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Tuesday, July 31, 2007

मिथ्याबोध



गगन छूने की मंशा में
तने पर्वत-शिखर पर कहीं
एक चुलबुली सूर्य-किरण
सफ़ेद बर्फ़ को टटोलती
धीमे से कान में कुछ बोलती
जाने क्या बात थी बर्फ़
भीतर ही भीतर पिघल
इक धार सी बनकर बहने लगी
ढलानों पर इक सरसराहट हुई
जड़ चेतन हुआ, राह बनने लगी
धारा झरना बनी और झरने लगी

शांत सोईं घाटियां सुगमुगाने लगी
टकरा पत्थरों से जल शोर करने लगा
धारा से धारा मिली रूप हुआ कुछ बड़ा
तलहटी तक पहुँचते बन गयी इक नदी
घौर गर्जन समेटे और उफ़नती हुई
बल खाती हुई, लहराती हुई
जो सामने आ गया, साथ बहाती हुई
जहां कोई वाधा मिली, झील सी हो गई
फ़िर सिर से गुजर, सब बहा ले गयी

अब तो किनारे भी उससे डरने लगे
जो फ़ंलाग जाते थे उछालों से उसको कभी
अब दूर जा कर पुलों पर से गुजरने लगे
फ़िर और कुछ नदियों से संगम हुआ
आ गया उफ़ान मैदानों तक बहता हुआ
नदी अब एक महानदी हो गई
पाट चौड़े हुए मगर गति मध्यम हुई

शुद्ध शीतल धारा का रूप अब न रहा
रसायनो की झाग स्तह पर थी तैरती
किनारे दल दल बने, इक बू सी फ़ैलती
शहरी गंदगी के परनाले और मिल गये
उजला जल भी सियाह सा लगने लगा

हर पल आगे बढ़ती हुई वो थी सोचती
छोड़ पर्वत शिखर वो यहां क्यों आ गई
इस गति से तो थी वो जड़ ही भली
क्यों सूर्य-किरण की सलाह उसे भा गई
बस एक बहने के उन्माद से मात खा गई

था अन्तिम चरण सागर से मिलन की घड़ी
कई धाराओं में इक महानदी बंट गयी
न पहले सा वेग, न कोई भयावह गर्जना
न अपनी विराटता का कोई ओज था
समक्ष सागर के थी वो मात्र इक धार सी
कुछ देर में बनेगी भूतकाल का एक अंश
यही अस्तित्व विहीनता दे रही थी एक दंश
वो स्वतंत्रता व विशालता का बोध
आज शून्य सा था उसे लग रहा

इस पड़ाव पर विलय के वो थी सोचती
वो बहाव उसका नहीं..... ढलानों का था
वो शोर उसका नहीं.... चोट खाई चट्टानों का था
वो तो जड़ थी.. जो वेग था
वो था..सूर्य-किरण का दिया
विशालता उसकी न अपने कारण से थी
कई धाराओं ने स्वंय को, उसमें था खो दिया
जो शिथिलता उसे अन्त में थी आ कर मिली
वो सब उसकी बहायी हुई रेत और मिट्टी से थी
दोषी कोई नहीं, स्वंय के मिथ्याबोध थे
सागर में मिलना उसकी नियति ही थी

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19 कविताप्रेमियों का कहना है :

Alok Shankar का कहना है कि -

इस पड़ाव पर विलय के वो थी सोचती
वो बहाव उसका नहीं..... ढलानों का था
वो शोर उसका नहीं.... चोट खाई चट्टानों का था
वो तो जड़ थी.. जो वेग था
वो था..सूर्य-किरण का दिया

बहुत गहरा अर्थ और बड़ा ही अनोखा प्रश्न । एक परिपक्व रचना ।

राजीव रंजन प्रसाद का कहना है कि -

मोहिन्दर जी,

हमारी टेलीपेथी एसी है कि आपतौर पर हम दोनों की पोस्ट के भाव-विषय किसी न किसी तौर पर मिल ही जाते हैं।

आपकी रचना में अनुभव की परिपक्वता है जो मार्गदर्शक है। शैली भी प्रसंशनीय है। कहानी की तरह कविता बहती है...

कुछ देर में बनेगी भूतकाल का एक अंश
यही अस्तित्व विहीनता दे रही थी एक दंश
वो स्वतंत्रता व विशालता का बोध
आज शून्य सा था उसे लग रहा

विशालता उसकी न अपने कारण से थी
कई धाराओं ने स्वंय को, उसमें था खो दिया
जो शिथिलता उसे अन्त में थी आ कर मिली
वो सब उसकी बहायी हुई रेत और मिट्टी से थी
दोषी कोई नहीं, स्वंय के मिथ्याबोध थे
सागर में मिलना उसकी नियति ही थी

बधाई आपको।

*** राजीव रंजन प्रसाद

SahityaShilpi का कहना है कि -

मोहिन्दर जी!
आपकी कविता पर टिप्पणी करते हुये मैं अक्सर सोच में पड़ जाता हूँ कि किसकी तारीफ पहले करूं, आपकी सोच की या आपके काव्य-शिल्प की. और इस बार भी वही मसला दरपेश है.
भाव और शिल्प दोनॊं दृष्टियों से रचना बहुत सुंदर है. एक नदी के माध्यम से आपने बहुत ही गंभीर जीवन-दर्शन को व्यक्त कर दिया है. लगभग सदैव हम अपना सारा जीवन ऐसे ही मिथ्याबोधों के सहारे जीते रहते हैं और जब हमें इस बात का अहसास हो जाता है तो फिर कुछ और जानना शेष नहीं रह जाता.
इतनी सुंदर और गहरी कविता पढ़ाने के लिये आपका आभार!

आशीष "अंशुमाली" का कहना है कि -

बहुत सुन्‍दर..मोहिन्‍दर जी..
सागर में मिलना उसकी नियति ही थी.. निष्‍कर्ष सटीक है।

रंजू भाटिया का कहना है कि -

हर पल आगे बढ़ती हुई वो थी सोचती
छोड़ पर्वत शिखर वो यहां क्यों आ गई
इस गति से तो थी वो जड़ ही भली
क्यों सूर्य-किरण की सलाह उसे भा गई
बस एक बहने के उन्माद से मात खा गई....

बहुत सुंदर रचना.....बधाई

परमजीत सिहँ बाली का कहना है कि -

बहुत बढिया रचना है।बधाई।

Anupama का कहना है कि -

Sundar likha hai....kalpana uttam ki gai hai likhte waqt....laga jharne ke paas khadi hu :)Congratulations

Anonymous का कहना है कि -

मोहिन्द्र जी,
As I don't know Hindi typing it's difficult for me to write comments in Hindi. But your poem has a very deep meaning. Though, we all know the truth & process of continuous change of nature/ human being but we all are helpless in changing the 'Niyati' whether we have 'Bodh/Mithyabodh'. Please Keep it up.

Gaurav Shukla का कहना है कि -

सहमति है मेरी राजीव जी से
अनुभव की लेखनी फिर चली है,और बहुत ही प्रेरणास्पद और परिपक्व रचना का जन्म हुआ है
बहुत ही सुन्दर, शिल्प, भाव, अभिव्यक्ति सभी कुछ उत्कृष्ट

हार्दिक आभार

गौरव शुक्ल

anuradha srivastav का कहना है कि -

"कुछ देर में बनेगी भूतकाल का एक अंश
यही अस्तित्व विहीनता दे रही थी एक दंश
वो स्वतंत्रता व विशालता का बोध
आज शून्य सा था उसे लग रहा"
ये शून्यता सोचने पर मजबूर करती है ।

Anonymous का कहना है कि -

मोहिन्दर जी,
भाव काफ़ी परिपक्व है....
कुछ शब्दो मे आपने अदभुत सरिता बहा डाली.........
इन पंक्तियो का भावार्थ अंत्यंत गहरा है
इस पड़ाव पर विलय के वो थी सोचती
वो बहाव उसका नहीं..... ढलानों का था
वो शोर उसका नहीं.... चोट खाई चट्टानों का था
वो तो जड़ थी.. जो वेग था
वो था..सूर्य-किरण का दिया
परंतु एक बात कहना चाहूँगा कि कविता मे गति काम थी....
यद्यपि मुझे ये छ्होटा मुह और बड़ी बात नही करनी चाहिए पर जो बात मान मे आई सो कह डाली
शुभकामनाएँ

Dr. Seema Kumar का कहना है कि -

"इस पड़ाव पर विलय के वो थी सोचती
वो बहाव उसका नहीं..... ढलानों का था
वो शोर उसका नहीं.... चोट खाई चट्टानों का था
वो तो जड़ थी.. जो वेग था
वो था.."

सरल शब्दों में ज़िन्दगी की कितनी बड़ी सीख ! बहुत अचछी लगी कविता ।

पता नहीं क्यों मेरी पिछकी टिप्पणी जो पहले की थी नज़र नहीं आ रही ।

गीता पंडित का कहना है कि -

aapke anubhav ko
darshaatee huee..

bahut sundar rachnaa..

gahanatam bhaav...

bahut achhee lagee

badhaaee

s-snah
gita p.

शोभा का कहना है कि -

मोहिन्दर जी
आपकी रचना बहुत ही सुन्दर लगी ।
नदी और नारी दोनो की यही कथा है ।
आपने दोनो की संवेदना को बहुत सूक्षमता से देखा
और कविता में उतारा है । बधाई

विश्व दीपक का कहना है कि -

"नई कविता" एक ऎसी विधा है , जिसमें शिल्प के कोई नियम कानून नहीं लगते, परंतु भावों की सबलता नितांत जरूरी होती है। मुझे आपकी इस कविता में वही खूबी नज़र आई । आपकी पिछली रचना में कुछ शिल्प की कमियाँ रेखांकित की थी मैंने, क्योंकि मुझे लगा था कि गज़ल बनते-बनते रह गई थी वह। लेकिन इस बार मुझे आपसे कोई शिकायत नहीं है। वरन फख्र है मुझे खुद पर , जो मैं आपके सान्निध्य में आ गया।
शीर्षक हीं सारी गूढता समेटे होता है। 'मिथ्याबोध' शब्द हीं खुद में सम्पूर्ण कहानी है। आप अपनी बात कहने में पूर्णत: सफल हुए हैं। राजीव जी और गौरव जी ने ऎसे हीं आपमें परिपक्विता परिलक्षित नहीं की है,बल्कि आपमें वह गुण है ।

दोषी कोई नहीं, स्वंय के मिथ्याबोध थे
सागर में मिलना उसकी नियति ही थी।

जल के बहाने आपने जिंदगी की सच्चाई रच डाली है। बधाई स्वीकारें।

शैलेश भारतवासी का कहना है कि -

मोहिन्दर जी,

बिम्बों के मामले में यह कविता एक असाधारण कविता है। पहली बार मैं आपकी कविता की केवल तारीफ़ कर रहा हूँ (यद्यपि कहीं-कहीं प्रवाह खंडित है फ़िर भी इसकी कलात्मकता के आगे सभी बातें बेकार हैं)।

सबसे बड़ी बात है कि बिलकुल नई सोच है-

अब तो किनारे भी उससे डरने लगे
जो फ़ंलाग जाते थे उछालों से उसको कभी
अब दूर जा कर पुलों पर से गुजरने लगे

कविता का उपसंहार किसी दर्शन से कम नहीं है। इसे कविता नहीं महाकविता कहिए। पूरी कहानी है जीवन के मिथ्याभान की।
दोषी कोई नहीं, स्वंय के मिथ्याबोध थे

राकेश खंडेलवाल का कहना है कि -

एक अच्छी रचना के लिये बध्हाई

अभिषेक सागर का कहना है कि -

आपकी सोच और कविता की जितनी प्रसंशा की जाये कम है। इतने अच्छे उपमान और इतनी अच्छी तरह से प्रयुक्त हुए हैं कि नये कवियों के लिये प्रेरणास्त्रोत हैं।

-रचना सागर

गरिमा का कहना है कि -

जी सागर मे मिलना उसकी नियति तो थी, पर उस नियति के डर से चुप भी तो नही रह सकती थी, नही पता की वो मंजिल था कि नही पर चलना छोड़ भी तो नही सकती थी... फिर अफसोस कैसा...???

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