तेरे हुस्न के सदके में, चाहा था गज़ल लिक्खूँ
होठों को गुलाब कहूँ, पैरों को कँवल लिक्खूँ
सावन की बदली सी, बलखाती तेरी ज़ुल्फें
अल्फ़ाज़ में कैसे इन्हें, बाँधूँ कि सहल लिक्खूँ
आँखों को ज़ाम कहूँ, या दीप इन्हें कह दूँ
या कोई नयी उपमा, पहले ही पहल लिक्खूँ
तेरे रूप से रोशन हैं, दोनों ही ज़हाँ मेरे
तुझे जीता जागता सा, इक ताज़महल लिक्खूँ
दिल प्यार का सागर है, नेकी है तसव्वुर में
तुझको ही मैं चाहूँगा, ता-रोज़-ए-अज़ल लिक्खूँ
शब्दार्थ-
सहल- आसान, सरल
तसव्वुर- विचार, कल्पना
ता-रोज़-ए-अज़ल- कयामत के दिन तक (रोज़-ए-अज़ल इस्लाम धर्म के अनुसार वो दिन है जब परमपिता द्वारा सबके कर्मों का हिसाब होगा यानी कयामत का दिन)
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15 कविताप्रेमियों का कहना है :
अजय जी...गज़ल बहुत प्यारी है..
कहीं कोई कमीं मुझे नज़र नहीं आई...ना कसाव में ना भाव में ना लय में..
हाँ कुछ एक शब्द के अर्थ मैं नही समझ पाया हूँ तो आप से आग्रह है कि आप मुझे उनका अर्थ बता दीजियेगा..
गज़ल को पूरी तरह समझने में मुझे सुविधा होगी..
सुन्दर गज़ल के लिये आप को बधाई...
१.सहल
२.तसव्वुर
बहुत सुंदर ग़ज़ल लगी आपकी अजय ज़ी
अज़ल ??अर्थ
अजय जी विषय परिवर्तन से आपके लेखन का अलग स्वरुप उभर कर सामने आया है ।
अपनी क्षमता का अच्छा प्रदर्शन किया । गजल सुन्दर है और भावाभिव्यक्ति भी ।
गज़ल बहुत उत्कृष्ट है। पहले शेर में गुलाब शब्द बहुत अधिक सौन्दर्यबोध उत्पन्न नहीं करता, यदि संभव हो तो उसका विकल्प ढूढें। शेष चारों शेर आपकी शब्दों पर और भावों पर पकड को दर्शाते हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
बहुत अच्छी गज़ल है। कई बार शायर के मन में चल रही धुन अपने आप जो शब्द ले लेती है उसके अनुसार ही गज़ल में शब्द आते हैं। गुलाब शब्द शायद इसी कारण आपने प्रयोग में लाया है।
अच्छी गज़ल है । काफी भावपूर्ण भी । कुछ नया सा भी लगा । गज़ल विधा ही ऐसी है ।
दिल की कोमल भावनाओं की सुन्दर अभिव्यक्ति के लिए यह अच्छा माध्यम है ।
कहीं-कहीं ये ध्वनि सुनाई पड़ी -
तुझे मैं चाँद कहता था --मगर उसमें भी दाग है ।
तुझे सूरज मैं समझूँगा-- मगर उसमें भी आग है----
एक खुशनुमा गज़ल के लिए बधाई
बहुत ही खूबसूरत ग़ज़ल!!!
सावन की बदली सी, बलखाती तेरी ज़ुल्फें
अल्फ़ाज़ में कैसे इन्हें, बाँधूँ कि सहल लिक्खूँ
आँखों को ज़ाम कहूँ, या दीप इन्हें कह दूँ
या कोई नयी उपमा, पहले ही पहल लिक्खूँ
बधाई अजयजी!
:) अच्छा लिखा है
अजय जी,
सुन्दर भाव हैं। आप हर विषय पर अच्छा लिख लेते हैं। शब्दों का चयन आप्की सामर्थ्य दर्शाता है।
आँखों को ज़ाम कहूँ, या दीप इन्हें कह दूँ
या कोई नयी उपमा, पहले ही पहल लिक्खूँ
ये शेर बहुत पसंद आया। बधाई।
अजय जी, बहुत सुंदर गज़ल है..शायरी के बारे में ज्यादा नहीं जानता हूँ..मुझे सभी शेर पसंद आये..
अब और क्या तारीफ़ करूँ, और क्या लिक्खूँ.. ः-)
धन्यवाद,
तपन शर्मा
मै आपकी शायरी का कायल हो गया............
बेहद उम्दा ग़ज़ल है.........ऽउर किसी एक शेर का ज़िक्र कर बाक़ी शेराँ.....
को ज़लील ना करूँगा..............
बहुत मज़ा आया पढ़ कर,,,,,,,,,,,,,,
बिंब पढ़ कर और आप की उर्दू पैर आपके अधिकार का मै कायल हो गय....सच मे बहुत सुंदर
बहुत ही सधी हुई और सरल ग़ज़ल है। लहता है आपने ठान लिया है कि कविता के हर फ़न का उस्ताद होना है। हमारी शुभकामनाएँ आपके साथ हैं। ग़ज़ल को ही प्रेमिका बना लिजिए और सोचिए
कि तुम्हें कभी गीत लिखूँ या ग़ज़ल लिखूँ।
शुभकामनाएँ।
अजय जी ग़ज़ल खुबसुरत है और मेरी भी आम राय वही है जो राजीव जी की है गुलाब की जगह कोई दुसरा अल्फाज़ शेर को रवानी देगा |
हुस्न को चांद, जवानी को कंवल कहते हैं |
उनकी सुरत नज़र आये तो ग़ज़ल कहते हैं ||
kuch bhi likhiye......magar aise hi kamaal likhiye......:)gudone keep writing
अजय जी
बहुत ही उम्दा गज़ल लिखी आपने, एक-एक शेर सधा हुआ है
उर्दू पर आपकी अच्छी पकड है
"आँखों को ज़ाम कहूँ, या दीप इन्हें कह दूँ
या कोई नयी उपमा, पहले ही पहल लिक्खूँ"
बहुत खूब लिखा जनाब
वाह!!!
सस्नेह
गौरव शुक्ल
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