चेहरों के पीछे कितने चेहरे हैं
कभी पलट कर गौर से देखो
मेलों की हँसती भीड़ में तुमको
दर्द सजीले मिल जायेंगे
आठ फ़ीट धरती से ऊपर
रस्सी पर चलती मुनिया रोज़
आंख फ़ाड़ कर देखते बच्चे
कुछ सिक्के बरसाते लोग
पेट की खातिर रोज़ का किस्सा
है बस इस मेले का हिस्सा
कभी ग़ौर से देखा है मुनिया को
पैर में छाले, हाथ में गांठें
सूखी रोटी, नहीं पंराठे
है बचपन, पर कहां खेल रही है
परिवार का बोझा ठेल रही है
समय किताबों का हाथों में किन्तु
चन्दू जूतों पर ब्रश फेर रहा है
एक उजले चांद को जैसे
विषाद का बादल घेर रहा है
साथ में ले इक जोड़ी बन्दर
विक्रम डुगडुगी रोज़ बजाता है
जाने भाग्य उसे नचा रहा है
या बन्दर वो नचाता है
और भी ऐसे कितने चेहरे हैं
जो झूठी मुस्कानों से अटे पड़े हैं
वो पकवान परोसते देर रात तक
जिनके पेट पीठ से सटे पड़े हैं
इक भीड़ को जिन्दा रखने की खातिर
जाने खुद से लड़ कर, मरते कितने लोग
फलते-फूलते अमरबेल से सारे शातिर
सूखते जाते जो मेहनत करते हैं लोग
चेहरों के पीछे कितने चेहरे हैं
कभी पलट कर गौर से देखो
मेलों की हँसती भीड़ में तुमको
दर्द सजीले मिल जायेंगे
चारों तरह यही हवा है
इस रोग की कोई दवा है ?
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
मोहिन्दर जी
बहुत ही सुन्दर रचना है । यथार्थ का इतना सुन्दर चित्रण करने के लिए
बधाई । आज हर इन्सान दोहरी ज़िन्दगी जी रहा है । कारण - कहीं उसकी
मज़बूरी और कहीं कमजोरी । कवि का कर्म उनके प्रति सचेत होना एवं समाज
को जागृत करना है । वह आपने बखूबी किया है । आपकी तरह मैं भी समाज से
अपील करूँगी कि इस रोग की कोई दवा ढूँढें । शुभकामनाओं सहित
एक संपूर्ण रचना | आपके मन की पीड़ा पाठक तक पहुँच रही है और यही कविता की सफलता है
मर्म सप्र्शी रचना के लिए धन्यवाद !
और भी ऐसे कितने चेहरे हैं
जो झूठी मुस्कानों से अटे पड़े हैं
वो पकवान परोसते देर रात तक
जिनके पेट पीठ से सटे पड़े हैं
इक भीड़ को जिन्दा रखने की खातिर
जाने खुद से लड़ कर, मरते कितने लोग
फलते-फूलते अमरबेल से सारे शातिर
सूखते जाते जो मेहनत करते हैं लोग
आपकी कविताएं बहुत ही आकर्षक एवं गूढ अर्थ वाली हॊती हैं।
चारों तरह यही हवा है
इस रोग की कोई दवा है ?
दवा खॊजना तॊ मुश्किल है परन्तु जिस तरह से आपने वास्तुस्थिति सामने लाई की है सराहनीय है।
कविता सोचने पर ज़रूर मजबूर करेगी कि किस बिना पर हम दम भरते हैं 10 फ़ीसदी विकास दर का...
दिखलाती है समाज का दर्द,
याद दिलाती है हमारा कर्त्तव्य समाज ले प्रति..सुंदर रचना..
धन्यवाद
चेहरों के पीछे कितने चेहरे हैं
कभी पलट कर गौर से देखो
मेलों की हँसती भीड़ में तुमको
दर्द सजीले मिल जायेंगे....................
यदि कोई वह नजरें पाये
जो चेहरों के पीछे जाकर
छुपे हुए चेहरे पहचाने
तो मन की हर अँगनाई में
सुधियों से सिंचित मौसम में
फूल सुरभि के खिल जायेंगें
दर्द सजीले मिल जायेंगे
अच्छी भावात्मक रचना है.
चेहरों के पीछे कितने चेहरे हैं
कभी पलट कर गौर से देखो
मेलों की हँसती भीड़ में तुमको
दर्द सजीले मिल जायेंगे
मोहिन्दर जी, सामाजिक सरोकारों पर आपकी कलम नें सशक्त दस्तक दी है।
चारों तरह यही हवा है
इस रोग की कोई दवा है ?
आपके इन सवालों के काश जवाब होते।
उत्कृष्ट् रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मोहिन्दर,
अच्छा लिखा है आपने।
मोहिन्दर जी,
मर्मस्पर्शी रचना के लिए बधाई।
चारों तरह यही हवा है
इस रोग की कोई दवा है ?
जी मेरे देखे तो रोग की जड़ तक पहुँचना सबसे बड़ी दवा है क्योन्कि मूल कारणों को जाने बिना हर दवा सिर्फ़ एक छलावा होगी।
चेहरों के पीछे कितने चेहरे हैं
कभी पलट कर गौर से देखो
मेलों की हँसती भीड़ में तुमको
दर्द सजीले मिल जायेंगे
बहुत ही सुन्दर रचना है मोहिन्दर जी.. सुन्दर रचना के लिए बधाई।
बहुत अच्छा लिखा है मोहिन्दर जी । आपकी कविताएँ सदा से पसन्द हैं और ये सारगर्भित भी होती हैं । आपसे मिलना तो हुआ किन्तु नमस्कार से अधिक बात न हो पाई । यदि अवसर मिलता तो इपकि इतनी अच्छी कविताएँ लिखने का रहस्य व प्रेरणा आदि के बारे में पूछती ।
बधाई के साथ ,
घुघूती बासूती
मोहिन्दर जी
कविता में यथार्थ का सटीक चित्रण किया गया है
सोचने पर विवश करती है रचना
"मेलों की हँसती भीड़ में तुमको
दर्द सजीले मिल जायेंगे"
"एक उजले चांद को जैसे
विषाद का बादल घेर रहा है"
"और भी ऐसे कितने चेहरे हैं
जो झूठी मुस्कानों से अटे पड़े हैं
वो पकवान परोसते देर रात तक
जिनके पेट पीठ से सटे पड़े हैं"
सत्य
कविता का अंत भी सम्पूर्ण है
"चारों तरह यही हवा है
इस रोग की कोई दवा है ? "
हार्दिक बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
चेहरों के पीछे कितने चेहरे हैं
कभी पलट कर गौर से देखो
मेलों की हँसती भीड़ में तुमको
दर्द सजीले मिल जायेंगे
चारों तरह यही हवा है
इस रोग की कोई दवा है ?
melon me phirte chote chote bacchon ke dard aur majboori ko khoob darshaya hai.....is kavita ki saadgi hi iski khoobsurati hai
अदभुत......................
कविता मे अदभुत गति है............................
मज़ा आ गया.........
बिंब गंभीर है........................सोचने पर मजबूर कर रहे है शब्द..................
"पैर में छाले, हाथ में गांठें
सूखी रोटी, नहीं पंराठे"
और
"एक उजले चांद को जैसे
विषाद का बादल घेर रहा है"
मानो ब्रश के ज़रिए अपने भविष्य पर ही कालिख पोत रहा हो
यह भी........
चारों तरह यही हवा है
इस रोग की कोई दवा है ?
यह पंक्तियाँ तो अंत मे जैसे रुला ही देती है............
एक अदभुत कवि को अदभठ रचना के लिए बधाइयाँ.......
तथा.........
आगे ऐसी ही रचनाओ के लिए शुभकामनाएँ
बहुत अच्छी कविता है मोहिन्दर जी।
दर्द को आपने बिल्कुल सच्चाई से दिखा दिया है।
समय किताबों का हाथों में किन्तु
चन्दू जूतों पर ब्रश फेर रहा है
एक उजले चांद को जैसे
विषाद का बादल घेर रहा है
जाने भाग्य उसे नचा रहा है
या बन्दर वो नचाता है
इक भीड़ को जिन्दा रखने की खातिर
जाने खुद से लड़ कर, मरते कितने लोग
फलते-फूलते अमरबेल से सारे शातिर
सूखते जाते जो मेहनत करते हैं लोग
चारों तरह यही हवा है
इस रोग की कोई दवा है ?
आप तो हर तरह की कविता में कमाल करते नजर आ रहे हैं। सुन्दर रचना पढ़वाने के लिये फिर से बहुत धन्यवाद।
मोहिन्दर जी!
देर से टिप्पणी करने के लिये माफी चाहूँगा. एक बार फिर भावात्मक दृष्टि से बहुत ही प्रभावपूर्ण रचना. पर शिल्प के स्तर पर कुछ कमी खलती है. आपके स्तर को देखते हुये, आपसे आशायें भी बहुत ज़्यादा रहतीं हैं. आशा है कि अगली बार इससे बेहतर रचना पढ़ने को मिलेगी.
मोहिन्दर जी यथार्थ चित्रण दिल को छू लेता है खासकर ये पंक्तियाँ -
चेहरों के पीछे कितने चेहरे हैं
कभी पलट कर गौर से देखो
मेलों की हँसती भीड़ में तुमको
दर्द सजीले मिल जायेंगे
पिछली बार आपकी रचना में "ननकू" को पढा था हमने। इस बार "मुनिया", "चन्दू" ,"विक्रम" कई सारे जाने पहचाने चेहरे और उनके चेहरों के पीछे का दर्द लेकर आए हैं आप। समाज की विसंगतियों को एक सहृदय व्यक्ति हीं महसूस कर सकता है। आपने इन पात्रों के साथ उनके दर्द को भी जिया है। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
कविता के अंत में तो आपने झकझोर दिया है-
चारों तरह यही हवा है
इस रोग की कोई दवा है ?
काश इसका जवाब हमें मिल सकता।
आपसे और भी उम्मीद बढ गई है।
मोहिन्दर जी
बहुत ही भावपूर्ण चित्रण :-
आठ फ़ीट धरती से ऊपर
रस्सी पर चलती मुनिया रोज़
आंख फ़ाड़ कर देखते बच्चे
कुछ सिक्के बरसाते लोग
पेट की खातिर रोज़ का किस्सा
है बस इस मेले का हिस्सा
कभी ग़ौर से देखा है मुनिया को
पैर में छाले, हाथ में गांठें
सूखी रोटी, नहीं पंराठे
है बचपन, पर कहां खेल रही है
परिवार का बोझा ठेल रही है
कविता का पहला हिस्सा ज्यादा सशक्त लगा और बाँधे रखा । दूसरे हिस्से तक जाते जाते थोड़ी और बाँधने की जरूरत लगी । फिर भी कविता बहुत सार्थक लगी और समाज से जुड़े प्रश्न मन को छू गए ।
- सीमा
इक भीड़ को जिन्दा रखने की खातिर
जाने खुद से लड़ कर, मरते कितने लोग
फलते-फूलते अमरबेल से सारे शातिर
सूखते जाते जो मेहनत करते हैं लोग
bahut hi achchi rachna hai mohindar ji
बहुत गहराई से लिखा है मोहिन्दर जी । आपकी कविताएँ मुझे बेहद पसन्द हैं चूंकि इनकी गंभीरता बहुत कुछ सिखा जाती है।
-रचना सागर
शिल्प के नाम पर इस कविता को नकारा जा सकता है, मगर उद्देश्य के नाम पर नहीं। यह तो मानना पड़ेगा कि मोहिन्दर जी लेखन में सकारात्मक सुधार हुआ है। हो सकता है क्रमवार बेहतर कविताएँ प्रकाशित कर रहे हों। मगर मैं तो इसे पाठकों का प्रेम ही मानूँगा।
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)