पहाड़ -१
पहाड़ों के आगे
बैठा हुआ मैं सोचता हूँ
अगर तुम्हारा गम न रहा होता
तो आज कितना बौना पाता मैं अपने आप को
और अब देखता हूँ
इतना सख़्त भी नहीं पहाड़
जितना मेरा दिल हो गया है..
पहाड़ -२
पहाड़ का सीना चीर कर
नदी समंदर हो गयी
अपना अस्तित्व खो गयी
पहाड़ की आँख भी आसमान ठहरा है
और जानम
मैं पहाड़ का दर्द अपने भीतर
महसूस करता हुआ पाता हूँ
जड़ हो गया हूँ..
पहाड़ -३
पहाड़ से टकरा कर
लौट आता है तुम्हारा नाम
तुम से टकरा कर
लौट-लौट आती है मेरी धड़कन
कितनी कठोरता जानम कि पर्बत हो गयी हो..
पहाड़ -४
तुम न पत्थर पूजे से मिले
न पहाड़
लेकिन मेरी आस्था जीती है
तुम हाथ की लकीरों में नहीं थे..
पहाड़ -५
रात बहुत बारिश हुई
पहाड़ गिर पड़ा नदी की राह में
एक झील बन गयी है
बरसात नहीं थमती है
जानम क्या नदी ठहर जायेगी
या ढह जायेगा बाँध
और शेष कुछ भी न रहेगा?..
पहाड़ -६
पर्वत से जीना सीखा है
गम को निर्झर कर देता हूँ
रीता हूँ दरिया कहता है
कल फ़कीर गाता जाता था
इस पहाड़ में दिल रहता है..
*** राजीव रंजन प्रसाद
१०.११.२०००
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19 कविताप्रेमियों का कहना है :
राजीव जी,
तो आज कितना बौना पाता मैं अपनें आप को
कितनी कठोरता जानम कि पर्बत हो गयी हो..
तुम हाथ की लकीरों में नहीं थे..
एक झील बन गयी है
ये पंक्तियाँ जहाँ अकेले की क्षणिकाओं की जिम्मेदारी सँभाल लेतीं हैं , वहीं
"कल फकीर गाता जाता था"
शायद भाव-प्रवाह से दूर ले जाती है ।
इस क्षेत्र में आप सिद्धहस्त हैं, सारी क्षणिकायें बस यही बयान कर रही हैं और आपने तो कबीर जी के "पाथर पूजे हरि मिलैं " को भी नया आयाम दे दिया । साधु !
बहुत प्रेरणा देते हैं आप राजीव जी।
शुरु में लगा था कि आप सिर्फ़ पहाड़ के कठोरता वाले पहलू को ही लिख रहे हैं, लेकिन जब पढ़ा कि
कितनी कठोरता जानम कि पर्बत हो गयी हो..
तो भाव-विभोर हो गया।
बाद की क्षणिकाएँ पहाड़ के कई सारे नए आयाम खोज लाई हैं। सब सुन्दर हैं लेकिन मुझे ये सबसे ज्यादा पसन्द आई।
रात बहुत बारिश हुई
पहाड गिर पडा नदी की राह में
एक झील बन गयी है
बरसात नहीं थमती है
जानम क्या नदी ठहर जायेगी
या ढह जायेगा बाँध
और शेष कुछ भी न रहेगा?..
कई जगह जानम का प्रयोग भी बहुत आकर्षक लगा है। साथ ही मैं आलोक जी से असहमत हूँ कि 'कल फकीर गाता जाता था' भाव-प्रवाह से दूर ले जाती है। मैं तो इन दो पंक्तियों के भावों में खो गया।
कल फकीर गाता जाता था
इस पहाड में दिल रहता है..
लिखते रहिए। आपकी और भी बहुत सारी क्षणिकाएँ पढ़ने का मन हो रहा है।
"मैं पहाड का दर्द अपने भीतर
महसूस करता हुआ पाता हूँ
जड हो गया हूँ.."
पंक्तिया प्रभावी है ।
सुन्दर रचना ।
राजीव जी,
मेरा तो शुरू से ही मानना है कि क्षणिकाओं में कविता से ज्यादा मारक व बांधने की क्षमता है.. सब की सब सुन्दर बन पडी हैं
इतना सख़्त भी नहीं पहाड़
जितना मेरा दिल हो गया है..
मैं पहाड़ का दर्द अपने भीतर
महसूस करता हुआ पाता हूँ
जड़ हो गया हूँ..
लेकिन मेरी आस्था जीती है
तुम हाथ की लकीरों में नहीं थे..
पर्वत से जीना सीखा है
गम को निर्झर कर देता हूँ
विशेष उल्लेखनीय पंक्तियां हैं
सुन्दर भाव।
राजीव जी!
सभी क्षणिकायें बहुत सुंदर हैं. विशेषतौर पर ये क्षणिका मुझे बहुत पसंद आयी:
पर्वत से जीना सीखा है
गम को निर्झर कर देता हूँ
रीता हूँ दरिया कहता है
कल फ़कीर गाता जाता था
इस पहाड़ में दिल रहता है..
हार्दिक बधाई!
राजीव ज़ी बहुत ही सुंदर लिखा है ..मुझे यह बहुत सुंदर लगी ..वैसे तो सभी ही अच्छी हैं :)
पहाड़ से टकरा कर
लौट आता है तुम्हारा नाम
तुम से टकरा कर
लौट-लौट आती है मेरी धड़कन
कितनी कठोरता जानम कि पर्बत हो गयी हो..
वाह राजीव जी!!
सभी क्षणिकाएं बढ़िया बन पड़ी है!!
पर्वत से जीना सीखा है
गम को निर्झर कर देता हूँ
रीता हूँ दरिया कहता है
कल फ़कीर गाता जाता था
इस पहाड़ में दिल रहता है..
तुम न पत्थर पूजे से मिले
न पहाड़
लेकिन मेरी आस्था जीती है
तुम हाथ की लकीरों में नहीं थे..
kshanikaayen to sab pasand aai...magar yeh bahut aachi lagi....good imagination and presentation...kshanikaayen likhne me to aapka koi jawaab hi nahi hai.:)
"अगर तुम्हारा गम न रहा होता
तो आज कितना बौना पाता मैं अपने आप को"
"पहाड़ की आँख भी आसमान ठहरा है"
"कितनी कठोरता जानम कि पर्बत हो गयी हो.."
"तुम न पत्थर पूजे से मिले
न पहाड़
लेकिन मेरी आस्था जीती है
तुम हाथ की लकीरों में नहीं थे.."
" क्या नदी ठहर जायेगी
या ढह जायेगा बाँध
और शेष कुछ भी न रहेगा?.."
"कल फ़कीर गाता जाता था
इस पहाड़ में दिल रहता है.."
छः गगरियों में छः सागर
अद्भुत क्षमता है आपकी रचनाओं में
सुन्दर
सस्नेह
गौरव शुक्ल
nice thoughts...
"पहाड़ से टकरा कर
लौट आता है तुम्हारा नाम
तुम से टकरा कर
लौट-लौट आती है मेरी धड़कन
कितनी कठोरता जानम कि पर्बत हो गयी हो.."
"पर्वत से जीना सीखा है
गम को निर्झर कर देता हूँ
रीता हूँ दरिया कहता है
कल फ़कीर गाता जाता था
इस पहाड़ में दिल रहता है.."
सभी क्षणिकायें अच्छी लगीं पर यह दोनों सबसे अधिक । सरल शब्दों में बहुत कुछ कहती है ।
आज अपनी रचना 'धारा' पोस्ट करने के बाद मैंने आपकी और मोहिन्दर जी की रचना देखी तो लगा हम सब धारा और पहाड़ों से प्रभावित हो रहे हैं । आप दोनों की रचनाएँ बहुत अच्छी लगीं और सीखने की प्रेरणा भी मिली ।
और अब देखता हूँ
इतना सख़्त भी नहीं पहाड़
जितना मेरा दिल हो गया है..
मैं पहाड़ का दर्द अपने भीतर
महसूस करता हुआ पाता हूँ
कितनी कठोरता जानम कि पर्बत हो गयी हो..
लेकिन मेरी आस्था जीती है
तुम हाथ की लकीरों में नहीं थे..
पहाड़ गिर पड़ा नदी की राह में
एक झील बन गयी है
रीता हूँ दरिया कहता है
कल फ़कीर गाता जाता था
इस पहाड़ में दिल रहता है..
राजीव जी अद्भुत क्षणिकाएँ लिखते हैं आप। आपने अपनी रचनाओं के माध्यम से पहाड़ की कठोरता और दृढता को एक नया कलेवर दिया है। मैं तो स्वीकार करता हूँ कि क्षणिका लिखना और उसमें मारकता डालना आप हीं से सीखा है मैने। इसी तरह अद्भुत और अनोखी विधाओं से हमें रूबरू कराते रहें।
बधाई!
सभी क्षणिकायें बहुत सुन्दर
राजीव जी!
बधाई!
आप कि क्षणिकाओं के बारे मे कुछ भी कह्न...बहुत ही मुश्किल है..........
अदभुत भाव है
और सबसे बड़ी बात यह है कि सब कुछ केवल एक विषय पर
सचमुच अदभुत बात है
रात बहुत बारिश हुई
पहाड़ गिर पड़ा नदी की राह में
एक झील बन गयी है
बरसात नहीं थमती है
जानम क्या नदी ठहर जायेगी
या ढह जायेगा बाँध
और शेष कुछ भी न रहेगा?..
पहाड़ -६
पर्वत से जीना सीखा है
गम को निर्झर कर देता हूँ
रीता हूँ दरिया कहता है
कल फ़कीर गाता जाता था
इस पहाड़ में दिल रहता है..
शुभकामनाएँ
क्षणिकाएँ लिखने की प्रेरणा सभी अंतरजालीय कवियों को आपसे लेनी चाहिए।
राजीव जी
आपकी क्षणिकाएँ पढ़ी ।
कम शब्दों में इतना सुन्दर कहना
बहुत ही कठिन कार्य है । आपने इसे बखूभी निभाया है ।
बहुत- बहुत बधाई ।
पहाड को इतने आयामों से देखा है आपनें ..और हर क्षनिका मुझे प्रिय लगी।
-रचना सागर
जीवंत रचना
कुछ कहना
मेरा बौनापन होगा
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