साप्ताहिक समीक्षा - 5
(13 अगस्त 2007 से 19 अगस्त 2007 तक की कविताओं की समीक्षा)
श्रावण शुक्ला सप्तमी तदनुसार 20 अगस्त, 2007 को गोस्वामी तुलसीदास की 510वीं जयंती मनाई गईं। तुलसी हमारे जातीय कवि हैं। उनसे भारत और भारतीयता की पहचान है। उन्होंने अपने समय में कविता को लोक धारा के साथ जोड़कर शास्त्र और लोक का अद्भुत समन्वय साधकर दिखाया। वे कविता से सुरसरि के समान सर्वहितकारी होने की अपेक्षा रखते थे। उन्होंने भक्ति आंदोलन को लोकमंगल और लोकरक्षण की दिशा प्रदान की क्योंकि वे देख रहे थे कि जन साधारण कैसे-कैसे कष्ट भोग रहा है। यहाँ हम विनयपत्रिका के एक पद "दीनदयालु, दुरित दारिद दुख दुनी दुसह तिहुं ताप तई है' के कुछ अंशों का भावार्थ "हिंदयुग्म' के पाठकों के विचारार्थ उद्घृत कर रहे हैं - ""पाप, दरिद्रता, दु:ख और तीन प्रकार के दु:सह दैविक, दैहिक, भौतिक तापों से दुनिया जली जा रही है। हे भगवान, यह आर्त आपके द्वार पर पुकार रहा है, क्योंकि सभी के सब प्रकार के सुख जाते रहे हैं। x x x ब्राह्मणों की बुद्धि को क्रोध, आसक्ति, मोह, मद और लालची लोभ ने निगल लिया है। x x x राजसमाज करोड़ों कुचालों से भर गया है, वे (मनमाने रूप में लूटमार, अन्याय, अत्याचार, व्यभिचार, अनाचार रूपी) नित्य नई कुचालें चल रहे हैं और हेतुवाद (नास्तिकता) ने राजनीति, विश्वास, प्रेम, धर्म की और कुल की मर्यादा का ढूँढ़-ढूँढ़ कर नाश कर दिया है। x x x न कोई लोकाचार मानता और न शास्त्र की आज्ञा ही सुनता है। प्रजा अवनत होकर पाखंड और पाप में रत हो रही है। सभी अपने अपने रंग में रंग रहे हैं, यथेच्छाचारी हो गए हैं। शांति, सत्य और सुप्रथाएँ घट गईं तथा कुप्रथाएँ बढ़ गई हैं तथा सभी आचरणों पर कपट की कलई हो गई है। भले लोग कष्ट पाते हैं, भलाई शोकग्रस्त है, दुष्ट मौज कर रहे हैं और दुष्टता आनंद मना रही है। x x x कामधेनु रूपी पृथ्वी कलियुग रूपी कसाई के हाथ में पड़ गई है। x x x हे प्रभु! ज्यों ज्यों आप शीलवश इसे ढील दे रहे हैं, क्षमा करते जाते हैं, त्यों ही त्यों यह नीच सिर पर चढ़ता जाता है। जरा क्रोध करके इसे डाँटिए। x x x आपकी बलैया लेता हूँ, देखकर न्याय कीजिए। नहीं तो अब पृथ्वी आनंद-मंगल से शून्य हो जाएगी।'' (विनय पत्रिका, पद सं. 139)। हमारी कलम राम की वह तर्जनी बन सके जिसके उठते ही यह सारी अराजकता भस्म हो जाती है। इसी कामना के साथ हम अपनी समीक्षा-यात्रा पर निकलते हैं। हाँ तो, दोस्तो ! इस बार 17 कविताएँ हमारे सामने हैं । देखें, क्या कहते हैं हमारे आज के कवि!
1. "मुहिम' (अनुराधा श्रीवास्तव) में पुरुष के स्त्रीविरोधी सोच को धिक्कारा गया है। प्रश्नवाचक वाक्यों ने कथन को बलाघात प्रदान करने में सहयोग किया है। दृष्टांतों का उपयोग भी ठीक है।
2. "सठिया गया है देश चलो जश्न मनाएँ' (राजीव रंजन प्रसाद) में अच्छा व्यंग्य है। आजादी की साठवीं वर्षगांठ के संदर्भ में यह शीर्षक सटीक और सचोट बन पड़ा है। नए फ्रेम में गांधी की तस्वीर लगाने में भी व्यंजना निहित है। प्रथम अंश में मुहावरों के प्रयोग ने संप्रेषणीयता में सहायता की है। द्वितीय अंश में "आजाद का मतलब' वाली पंक्तियाँ समांतरित होने के कारण पाठक/श्रोता को कचोटती हैं। अंतर्विरोधों को खूब उभारा गया है। तृतीय अंश में आंतरिक तुकों का प्रयोग भी अच्छा प्रभाव उत्पन्न कर सका है। चतुर्थ अंश में आजादी की सार्थकता पर प्रश्नचिह्न लगाकर शैली की दृष्टि से कविता का अंत विपथन (डिफ्लेक्शन) की तकनीक के साथ किया गया है। "हँसने लगा था पागल' में भीषण आत्मव्यंग्य दिखाई देता है। आज पागलपन ही प्रासंगिक रह गया लगता है। मुक्तिबोध की प्रसिद्ध लंबी कविता "अंधेरे में' के "पागल' की तरह हम सब कब सवाल उठाएँगे!
3. "इसके सिवा क्या है' (मोहिंदर कुमार) में भविष्य की खोज करती नई पीढ़ी की पीड़ा को अभिव्यक्त किया गया है। सुर्ख छाले, कातर निगाहें, नामुराद सवालों और गुमनाम हवालों जैसे नए सहप्रयोग प्रभाव को बढ़ाने में सहयोगी है। सामाजिक आर्थिक स्थितियों को प्रेम विषयक शब्दावली के सहारे प्रकट करना इस ग़ज़ल की ख़ास ताक़त है।
4. "आज़ादी के साठ बरस' (अवनीश गौतम) में असंतोष और आक्रोश को व्यंग्यात्मक अभिव्यक्ति प्राप्त हुई है। विरोधी समानांतरता का सौंदर्य कई स्थलों पर दर्शनीय है - एंटी एज़िंग क्रीम बनाम पुरातन खुशबुएँ, मातम बनाम जश्न, दुर्गंध बनाम कोलोन और डिआंडरेंट। "आजादी एक गरीब दलित स्त्री की योनि है / जिसके बलात्कार पर कोई शर्मसार नहीं होता' पंक्तियाँ खीझ और गुस्से को मूर्तिमान करती हैं। 1960 के बाद के दशक में "अकविता' आंदोलन के दौर में योनि आदि शब्दों के ऐसे प्रयोगों की भरमार थी लेकिन धीरे-धीरे कवियोंने इसके बिना भी आक्रोश की सटीक अभिव्यक्ति सीख ली। यही तेलुगु में दिगंबर कविता और स्त्रीवादी कविता के दौर में भी हुआ। "टैबू' शब्दों के प्रयोग से पाठक की चेतना को ठेस पहुँचाना कभी-कभी कवि को जरूरी लगता है, लेकिन उसके बिना भी ऐसा कर पाना अधिक कलापूर्ण हो सकता है।
5. "सफ़र बाकी है अभी' (सीमा कुमार) में "से' और "तक' की समांतरता अच्छी है। "सोने की चिड़िया की फिर भी/बहुत उड़ान अभी है बाकी'।
6. "मेरे प्यारे तिरंगे' (पंकज) में कवि का राष्ट्रप्रेम प्रकट हुआ है। लयात्मकता ध्यान खींचती है। शब्द चयन उत्साह और उल्लास के अनुरूप है।
7. "निश्चय' (गौरव सोलंकी) में लय और प्रवाह है। आंतरिक तुकें इसमें सहयोगी हैं - बिखर/मर, खो/सो, बोना/सोना/खोना, सोई/रोई। आशा और आश्वासन को हर छंद की अंतिम पंक्तियों में अच्छा बाँधा गया है। थामा, उठाओ, कह दो, पुचकार दो, फेंको, जलाओ, मनाओ, बोलो - जैसी प्रेरणार्थक क्रियाओं के प्रयोग से कविता में ओज और औदात्य का समावेश हो सका है। "खुशी के कुंभ में खोना' प्रयोग आकर्षक है। अंतिम दो अंश कविता को निष्कर्ष की ओर ले जाते हैं। हर अंश् की प्रथम पंक्ति की संरचना में भी समांतरता - बीज जो/आँखें जो/दर्द जो/प्रेम जो/चाँद के जो/आस्था के जो - पर ध्यान जाता है। शैलीय उपकरणों के सही उपयोग से साधारण कथन में भी चमत्कार आ जाता है।
8. "आज़माइश' (रंजना भाटिया) में प्रेम की पीर को उपालंभ की मुद्रा में व्यक्त किया गया है। ज़माने/आज़माने/आजमाइश में शब्दक्रीड़ा खूब जमी है।
9. "मेरे गांव की एक और बात' (मनीष वंदेमातरम) में लोक तत्वों के सहारे भारतीय लोकतंत्र की त्रासदी को सटीक अभिव्यक्ति प्रदान की गई है। बोलीगत शब्दावली से काव्यात्मक कथन में नयापन-सा आ जाता है। आर्थिक विकास के तमाम दावों पर ग्रामीणजन के छोटे-छोटे सवाल आज भी भारी पड़ते हैं।
10. "तेरे हुस्न के सदके में' (अजय यादव) में उर्दू के पारंपरिक उपमानों का अच्छा प्रयोग किया गया है। ग़ज़ल अच्छी है।
11. "है नमन उनको' (डॉ. कुमार विश्वास) प्रभावशाली ओजस्वी गीत है। लोक और इतिहास के एक साथ प्रयोग से यह ओज और भी सघन हो गया है। करुणा और उत्साह का एक साथ प्रयोग भी प्रभाव को बढ़ाने वाला सिद्ध हुआ है। "है नमन उस देहरी जिस पर तुम खेले कन्हैया' को "है नमन उस देहरी को तुम जहाँ खेले कन्हैया' कर लिया जाए तो गतिभंग दूर हो जाएगा। "हमने भेजे हैं' वाले अंश में संभवत: तीसरी पंक्ति के बाद एक पंक्ति छूट गई है - टाइप में। "नचिकेता' का प्रयोग कारगिल के संदर्भ की याद दिलाता है - यही मिथक की शक्ति है। सुंदर गीत के लिए बधाई।
12. "प्रेम का पर्याय जीवन' (आलोक शंकर) में भी मिथकीय संदर्भों का अच्छा प्रयोग दिखाई देता है - शबरी के बेर, हनुमान, संजीवनी, राधा-कृष्ण की रासलीला। दूसरे अंश में लहर के अभिप्राय की व्यंजना काफी सुघड़ हैं। यह लहर स्त्री भी हो सकती है जिसका तीसरे अंश में निर्झर और चंदन जैसे प्रतीकों से भी समर्थन हो जाता है। वैसे भी यदि जीवन प्रेम का पर्याय है तो प्रेम स्त्री का पर्याय। अंतिम अंश में टाइप के दौरान एक पंक्ति गायब हो गई लगती है। ऐसा प्रेम में भी होता है और जीवन में भी !
13. "बुधिया मरने वाली है' (विपुल) आक्रोश, करुणा और व्यंग्य में तपी हुई कविता है। कथात्मकता इसे वाचिकता के गुण से युक्त करती है। कविता का विपथित अंत पाठक को विगलित करने में समर्थ है। स्त्री विमर्श के साथ बच्चों के मानवाधिकार के संदर्भ में भी यह कविता उल्लेखनीय है। बधाई!
14. "आज के जांबाज' (विश्व दीपक "तन्हा') में भी हास्य-व्यंग्य में सानकर भारतीय लोकतंत्र की पीड़ा को प्रस्तुत किया गया है। शब्द चयन सुंदर और व्यंग्य के अनुरूप है। "सत्ता जिनका' नहीं, "जिनकी'। (ऐसी भूलें अन्य कविताओं में भी हैं। शायद यह टंकण दोष है। इसलिए इस पर ध्यान नहीं दिया गया।)
15. "मौसम' (तुषार जोशी) में प्रेम की पीर को दु:ख के मौसम में रूपायित किया गया है। "अज्ञात पंछी का पेड़ की डाली पर चुपके से बैठना', "दु:ख की सौंधी सी खुशबू', "सहमें हुए सपनों की सर्द सिसकियाँ' और "दु:ख के मौसम के मचलने और खिलखिल आने (खिलखिलाने)' के बिंब इस नन्हें से गीत की जान हैं।
16. "एक अधूरा सच' (निखिल आनंद गिरि) में तृतीय लिंग की वेदना को शब्दबद्ध किया गया है। नि:संदेह अनेक बार हिजड़े पौरुष के कवच सिद्ध हुए हैं। बृहन्नला और शिखंडी इसके उदाहरण हैं।
17. "कील' (गिरिराज जोशी) में दीवार और कील का दृष्टांत खूब बन पड़ा है। पहले दो अंशों के क्रम में तीसरा अंश विपथित होने के कारण रचना प्रभावी हो गई है। कब तक हम अपनी थोथ के सहारे कील को अपने भीतर ठुँके और जमे रहने की सुविधा मुहय्या कराते रहेंगे?
और अंतत: ! मंगलवार 21 अगस्त 2007 को भारतीय साहित्य को अपने अमिट हस्ताक्षर देकर प्रख्यात कथा लेखिका कुर्रतुल ऐन हैदर ने अंतिम विदा ले ली। हम उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। आज इतना ही। इति विदा पुनर्मिलनाय।
ऋषभदेव शर्मा 24.08.2007
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16 कविताप्रेमियों का कहना है :
आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी,
रचना पर आपकी विवेचना का बहुत आभार। आपके स्तंभ की प्रतीक्षा रहती है, आपकी समालोचना हमारा गहरा मार्गदर्शन है।
*** राजीव रंजन प्रसाद
आदरणीय ऋषभदेवजी,
आपके स्तंभ की हमें प्रतीक्षा रहती है, बहुत कुछ सीखने को भी मिलता है। हमारा मार्गदर्शन करते रहने के लिये हार्दिक आभार!!!
- गिरिराज जोशी
ऋषभदेव शर्मा जी,
सादर निवेदन करना चाहता हू
...पहली बात तो यह हमरी कलम राम की तर्जनी कभी नही बननी चाहिए. उसकी तो कतई नही जो देश इस देश का लोक और उसके साहित्य का भला चाहता.. रही बात तुलसी दास के दुख की तो वह बेकार की बात है.क्या तुलसी को पता नही था कि वर्नाश्रम की रचना इसी लिये की गई थी.
समीक्षा के लिए आभार
डॉ ऋषभदेव जी!
सार्थक समालोचना के लिये आभार!
कुर्रतुल ऐन हैदर जी को विनम्र श्रद्धांजलि!
ऋषभदेवजी,आपका बहुत आभार ... बहुत कुछ नया सीखने को मिलाता है हर बार आपकी समालोचना पढ़ के
शुक्रिया
डॉ ऋषभदेव जी,
’सुरसरि के समान सर्वहितकारी ’ अच्छा लगा।
बहूमूल्य समीक्षा के लिए धन्य्वाद।
आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी,
आपने अपना क़ीमती वक़्त निकाल के अपनी बेशक़ीमती टिप्पणी दी | बहुत बहुत धन्यवाद ...
आशा है आप आगे भी ऐसे ही उत्साह वर्धन करते रहेंगे |
आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी,
आपका बहुत बहुत धन्यवाद आपके द्वारा अपनी रचना के लिए बधाई शब्द सुनना बड़ा ही अच्छा अनुभव रहा |
आपकी समीक्षा हमारे लिए अत्यंत ही उपयोगी है जो हमे अपनी ही रचना के कुछ ऐसे पहलुओं की तरफ़ ध्यान दिलाती है|जिनकी तरफ़ हमारा ध्यान नही जाता ..आपका बहुत बहुत आभार|
1.rajiv ji, dhanyawad. 2.giriraj ji,prashansa karke sameekshak ko sir mat chadha leejiyega. 3.avinash ji,ram aur tulsi se apki narazgi jaayaj ho sakati hai.asahamati ke liye sahitya men sada gunjaish rahni chahiye.ram aur tulsi se kai jagah asahmat hua ja sakta hai -apne apne karanon se.grahan aur tyag ka vivek kalamkar ke liye behad zaroori hai.kam se kam kavita men to loktantra ko bacha rahne diya jaye--desh men to rahne nahin dia rajneeti ne. 4.ajai ji,aabhar. 5.ranjoo ji,sameeksha se adhik hamaara atmaalochan hamen sikhata hai.sameeksha yadi khand- drishti se kee jaye to anarth bhi kar sakti hai. apki vinamrata shlaghneeya hai .anyatha- nij kabitta kehi laag na neeka/ saras hoi athwa ati feeka.(tulsi). 6.ravikant ji,dhanyawad ke liye dhanyawad. 7.manish ji. sach baat bataoon?mujhe is kavya-charcha men sukoon milta hai. 8.vipul ji.meri kisi bhi baat se apka utsah badhe to yeh mere liye santosh ka vishaya hai. >> rishabha deo sharma.
avinish gautam aur rds ki tippani padhne ko mile'. pata nahi avinishji ko tarjani per gussa kyon aaya hai. unka vichar hai ki iss desh ko iski zaroorath nahi aur yahi manasikta ne hamare desh ko itni sadiyon tak gulam banaye rakha. aaj to ram ki aur adhik zaroorat hai jo haath mein dhanush liye apni tarjani bata raha ho. haan, agar avanishji oon logon mein hai jo rajendra yadav ji ki tarah tulsi ko padhne ki zaroorath mahsoon nahi karte to unhe krupaya dr. aalok pande ji ke lekh per dhyan dilana chata hoon. jaisa ki sharma ji ne kaha hai sahitya mein kam se kam asahmati ki gunjayish rahe lekin iss mein bhi vivek ka saath na chodhen. vivek chootha to samjho ki aap manav ki peedha ko nahi samajhe. aur jo manav ki peedha ko nahi samjha woh 5 varsh ke baalak ke samgharsh ko kya samjhega! usae tulsi ka dukh to bekar hi lagega kyon ki tulsi ne to Ram ke madhyam se rastra charitra ke nirman ka karya kiya hai. Haan, avinish jaise log shayad is baat ko samjhne ke liye kuch aur vivek haasil karna padhega. tab tak hamari tarjani untak uthti rahegi;;;;
punashcha:
maine dr. aalok pandye ji ke jis lekh ka ullekh kiya hai woh haai TULASI KO PADHNE KI ZAROORAT jo ramayan sandarshan ke vishank mein prakashit hai jise web per 360.yahoo.com/ramayanasandarshan per dekha jaa sakta hai.
kavitaon ko chhodkar ram par jhagdaa!!! ha ha ha!! Haan ram se asahmati ki gunjayish to kafi hain aur waise bhi bhavishya main ram jaise unidimensional vyakti ki nahi balki krishna jaise purn vykatitva ki aavashyakta hamare desh ko hai. kafi samabhav hai ki ye ram bhakt krishna ko pura dekhne se hi darte hon. Gandhiji ki tarah unse bachna chahte hon, ya phir surdas ki tarah uke bachpan se hee bandhe hon,...
Baat to sahi hai. Par jo bechaare Ram ki 12 kalaon ko hee jhel nahi paate, ve Krishn ki 16 kalaon ko kya jhelenge. Par kavitaon se hatkar agar charcha Ram par jaati hai to isme galat kya hai.aur agar galat hai to phir Ram ki charcha ko Krishn tak kheenchna kaise theek hai. Ram aur Krishn kavita ki charcha se baahar kahan hai. Kavita ki duniya kya itni sankirna hai?Vaichaarik khulapan ho,paraspar shatruta ka bhaav na ho,jidd aur hathvaad na ho,dusre ko paraasth karne ka junoon na ho to charcha achchhe maahol mein ho sakti hai.Par har doosre ko galat maankar thahaaka lagane ke bajaye hum khud par thahaaka lagayen to kaisa rahe!hahaha..!
Gyan bojh ban jaye to uss se palla jhaad lena hee uttam hai.
-Ek aur Anonymous
अभी २ दिन पहले मुझे मेरे एक मित्र 'शिशिर मित्तल' जी का संदेश प्राप्त हुआ, जिसमें उन्होंने हिन्द-युग्म की रचनाओं के स्तर में उछाल दिखाई देने पर पूरी टीम को बधाई थी। मेरा मानना है कि इसका अधिकांश श्रेय आपकी इस ईमानदार समीक्षा को जाता है। आने वाले समय में हम आपकी मदद से और आगे जायेंगे, ऐसी उम्मीद है।
प्रिय भाई भारतवासी जी
आपकी, रचनाकारों तथा सुधी पाठकों की सदाशयता के लिए आभारी हूँ।
-ऋदेश
..इस पर कल टिप्पणी दूगा... तब तक जय सिया राम!!
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