नफरत से दुश्मनी कभी भी कम नहीं होती।
आज़माई हुई बात ये बेदम नहीं होती।।
रुतबा है हरसू बम-ओ-मिसाइल का यकीनन,
फूलों की अहमियत तो इससे कम नहीं होती।
संजीदगी से लाख पेश आइये हुज़ूर,
मुस्कान की कशिश कभी बेदम नहीं होती।
इंसान की फितरत भी यारों लाजवाब है
कि इसकी ख्वाहिशें कभी भी कम नहीं होतीं।
आँखें भी खेल बैठती हैं कुछ अजीब खेल,
भर आती हैं खुशी में ग़म में नम नहीं होतीं।
कितनी अजीब बात है इस ज़िन्दगी के साथ,
होते हुए भी अपनी, ये हमदम नहीं होती।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
16 कविताप्रेमियों का कहना है :
"इंसान की फितरत भी यारों लाजवाब है
कि इसकी ख्वाहिशें कभी भी कम नहीं होतीं।"
"कितनी अजीब बात है इस ज़िन्दगी के साथ,
होते हुए भी अपनी, ये हमदम नहीं होती। "
क्या खूब कहा है !
गहरी गज़ल है पंकज जी। इस विधा में आप बहुत कमाल लिखते हैं। ये शेर खास कर पसंद आये:
रुतबा है हरसू बम-ओ-मिसाइल का यकीनन,
फूलों की अहमियत तो इससे कम नहीं होती।
आँखें भी खेल बैठती हैं कुछ अजीब खेल,
भर आती हैं खुशी में ग़म में नम नहीं होतीं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
पंकज
अच्छी गज़ल है । जीवन का सही दर्शन दिया है आपने ।
आप सच कहते हैं । खुशी में आँखें बहुत जल्दी भर आती है ।
एक प्यारी सी गज़ल के लिइ बधाई ।
इंसान की फितरत भी यारों लाजवाब है
कि इसकी ख्वाहिशें कभी भी कम नहीं होतीं।
बहुत ख़ूब शेर हैं पंकज ज़ी बधाई
गज़ल बा-कमाल है। आपने बहुत अच्छे शब्द चुने हैं जिससे कोमलता जो कि गज़ल की फितरत है उसमें कमीं नहीं आती। हर शेर उम्दा है।
पंकज जी, हर एक शेर लाजवाब है..
आँखें भी खेल बैठती हैं कुछ अजीब खेल,
भर आती हैं खुशी में ग़म में नम नहीं होतीं।
इंसान की फितरत भी यारों लाजवाब है
कि इसकी ख्वाहिशें कभी भी कम नहीं होतीं।
बहुत बढ़िया शेर हैं सभी...
पर मुझे "फूलों की अहमियत" शीर्षक इस गज़ल से मेल खाता नहीं लगता..ये तो केवल एक ही शेर में आया है..मैं गज़लों के बारे में नहीं जानता, आप से अनुरोध है कि मेरी शंका दूर करें। क्या केवल एक शेर में होने भर से शीर्षक बना दिया जाता है? या मैं गज़ल को समझने में कहीं भूल कर रहा हूँ।
धन्यवाद,
तपन शर्मा
पंकज जी,
अच्छी गज़ल बन पड़ी है, बधाई।
इंसान की फितरत भी यारों लाजवाब है
कि इसकी ख्वाहिशें कभी भी कम नहीं होतीं।
बिल्कुल सच कहा आपने। पूरी गज़ल में भाव का अच्छा प्रवाह।
liked .. nice attempt
पंकज जी! अच्छी गज़ल के लिये बधाई स्वीकारें. सभी शेर बहुत खूबसूरत हैं.
तपन जी, आप की शंका उचित ही है।
दरअसल, आमतौर पर किसी शेर के एक
हिस्से को ही शीर्षक के तौर पर रखने की परम्परा रही है।
यह कोई नियम नहीं है।
चूँकि कई बार लोग शीर्षक को ही देखकर रचना को पढ़ते हैं,
इसलिये शीर्षक ऐसा चुना जाता है, जोकि आकर्षक हो और लोगों का ध्यान खींच सके।
इंसान की फितरत भी यारों लाजवाब है
कि इसकी ख्वाहिशें कभी भी कम नहीं होतीं।
बहुत खूब लिखा है । पसन्द आयी ।
अच्छी ग़ज़ल है पंकज़ज़ी |पाठकों को आपसे ऐसी ही ग़ज़ल की उम्मीद रहती है सारे शेर कमाल हैं |
ग़ज़ल गहरी भी है और असलियत से भरी हुई भी |
ख़ूबसूरत रचना के लिए बधाई |
वाह!
ग़ज़ल विधा पर आपकी अच्छी पकड़ है, प्रत्येक शे'र लाजवाब है।
रुतबा है हरसू बम-ओ-मिसाइल का यकीनन,
फूलों की अहमियत तो इससे कम नहीं होती।
बधाई!!!
धन्यवाद पंकज जी,
अब शेर और शीर्षक, दोनों समझ आ रहे हैं..
तपन शर्मा
पंकज जी..
गज़ल बहुत अच्छी बनी है..
हर तरह से प्रभावशाली है..
प्रसंशनीय है..
बहुत बढिया..
आभार
तपन जी,
ग़ज़ल विधा में इस तरह का चलन है कि किसी भी एक शे'र के भाव से उसका शीर्षक दे दिया जाता है (इन सबसे बचने के लिए ही शायद जानिसार अख़्तर, निदा फ़ाज़ली आदि की ग़ज़लों को शीर्षक नहीं दिये गये हैं)। सामान्तयाः ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र भावों के मामले में एक-दूसरे से भिन्न होता है। इसलिए पंकज जी की इस ग़ज़ल का शीर्षक 'फूलों की अहमियत' अनुचित नहीं है। हाँ, अब यह ग़ज़लकार के ऊपर है कि वो कौन-सा शे'र चुनता है। वैसे मुझे अपना जो शे'र सबसे अधिक वज़नी लगता है, वही चुनता हूँ।
पंकज जी,
इस ग़ज़ल का प्रत्येक शे'र पसंद आया।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)