"अनधिकार प्रवेश निषेध"
यह बोर्ड और
तुम्हारे आसपास
अहम की अभेद्य दीवार।
मेरे भाई!
जो ईंट की दीवार
खड़ी की थी तुमने,
माँ के कहने पर
हटा चुका हूँ उसे|
अपमानित स्वाभिमान-
तब भी
कर चुका हूँ धाराशायी
रिश्तों के आंगन से
नफरत के टीले।
फिर भी न जाने क्यों
अब तक बँटे हो
तुम हमसे।
तुम्हें याद होगा कि
महीनों पहले-
तुमने बांट लिया था
खुद से हमें,
तब तुम वाचाल थे
और मैं मौन,
आज हम दोनों मौन है।
निस्संदेह तुम
सुन नहीं रहे मेरे दर्द को,
लेकिन सुन सकता हूँ मैं-
तुम्हारा बड़बोला अहंकार,
तुम्हारी अशांत चुप्पी।
शायद
कोई अधिकार नहीं मेरा तुम पर,
फिर भी कहूँगा -
"सीने में चुभता है
तुम्हारा वाचाल मौन"।
-विश्व दीपक 'तन्हा'
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21 कविताप्रेमियों का कहना है :
bahut ghari baat deepak ki seene main chubhta hai vachal moun
mujhe ye kabita jhuk jane ka ehsaas aur usse rishton ko baandhne ki koshish bahut achhi lagi
likhte raho ki tumhe wapis rhythm main dekhna achha laga hai
बहुत अच्छा लगा है तन्हा साहब।
अनधिकार प्रवेश निषेध"
यह बोर्ड और
तुम्हारे आसपास
अहम की अभेद्य दीवार।
रिश्तों के आंगन से
नफरत के टीले।
"सीने में चुभता है
तुम्हारा वाचाल मौन"
मेरी एक कविता 'चलो कुछ बात करें' की याद आ गई। आप इस वाचाल मौन के साथ अकेले नहीं हैं।
कविता का शीर्षक आकर्षित करता है। और इसी तरह की स्थिति मैंने आजकल भाई-भाई में ज़मीन और ज़यदाद को लेकर होते झगड़ों में देखी है। वैसे वहाँ दोनों ही वाचाल मौन होते हैं। कविता स्पंदित करने में सक्षम है।
वाचाल मौन.. शीर्षक ने कविता पढ़ने पर मजबूर किया। हर घर की कहानी है ये.. अहम् जब आ जाये तब अच्छे से अच्छे घर तबाह हो जाते हैं.. इस सच्चाई को शब्दों बहुत खूब पिरोया है आपने।
आपसी रिश्तों की कडवाहट पर करारा प्रहार करती हुई रचना... बधायी
शब्दशिल्पीजी,
रिस्तों में कड़वाहट बहुत तकलिफ़देह होती है और उसे शब्दों में ढ़ालना उससे कहीं ज्यादा तकलिफ़देह...
आपका वाचाल मौन भावों को व्यक्त करने में कामयाब रहा है।
kavita ka theek dhang se ant bahut mahatvapoorna hota hai...poori kavita ka rukh badakl sakta hai uska ant......aapki is kavitaa me bhaavnaayen gahari jhalak rahi hain aur ant atyant khoobsoorat kiya gaya hai...
"सीने में चुभता है
तुम्हारा वाचाल मौन"
waah maza aa gaya
regards
anu
"वाचाल मौन"..क्या बात है
मैं भी मौन हूँ अब..
थोडा सा सिहर गया हूँ कि क्या सम्बन्ध इस परिणति तक भी पहुँच सकते हैं?
"तुम्हारी अशांत चुप्पी"
""सीने में चुभता है
तुम्हारा वाचाल मौन"।"
बहुत सुन्दर दीपक जी
कहीं पढा था
"अब ईंटों के पुख्ता घर मे हम एकाकी हैं
भावहीन सम्बन्धों के बस सम्बोधन बाकी है"
अनुपम रचना के लिये हार्दिक बधाई
सस्नेह
गौरव शुक्ल
तन्हा जी!
एक सामान्य परिवार में होने वाले बिखराव को आपने बेहद खूबसूरती से शब्दों में ढाला है. सुंदर अभिव्यक्ति के लिये बधाई.
भाई के भाई से बतवारें का दर्द कविता मे से उड़ता हुअ..सीने मे चुभ सा रहा है...
आज की समस्या की ओर ध्यान दिलाता अदभुत पद्य है...
तब तुम वाचाल थे
और मैं मौन,
आज हम दोनों मौन है।
निस्संदेह तुम
सुन नहीं रहे मेरे दर्द को,
लेकिन सुन सकता हूँ मैं-
तुम्हारा बड़बोला अहंकार,
तुम्हारी अशांत चुप्पी।
बधाइयाँ
तन्हा जी क्या बखूबी दर्द को बयां किया है । बधाई हो
निस्संदेह तुम
सुन नहीं रहे मेरे दर्द को,
लेकिन सुन सकता हूँ मैं-
तुम्हारा बड़बोला अहंकार,
तुम्हारी अशांत चुप्पी।
शायद
कोई अधिकार नहीं मेरा तुम पर,
फिर भी कहूँगा -
"सीने में चुभता है
तुम्हारा वाचाल मौन"।
स्तब्ध करती है रचना पढते ही। आपकी शैली और भाव दोनों ही रचना को उंचाई प्रदान कर रहे हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
निस्संदेह तुम
सुन नहीं रहे मेरे दर्द को,
लेकिन सुन सकता हूँ मैं-
तुम्हारा बड़बोला अहंकार,
तुम्हारी अशांत चुप्पी।
शायद
कोई अधिकार नहीं मेरा तुम पर,
फिर भी कहूँगा -
"सीने में चुभता है
तुम्हारा वाचाल मौन"।
स्तब्ध करती है रचना पढते ही। आपकी शैली और भाव दोनों ही रचना को उंचाई प्रदान कर रहे हैं।
*** राजीव रंजन प्रसाद
kuch kavitayen hoti hain jo chupke se shuruaat karti hain aur ant me is tarah se samaa jaati hain man me ki aap unko apna hissa samajhne lagte hain... ye unme se ek kavita hai
"अनधिकार प्रवेश निषेध"
यह बोर्ड और
तुम्हारे आसपास
अहम की अभेद्य दीवार।
अपमानित स्वाभिमान-
तब भी
कर चुका हूँ धाराशायी
रिश्तों के आंगन से
नफरत के टीले।
फिर भी न जाने क्यों
अब तक बँटे हो
तुम हमसे।
these are lines i ll hav to appreciate the most. Tanhaji u hav done justice with the title of the poem. very good...keep it up.
dis poem make u to think bout how we dealing with relationship & why we r not able to understand each others problm. apart frm tht he realy doing gr8 contribution to hindi..yoo
Bhai deepak aapka jawab nahi.......
aap har tarah ki rachna kar lete hain.......aur sab ke sab behtarin.........."wachal maun" to kafi touching hai.....
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तुम्हें याद होगा कि
महीनों पहले-
तुमने बांट लिया था
खुद से हमें,
तब तुम वाचाल थे
और मैं मौन,
आज हम दोनों मौन है।
निस्संदेह तुम
सुन नहीं रहे मेरे दर्द को,
लेकिन सुन सकता हूँ मैं-
तुम्हारा बड़बोला अहंकार,
तुम्हारी अशांत चुप्पी।
शायद
कोई अधिकार नहीं मेरा तुम पर,
फिर भी कहूँगा -
"सीने में चुभता है
तुम्हारा वाचाल मौन"।
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Es kavita me deepak ji ne bahut hi gehri baat kahi hai........
I wish him good luck for his carrer........
********randhir
शीर्षक से समापन तक कविता में महान खींचाव है।
aapke kavita ke bare mein kya kahein deepak sahab...........
chand panktiyon mein hi laga ki rishton ka sara saransh bata diya ho......
bahut khoob lage rahiye........
कोई अधिकार नहीं मेरा तुम पर,
फिर भी कहूँगा -
"सीने में चुभता है
तुम्हारा वाचाल मौन"।
a very nice read. aap ek aisi topic pe likhe ho jo aaj ka sabse bara problem hai.. bhaiyon mein bhed, ahankar aur avishwas ki wajah se aaj ghar toot ne lage hain, aur ye humari sanskriti ke liye achhi baat nehi hai, aisa chalta raha to aane waale generations ko hum koi sanskar dene ki layek nehi rahenge..
again, a very nice piece of work, as always !
Listen it in my voice Here
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