आजकल फिर
'झबरा' रिरियाने लगा है
फिर कोई आफ़त आयेगी गांव पर
2-3 साल पहले ऐसे ही
आधी आधी रात
'राग धर' के रोता था
नंदू का 'सेरूआ'
कि 'झबुआ' की 'भौजी' मरीं थीं
करंट से
तब से हर साल
दो 'जीव' लेती हैं,'बिजुरिया माई'
'बिजुरिया माई '
माने
'झबुआ की भौजी'
अलबत्त 'टोनहिन' थीं
सबेरे सबेरे सामने पड़
जाते तो 'का' मजाल, काम सफल हो जाये
एक बार रामछरन के सामने पड़ी थी
सारा नंबर 'धरा' रह गया
'इनवरसीटी' मे 'एडमीसन' नहीं हुआ
....रामचरन
गांव मे एक ही लड़का है
जो 'मुबाईल' के सारे बटन 'टीप' सकता है
'सहर' मे 'कंपूटर' देखा है
कहता है
'कंपूटर' के पास सब बात का जवाब होता है
इस साल बाढ़ आयेगी की नहीं
पेट में लड़का है कि लड़की
......सब बात का जवाब
सोचता हूं मैं भी पुछूं
कि 'पिअरूआ' की माई
काहे हमको छोड़ के चली गयी
पर 'कास!'बाबु हमको पढ़ाये होते...
'राम किरिया' 'तोसे' कहता हूं
अपने 'पिअरूआ' को खूब पढ़ाऊंगा
'कंपूटर' दिलवाऊंगा
और कहूंगा पूछ
कि तेरी माई हमको छोड़ के काहे चली गयी।
शब्दार्थ-
झबरा- एक कुत्ते का नाम,
सेरूआ- एक कुत्ते का नाम
झबुआ- एक लड़के का नाम
टोनहिन- अपशकुन, अमंगलकारी
बटन 'टीप' सकता था- ठीक से चला सकता था
पिअरूआ- एक लड़के का नाम
तोसे- तुमसे
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
17 कविताप्रेमियों का कहना है :
मनीष जी नमस्कार...
कविता के मौलिक स्तर तक मैं पहुँच नहीं पा रहा हूँ..
किन्तु जितना समझ पाया हूँ उस आधार पर टिप्प्णी करने का प्रयास कर रहा हूँ..
ग्रामीण भारत का जो चित्र बनाने का प्रयास आप के शब्दों ने किया है वो बहुत हद तक सही है..
जिस बेबसी का आप ने वर्णन किया है उसकी कल्पना सहज ही आप की रचना पढ कर की जा सकती है..
बहुत सुन्दर..
आभार
मनीष ज़ी आपकी इस रचना को पढ़ना बहुत अच्छा लगा
जो बेबसी झलकी है आपकी इस रचना में वो दिल को छू गयी
मेरे गाँव की एक और बात अभी सबके गाँव की बात है :)...शीर्षक बहुत अच्छा लगा
कुछ पंक्तियाँ बहुत ही सरल शब्दों में गहरी बात कह गयी
जैसे
'सहर' मे 'कंपूटर' देखा है
कहता है
'कंपूटर' के पास सब बात का जवाब होता है
इस साल बाढ़ आयेगी की नहीं
पेट में लड़का है कि लड़की...
मनीष जी आंचलिकता और मौलिकता लाजवाब है । सटीक चित्रण किया ग्रामीण
परिवेश और सोच का ।
गाँव और गाव से जुडे हुए शब्दो के इस प्रकार के प्रयोग कविता को प्रभावी बना रहे हैं। मनीष जी आपको बधाई।
'झबरा' रिरियाने लगा है
'राग धर' के रोता था
नंदू का 'सेरूआ'
'झबुआ' की 'भौजी'
'जीव' लेती हैं,'बिजुरिया माई'
अलबत्त 'टोनहिन' थीं
आप ग्रामीण कथ्य के अध्भुत चितेरे हैं। अद्वतीय....
देशज शब्दों का इतना सुन्दर प्रयोग कम ही दृश्टिगोचर होता है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मनीष जी
आप काफी संवेदनशील कवि लगते हैं । अपने आस-पास की दुनिया को
काफी नज़दीक से देखते हैं । यह बहुत ही शुभ लक्षण है । एक कवि केवल
काल्पनिक दुनिया का ही आनन्द नहीं लेता वह यथार्थ को भी जन-जन तक
पहुँचाता है । जन- जन की वेदना सम्प्रेषित करने में आप पूर्ण सफॆ हुए हैं ।
बधाई स्वीकार करें ।
कविता कड़ियों में चली। एक कड़ी दूसरी को जोड़ती गई। ऐसा लगा कि शायद किसी और मंतव्य से शुरु की गई थी और चलते-चलते पिअरुआ की माई तक पहुँच गई।
हाँ, आँचलिक शब्दों का सुन्दर प्रयोग है, लेकिन साथ ही यह पाठक-वर्ग को सीमित भी करता है।
जब कविता अंत पर पहुँचती है
और कहूंगा पूछ
कि तेरी माई हमको छोड़ के काहे चली गयी।
तो अत्यंत भावपूर्ण हो जाती है। लेकिन पूरी कविता में उतने गहरे भाव नहीं हैं।
मनीष जी, कविता अनेक स्थानों पर भटक सी गई है। आपने एक और बात कहकर कई बातें जोड़ दी हैं।
मनीष जी!
क्षेत्रज शब्दों के प्रयोग में आपका कोई सानी नहीं. बहुत ही सुंदर! एकदम गाँव के माहौल में पहुँचा दिया आपने. कथ्य और शिल्प के विषय में गौरव जी की बात भी विचारणीय है, ध्यान दीजियेगा.
मनीषजी,
ग्रामीण परिवेश को काग़ज़ पर उकरने की कला में आप उस्ताद हैं, इससे पूर्व भी आपकी रचना सनीचरी नें ख़ासा प्रभावित किया था। कविता में बोलचाल में काम आने वाले शब्दों का प्रयोग आप कलात्मकता के साथ करते है, इससे एक चित्र भी उभरने लगता है आपकी कविता पढ़ते समय...
बधाई स्वीकार करें!
मनीष जी,
बहुत सुन्दर। कहा जाता है साहित्य समाज का आईना होता है। ग्रामींण परिवेश में आपने इसे पूर्णतः चरितार्थ किया है। ऐसा लगता है जैसे ये कविता तथाकथित विकास की दुहाई देनेवालों पर व्यंग्यपूर्वक हँस रही हो।
बिजुरिया माई '
माने
'झबुआ की भौजी'
अलबत्त 'टोनहिन' थीं
सबेरे सबेरे सामने पड़
जाते तो 'का' मजाल, काम सफल हो जाये
एक बार रामछरन के सामने पड़ी थी
सारा नंबर 'धरा' रह गया
'इनवरसीटी' मे 'एडमीसन' नहीं हुआ
एक तरफ़ इसमे ग्रामीण अंधविश्वास झलकता है तो दुसरी तरफ़(कोइ जरूरी नही)एडमीसन प्रक्रिया पर भी व्यंग्य है।
मज़ा आ गया मनीष जी, सच कहूँ तो बहुत समय पहले मैने रेणु जी का एक उपन्यास पढ़ा था "परती परिकथा "| आपका इस कविता में जो दृश्य उकेरा है बहुत कुछ उससे मिलता जुलता सा है|
आपने इस कविता में जितने भी पात्रों का प्रयोग किया है जैसे झबरा,भौजी ,बिजुरिया माई,रामचरन वो सब उस उपन्यास में वैसे के वैसे या कुछ थोड़े से अलग रूप में दिखाई देते हैं | लाज़वाब है आपकी कविता ... मैने जैसे ही इसे पढ़ा तुरंत उस उपन्यास की याद आ गयी |
वैसे आप देशज शब्दों के प्रयोग में बड़े कुशल हैं | आगे से ऐसे ही जो सीधे दिल से निकले और दिल तक जाए ,कविताओं का इंतज़ार रहेगा ....
मज़ा आ गया मनीष जी, सच कहूँ तो बहुत समय पहले मैने रेणु जी का एक उपन्यास पढ़ा था "परती परिकथा "| आपका इस कविता में जो दृश्य उकेरा है बहुत कुछ उससे मिलता जुलता सा है|
आपने इस कविता में जितने भी पात्रों का प्रयोग किया है जैसे झबरा,भौजी ,बिजुरिया माई,रामचरन वो सब उस उपन्यास में वैसे के वैसे या कुछ थोड़े से अलग रूप में दिखाई देते हैं | लाज़वाब है आपकी कविता ... मैने जैसे ही इसे पढ़ा तुरंत उस उपन्यास की याद आ गयी |
वैसे आप देशज शब्दों के प्रयोग में बड़े कुशल हैं | आगे से ऐसे ही जो सीधे दिल से निकले और दिल तक जाए ,कविताओं का इंतज़ार रहेगा ....
कविता भावो की दृष्टी से उत्तम है......
आप के गाँव का एक चित्र सा खिंच गया.........
ये पंक्तियाँ विशेष पसंद आई.....
'बिजुरिया माई '
माने
'झबुआ की भौजी'
अलबत्त 'टोनहिन' थीं
सबेरे सबेरे सामने पड़
जाते तो 'का' मजाल, काम सफल हो जाये
तथा
''कंपूटर' के पास सब बात का जवाब होता है
इस साल बाढ़ आयेगी की नहीं
पेट में लड़का है कि लड़की"
पंक्तियाँ गाँव के इस लड़के का भोलापन दिखाती है
साधुवाद एवं शुभकामनाएँ
व्यंग्य करने का स्टाइल पसंद आया-
कंपूटर' के पास सब बात का जवाब होता है
इस साल बाढ़ आयेगी की नहीं
पेट में लड़का है कि लड़की
वैसे अंत को जिस नाटकीय ढंग से जोड़ा है, वहाँ पाठक उस प्रकार नहीं जुड़ पता कि अपने आप को पिअरूआ का बाप समझने लगे। सोचिएगा।
regional touch hai is poem me...aacha laga padhkar......gaav ki yaad aa gai
बहुत सुन्दर मनीष जी,
ऐसे गंभीर भावों को आम आदमी की भाषा में उतारना आपको बखूबी आता है
देशज शब्दों के अद्भुत प्रयोग आपकी कविताओं को और भी करीब ले आते हं
कविता के सभी पात्र अपने आस-पास के लगते हैं, सो जी लेता हूँ आपका लेखन
बहुत बहुत आभार
सस्नेह
गौरव शुक्ल
मनीष जी देशज शब्दों का बखूबी प्रयोग किया है आपने। मेरा यह मानना है कि गाँव की बात गाँव की भाषा में हीं कही जानी चाहिए।इस नाते आप सफल हुए हैं। बस सोलंकी जी और शैलेश जी की बात पर ध्यान दीजिएगा। कविता खुद-ब-खुद उबरने लगेगी।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)