बहुत अधिक नहीं
बस कुछ साल पहले तक
छोटी बड़ी अनेक पक्षी
अक्सर ही दिख जाते थे
इधर-उधर टहलते हुये
जाने क्या खाते थे
इनमें से कुछ तो
पास के पेड़ों पर रहते थे
और कुछ
दूर कहीं से आते थे
पर अब ये पक्षी
जाने कहाँ चले गये है
कहीं नज़र ही नहीं आते हैं
शहरों में तो छोड़िये
गाँवों में भी नहीं मिल पाते हैं
शाम के वक्त
सूने उदास पेड़ इन्तज़ार करते हैं
पर पक्षी लौट कर नहीं आते हैं
कोयल की कूक तो क्या
कौवे की कर्कश ध्वनि को भी
कान तरसते हैं
मोर की अनायास ही याद आती है
जब जब बादल गरजते हैं
इंसान आज चाँद पर जा पहुँचा है
पर इनके लिये
क्या हम कुछ नहीं कर सकते हैं
यही हाल रहा
तो कोयल की कूक, पपीहे की रटन
बस याद ही रह जायेगी
और हमारी अगली पीढ़ी तो
इन्हें सिर्फ चित्रों में ही देख पायेगी
पर प्रकृति
क्या चुपचाप सहेगी ये अनर्थ
क्या मानव की ये गलती
उसके आगे नहीं आयेगी
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
अजय जी आपने इतना गंभीर प्रश्न उठाया है कि आपकी सोच की मैं भूरि-भूरि प्रसंशा करता हूँ। सचमुच आज पंछी विलुप्त प्राय हो रहे हैं। मनुष्य तो मल्टीस्टोरी होता जा रहा है और फिर भी गोरैया को एक अदद छज्जा नही मिलता।
*** राजीव रंजन प्रसाद
प्रिय अजय जी,
प्राकृतिक विषय पर लिखने में आप सिद्धहस्त हो गये हैं :-)
पहले वर्षा और अब पक्षी
बहुत सुन्दर कविता है, विषय भी गंभीर है , प्रस्तुति भी अच्छी है
किन्तु थोडा ध्यान दें कि कहीं लेखन में एकरसता न आ जाये
सस्नेह
गौरव शुक्ल
हिन्दयुग्म पर प्रकृति पर बहुत कम रचनायें पढनें को मिलती हैं। बहुत अच्छा लिखा है आपने।
सही कहा अजय जी अब चेतने का समय है ।
अजय जी आपने एक गंभीर विषय की और ध्यान आकर्षित करने का सफल प्रयास किया है जिसमें आप सफल भी हुए |
इस उत्कृष्ट रचना के लिए बधाई !
कोयल की कूक तो क्या
कौवे की कर्कश ध्वनि को भी
कान तरसते हैं
मोर की अनायास ही याद आती है
जब जब बादल गरजते हैं
अजय जी बहुत सही लिखा है आपने। अब आम के बागों और बारिस का कोई औचित्य नहीं रह गया है , जब उन्हें सजाने वाले हीं नहीं रहे।
पर प्रकृति
क्या चुपचाप सहेगी ये अनर्थ
क्या मानव की ये गलती
उसके आगे नहीं आयेगी
जरूर आएगी। आप इसका प्रमाण सूखों और बाढों में देख हीं रहे हैं। सब मानव का हीं कृत्य है, सो सजा भी उसी को हीं मिलेगी।
अजय जी
आपने अत्यन्त संवेदन शील विषय उठाया है । सचमुच
पक्षियों का यूँ लुप्त होना विचारनीय विषय है । आखें खोलने के लिए
बधाई ।
ek serious question kiya hai aapne..jiskaa jawaab shayad ham me se kisi ke paas nahi hai...flow aacha hai presentation bhi...Peacock to apna national bird hai...uske hi darshaan sabse zyada muhaal ho gaye hain...
बहुत सुन्दर कविता है,
कोयल की कूक तो क्या
कौवे की कर्कश ध्वनि को भी
कान तरसते हैं
मोर की अनायास ही याद आती है
जब जब बादल गरजते हैं
अजय जी आप्की कविता अच्छी तो है ही वर्तमान संदर्भ मे प्रसंगिक भी है। सचमुच सोचनेवाली बात है-
कोयल की कूक तो क्या
कौवे की कर्कश ध्वनि को भी
कान तरसते हैं
मोर की अनायास ही याद आती है
जब जब बादल गरजते हैं
इंसान आज चाँद पर जा पहुँचा है
पर इनके लिये
क्या हम कुछ नहीं कर सकते हैं
हो सक्ता है मैं गलत होऊँ मगर मुझे लगता है-
"छोटी बड़ी अनेक पक्षी
अक्सर ही दिख जाते थे" इस पंक्ति में छोटी की जगह छोटे ज्यादा सटीक रहता।
आप की यह रचना ..........कवयातमक काम निबांद्धत्मक अधिक लगी.........
एक विचारोत्तेजक लेख.............
पर एक रचना का मुख्य उद्देश्य जो होता है उसे आपने बख़ूबी पाया है.............
वो है पाठक के दिलो दिमाग़ पर उतरना...........
सच मे सोचने पर मजबूर करती है आपकी कविता .............
शिल्प और भाव थोड़े काम थे नही तो कविता का कॉन्सेप्ट अत्यंत ही उंदार बन पड़ती
शुभकामनाएँ
अजय जी, ये सवाल मेरे दिल में भी बहुत दिनों से था लेकिन मुझे पता नहीं था कि क्या प्रश्न है ये?
आपने जैसे मेरे हृदय की बात को भी स्वर दे दिए।
मुझे पंछी बहुत प्रिय हैं, मेरे लिए यह कविता आलोचना से परे है।
बहुत धन्यवाद।
मुद्दा तो गंभीर है, लेकिन कविता सफल नहीं है। शायद कवि ने इसे तुकांत बनाने की कोशिश की है। मेरा अनुभव रहा है कि तुक न बन पाये तो अतुकांत ही लिखना ज्यादा बढ़िया होता , आंशिक तुकान्त की तुलना में। कविता प्रभाव नहीं छोड़ती, किसी लेख की तरह सवाल उठाती है।
विषय अच्छा है। किन्तु जैसा विषय है वैसा प्रभाव नही है।
कुछ पक्तिंयॉं पढ़ने में अटपटी से लग रही है।
जैसे इस पक्तिं को ही लीजिऐं यहॉं पर जैसे ठहराव दिख रहा है। -----
सूने उदास पेड़ इन्तज़ार करते हैं
पर पक्षी लौट कर नहीं आते हैं
विषय अच्छा है, कविता भी बढि़यॉं है।
साधारण विषय और लीक से हट कर असाधारण रचना
good poem includes unique words.... appriciable creation...keep it up sir.................
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