढल के बहेगा
हरी धरती अब बंजर हुई है
अधरों की प्यास सहरा हुई है
सूखी शाखों पर फूल कैसे खिलेगा
यह पतझर अब कैसे वसंत बनेगा
पर यह जीवन यूँ ही चलेगा
लिखा वक़्त का कैसे टलेगा
माया के मोह में बँधा है जीवन
हर श्वास हुई यहाँ बंजारिन
जीना यहाँ बना है एक भ्रम
आँखों का सूख गया ग़ीलापन
पर भावों का गीत यह दिल फिर भी बुनेगा
यह जीवन यूँ ही चला है ,चलता रहेगा
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
माया के मोह में बँधा है जीवन
हर श्वास हुई यहाँ बंजारिन
जीना यहाँ बना है एक भ्रम
आँखो का सूख गया ग़ीलापन
पर भावों का गीत यह दिल फिर भी बुनेगा
यह जीवन यूँ ही चला है ,चलता रहेगा
bahut khoobsoorat
Anil
रंजना जी,
"लोकतंत्र बीमार यहाँ है
जनमानस सहमा खड़ा है
मूक चेतना ठिठुर गयी है
चिरपरिचित भी अनजान मिलेगा"
"हरी धरती अब बंजर हुई है
अधरो की प्यास सहरा हुई है
सूखी शाखो पर फूल कैसे खिलेगा
यह पतझर अब कैसे वसंत बनेगा"
इस कविता में आपकी सोच का बिलकुल ही दूसरा पहलू देखने को मिला। मुझे इस कविता ने बहुत प्रभावित किया। बहुत बधाई आपको।
*** राजीव रंजन प्रसाद
लोकतंत्र बीमार यहाँ है
जनमानस सहमा खड़ा है
मूक चेतना ठिठुर गयी है
चिरपरिचित भी अनजान मिलेगा
रंजना जी कटु सत्य कहा । बहुत अच्छा लिखा है ।
रञ्जू जी, रचना के भाव गहरे हैं।
लेकिन कहीं-२ बहाव की कमी अखरती है।
राजीव जी सही कह रहे हैं हमे इस कविता से आपकी सोच का दूसरा पहलू भी पता चला और ख़ूबसूरत भी लगा |भाव अच्छे हैं और आपने इन्हे संप्रेशित करने का भरसक प्रयास भी किया और काफ़ी हद तक सफल भी हुई |
बस कही कुछ कमी रह गयी प्रवाह के कारण अगर वो भी और अच्छा होता तो कविता लाजवाब हो जाती |
वैसे इस कविता को एक ख़ास तरह से पढ़ा जाए तो प्रवाह की कमी महसूस नही होगी ऐसा मुझे लगता है |
बहरहाल आपकी कविता बहुत ही अच्छी बन पड़ी है |
रंजना जी!
इस कविता में एक बार फिर भावों की सघनता आकर्षित करती है, यद्यपि इस बार आपका प्रिय विषय ’प्रेम’ इसमें नहीं है. हाँ शिल्प की दृष्टि से कुछ और कसाव अपेक्षित था.
आपके चिरपरिचित लीक से हटकर यह रचना जो बात कहना चाह रही है, उसकी महत्ता पर कोई संदेह नहीं मगर शिल्प पर थोड़ा सा ध्यान देती या इसे दो-चार बार गुनगुनाती तो प्रवाह में स्थित कमियाँ भी दूर हो सकती थी, रचनाकार का प्रयास यही होना चाहिये कि वो अपनी तरफ़ से पूरी ईमानदारी से रचना को हर एंगल से एक खूबसूरत स्वरूप दे सके मगर उसके बाद भी पाठकों की प्रतिक्रियाओं से सुधार की गुंजाईश लगे तो सुधार करने से नहीं हिचकना चाहिये।
सस्नेह,
गिरिराज जोशी "कविराज"
Hallooooooooo Ranjana Ji
Mujhe aapki kavita bahut acchi lagi,
रंजना जी
एक अच्छी रचना के लिए बधाई । आप सही कह रही हैं जीवन बहुत कुछ बदल गया है ।
दया, प्रेम, सहानुभूति , करूणा ,अपनापन कहीं नहीं है । यह वर्तमान आधुनिकता का प्रसाद है ।
हमने वैग्यानिक उन्नत्ति अवश्य की है किन्तु अपनी पहचान खो दी है । इसी लिए कवि दिनकर
ने कहा था - संसार सारा आदमी की चाल देख हुआ चकित
पर झाँक कर देखो दृगों में हैं सभी प्यासे थकित
जब तक बँधी है चेतना, जब तक हृदय दुःख से सना
तब तक ना मानूँगा कभी इस राह को भी मैं सही ।
एक सच्ची अभिव्यक्ति के लिए बधाई ।
अति सशक्त भावपूर्ण काव्य है। थोड़ा कुछ और सुधार किया जाए तो किसी फिल्म के लिए 'करुण' रस के दृश्य के गीत के रूप में अच्छी धुन-संगीत के साथ संयोजन के योग्य हो सकता है।
hi,ranjana jimujhko to aapki kavita bahut pasand aayi.aapke vicharoon meinspashtata hai,maanviyata hai,nikhaar haiaur aapke anubhavon ka kshetra zyada vishal hai aap likhti rahein yahi hamari kaamna hai
shivani....
yeh jeevan yuhee chalaa hai chaltaa rahegaa....
Very well said.Keep it up.Likhte rahiye.
वाह!! बढ़िया रचना।
रंजना जी अक्सर कमेंट्स में पाता था कि आप पर तो सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रेम विषय चुनने का आरोप लगता रहा, पर इन कमेंट्स के जवाब में आपके जवाब कभी दिखे नही थे मुझे। आज पहले आपकी कहानी और फ़िर अब यह कविता पढ़कर मुझे समय में आया कि आपने अपनी रचनाओं के माध्यम से ही अपने प्रेमालोचकों को जवाब देकर उनका मुंह बंद करने का ठान लिया था।
गुड है जी!
जारी रखें!!!
शुभकामनाएं।
पर भावों का गीत यह दिल फिर भी बुनेगा
यह जीवन यूँ ही चला है ,चलता रहेगा
bahut achhe....
sach kahoon to aapkee soch kaa ek nayaa roop padkar bahut prasannataa huee....
bahut achhe bhaav....
nirantar sudhaar kee taraf badtee aapkee kavita...achha lag rahaa hai...
ranju ji
badhaaee
aabhaar
s-sneh
gita pandit
bahut achha mam......rly mein
aap itni achhi ho....aur achhi likhti bhi ho.....
sahi main....
Excellent work.
I liked it and I am inspired.
लोकतंत्र बीमार यहाँ है
जनमानस सहमा खड़ा है
मूक चेतना ठिठुर गयी है
चिरपरिचित भी अनजान मिलेगा"
"हरी धरती अब बंजर हुई है
अधरो की प्यास सहरा हुई है
सूखी शाखो पर फूल कैसे खिलेगा
यह पतझर अब कैसे वसंत बनेगा
रंजू जी...बहुत खूब...
बे-मिसाल क्रति के लिये बधाई..
मुझे आप की कविता ने प्रभावित किया..
बस कहीं कहीं पर मुझे लगा कि कविता खुद से भटक गयी है..
कविता के सौंदर्य पर अगर थोडा सा विचार और कर लिया जाये तो मजा आ जाये..
लेकिन कोई दो राय नहीं कि एक बहुत अच्छी और गहरी कविता पढने को मिली है
आभार
रंजना जी,
सुन्दर प्रयोग!सचमुच आपकी लेखनी का कायल होना पड़ेगा।
माया के मोह में बँधा है जीवन
हर श्वास हुई यहाँ बंजारिन
जीना यहाँ बना है एक भ्रम
आँखों का सूख गया ग़ीलापन
पर भावों का गीत यह दिल फिर भी बुनेगा
यह जीवन यूँ ही चला है ,चलता रहेगा
ये पंक्तियाँ सीधे हृदय में उतर गईं।
अपनी रचनाओं में विविधता लाने के प्रयास सराहनीय है। जबकि आपका शब्दकोश इतना बड़ा हैं (क्योंकि आप की अलग-अलग रचनाओं में बहुतेरे शब्द झलकते हैं), फ़िर भी प्रवाह के लिए आपकी कविताओं से सटीक शब्दों की लुप्तता निराश करती है। कृपया आत्मसमालोचना करें।
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