प्रस्तुत है जुलाई माह के तीन सोमवारों की कड़ी में मेरी अन्तिम रचना...पिछली दो रचनाओं की तरह इस बार भी आपका स्नेह मिलेगा, ऐसा विश्वास है......
हो सके तो.....
जानता हूँ, चिता मन में जल रही है, मत बुझाओ॥
अब मिलन का हर्ष कैसा? विरह वाला गीत गाओ...
भूल जाओ........
पात झरते है तो झड़ जाएँ, शिशिर का ध्यान कैसा??
बिना मांगे प्रेम तुमने दे दिया, अब प्रेम में प्रतिदान कैसा??
है लिखा मिलना-बिछुड़ना, इसमे क्या रोना-बिलखना;
पथिक अब कैसी विवशता ? पथ में है व्यवधान कैसा??
गति है जीवन का सच, मत लौटने का मन बनाओ...
...हो सके तो भूल जाओ......
तुमको अब दिखला न सकूंगा, छलनी मेरा भी सीना है,
मुझको निर्मोही कह लेना..सुख तुमसे मैंने छीना है ...
द्वार तुम्हारे अर्थी लेकर फिर आऊंगा, सुख लौटाने;
चिता सजाना, भूल ना जाना, शेष का जीवन तब जीना है...
मेरी चिता पर काम आएंगे, फूल अभी से मत बरसाओ...
...हो सके तो भूल जाओ......
आओ आलिंगन करें, अब जा रह हूँ, मन है भारी...
लिए जाता हूँ हृदय के आईने में छवि तुम्हारी,
रोज़ अब अन्तिम प्रहर में, आंसुओं से मन का मंदिर,
स्वच्छ करके, मन की देवी को कहूँगा व्यथा सारी ....
और तुम...इन आंसुओं का भार अपनी हथेली पर उठाओ....
अमर हो जाऊं;मिले अमरत्व; कोई पथ दिखाओ.....
भूल जाओ.....हो सके तो भूल जाओ......
जानता हूँ, चिता मन में जल रही है, मत बुझाओ॥
अब मिलन का हर्ष कैसा? विरह वाला गीत गाओ...
भूल जाओ........
हो सके तो....
निखिल आनंद गिरि
+९१९८६८०६२३३३
+९१९४३१३८४९७४
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)
15 कविताप्रेमियों का कहना है :
itni bhavpurna sundar kavita likhi hai aapne.......man mughdha ho gayaa......wah....iske liye aapko bahut bahut badhai........aage aapki rachnaye padhne ka awsar main nahi khone wali.......
[:)]
divya
निखिल जी मिश्रित भाव वाली सुन्दर कविता है
आशा निराशा में डूवत उतराते नायक को चित्रित करती हुयी.... बधायी
बढिया अभिव्यक्ति निखिल जी हमारे भी हृदय के आईने में छा गयी है कवि, छवि तुम्हारी ।
Ati sundar likha hai.....kalpana ke pankhon par jo bhaav sawaar hau to bas udta hi chala gaya....kavati me aacha bahaav aur ravangi hai....likhte rahiye...meri shubh kaamnaayen sweekaren.
भावपूर्ण रचना है।
निखिल जी!
बेहद सुंदर और प्रभावपूर्ण रचना है. वियोग के दुख को जीवन का सच मान कर झेलने को तैयार प्रेमी की पीड़ा, अपने प्रिय को किसी भी तरह सांत्वना देने का उसका प्रयास और इस प्रेम के सहारे ऊँचा उठने की उसकी आकांक्षा; सभी को आपने जीवंत कर दिया है.
बहुत बहुत बधाई!
हिन्दी English Switch to the new single panel interface
Your browser may not be able to display unicode fonts correctly. If you are using Windows, please install supplemental language support(Help).
Don't show this message again
Your Name
(This field cannot be left blank)
Your email address
(Please provide a valid email address)
To
(Please provide a valid list of email addresses)
Subject
(This field cannot be left blank)
Sending email... (The Message body is blank. Please use the composer to write the message) Failed to send your email. Please try again after some time Your email was sent successfully.
भाव अत्यंत सुंदर है.........
विरह की ऐसी भाव पूर्णता कहीं कहीं ही दिखाई देती है.....
विरह एक ऐसा विषय है जिस पर आजकल की काफ़ी सारी फूहड़ एवं एस एम एस की तरह की कविताएँ लिखी जाती है परंतु आप की भाषा इतनी परिश्क्रत तथा स्तरीय है की लगता ही नही है.....
ऐसे भाव कोई स्तरीय कवि ही उत्पन्न कर सकता है....
चिता सजाना, भूल ना जाना, शेष का जीवन तब जीना है...
मेरी चिता पर काम आएंगे, फूल अभी से मत बरसाओ...
...हो सके तो भूल जाओ......
और ना केवल भाषा वरन्, भाव, शब्द, अलंकार, शब्द-शक्ति....सभि दृष्टियों से रचन स्तरीय है
...............
ऐसी रचनाओ के लिए शत धन्यवाद....
comment thik se copy nahi hua usake liye shama
जानता हूँ, चिता मन में जल रही है, मत बुझाओ॥
मिलन का हर्ष कैसा? विरह वाला गीत गाओ...भूल जाओ........
सराहनीय!! बहुत सुन्दर रचना।
*** राजीव रंजन प्रसाद
मुझको निर्मोही कह लेना..सुख तुमसे मैंने छीना है ... द्वार तुम्हारे अर्थी लेकर फिर आऊंगा, सुख लौटाने; चिता सजाना, भूल ना जाना, शेष का जीवन तब जीना है... मेरी चिता पर काम आएंगे, फूल अभी से मत बरसाओ... ...हो सके तो भूल जाओ......
इन पंक्तियों ने सबसे ज्याद प्रभावित किया।अपनी हीं प्रेयसी को भूलने की बात कहना बड़ा हीं कठिन होता है। इस भावना को आपने शब्दों में उकेरा है। इसके लिए आप बधाई के पात्र हैं।
बहुत खूब। आपने पिछली बार की सभी शिकायतॊं कॊ दूर कर दिया।
कवि कॊ बधाई
सच्ची कविता है। कई-कई पंक्तियों को तो कई बार पढ़ने का मन करता है। जैसे-
तुमको अब दिखला न सकूंगा, छलनी मेरा भी सीना है,
मुझको निर्मोही कह लेना..सुख तुमसे मैंने छीना है ...
द्वार तुम्हारे अर्थी लेकर फिर आऊंगा, सुख लौटाने;
चिता सजाना, भूल ना जाना, शेष का जीवन तब जीना है...
मेरी चिता पर काम आएंगे, फूल अभी से मत बरसाओ...
रोज़ अब अन्तिम प्रहर में, आंसुओं से मन का मंदिर,
स्वच्छ करके, मन की देवी को कहूँगा व्यथा सारी ....
और तुम...इन आंसुओं का भार अपनी हथेली पर उठाओ....
अमर हो जाऊं;मिले अमरत्व; कोई पथ दिखाओ.....
और अपने आप में कविता की शुरूआत बहुत लुभाती है। बेहतरीन!
सभी मित्रों को नमस्कार,
मेरी रचना पर पारखी नजर रखने के लिये शुक्रिया ।
पीयूष जी को इतनी मेहनत से प्रतिक्रिया लिखने का विशेष धन्यवाद।
हिन्द-युग्म की बदलती सज्जा भा रही है।
निखिल
Waah kitni sundar kavita hai jo shaant mann ko bhi sochne par majboor kar deta hai.
nike shoes
ralph lauren uk
michael kors handbags
rolex replica watches
browns jerseys
ray ban sunglasses
coach outlet online
nike huarache
jacksonville jaguars jersey
longchamp outlet
आप क्या कहना चाहेंगे? (post your comment)